Monday, October 7, 2019

असग़र वज़ाहत का 'यदी' - एक विचारोत्तेजक नाटक


कार्यक्रम समाप्त होते ही, बड़े कलाकार पर्दे पर आने लगे, शाम के दो सितारे - नाटककार असग़र वज़ाहत एवं मुख्य अभिनेता निर्देशक टॉम ऑल्टर केंद्र में थे, पूरे भरे सभागार ने तालियों की गड़गड़ाहटो से अपनी प्रसन्नता एवं उत्साह को प्रकट किया । दर्शकों एवं कलाकारों के बीच ऐसा रोमांचक तालमेल नाट्यकला के लिए काफ़ी अनूठा है । इस कार्यक्रम में असग़र वज़ाहत के नाटक "यदी" की प्रस्तुति थी, वज़ाहत को भारतीय नाट्य में उनके योगदान के लिए वर्ष 2014 का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया था, अभिमंच में एसएनए के द्वारा यह कार्यक्रम हाल ही में पुरस्कार प्राप्त विजेता कलाकारों की रचनात्मकता का उत्सव मनाने के लिए आयोजित किया गया था ।


वास्तव में, हालिया वर्षों में असग़र अपने प्रसिद्ध नाटक 'जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्याई नई' के हिंदी थिएटर कलाकारों के साथ लोकप्रिय हो गए हैं । हबीब तनवीर द्वारा श्रीराम सेंटर रिपर्टरी कंपनी के लिए चार दशक पहले इस नाटक का निर्देशन किया गया था, तब से इस नाटक ने समकालीन हिंदी नाट्यशास्त्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है । इन वर्षों में, विदेशों में इसका मंचन किया गया, विशेष रूप से एक पाकिस्तानी समूह द्वारा इसका मंचन किया गया है, जिसे भारत रंग महोत्सव में भी दिखाया गया था । दिल्ली के एक कलाप्रेमी समूह ने इस नाटक का मंचन पचास से अधिक बार किया है । अब इस नाटक का मंचन राजधानी दिल्ली में पंजाबी एवं सिंधी में किया जा रहा है । उनका एक और नाटक "अन्ना की आवाज़" है जिसका पहला प्रदर्शन सत्तर के दशक में किया गया था, जोकि थिएटर कलाकारों को रोमांचित करता है । असग़र की कृति का मूल भाव उसकी संयम कलात्मकता, दृढ़ता, भाषा की सरलता है जोकि दर्शकों के दिल को छू जाती है । वे लच्छेदार भाषा, भावुकता और बौद्धिकता से बचते हैं, वे अधिकांश गंभीर विचारों को व्यक्त करने के लिए सरल भाषा के प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं ।


उनके नवीनतम नाटक "यदी" में उन सभी विशेषताओं को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है जो ऐतिहासिक तथ्यों को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए प्रयोग की जाती है - एक ऐसी काल्पनिक स्थिति जिसमें गांधी जीवित हैं और गोडसे उनका हत्यारा है । दोनों आमने-सामने बात करते हैं- जेल की बैरक में जहां वे दोनों ठहरे हुए हैं । काल्पनिक स्थिति में, नाटक गांधी से शुरू होता है, जहाँ वे कांग्रेस पार्टी के सरकार बनाने के फैसले का विरोध करने के लिए आमरण अनशन करते हैं, उन्होंने स्वयं को नेहरू और पटेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस से अलग कर लिया है । गांधी ने कांग्रेस सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों को स्वीकार करने से इनक़ार कर दिया । गाँधी अपने अहिंसा और सत्य के विचारों को आगे बढ़ाने की दृष्टि से, एक सुदूर आदिवासी क्षेत्र में जाते हैं तथा स्वराज की अपनी अवधारणा को अमलीज़ामा पहनाते हैं । गांधी के स्वराज के प्रति जन प्रतिक्रिया से घबराया कांग्रेस शासन उन्हें जेल में डाल देता है ।


विडंबना यह है कि गांधी उसी जेल में हैं जहां गोडसे को पहले से ही रखा गया है । वह गांधी को नापसंद करता है एवं राष्ट्र का दुश्मन मानता है । गांधी उसी बैरक में रहना चाहते हैं, जहां गोडसे को रखा गया है । जेल अधिकारियों पर गांधी की इच्छा पूरी करने का दबाव बनाया जाता है । इससे उनके बीच टकराव की एक ऐसी श्रृंखला बनती चली जाती है, जिसमें कुछ मनोरंजक, गंभीर तथा कुछ मैत्रीपूर्ण हैं । यहां शांति और अहिंसा का उपासक व्यक्ति, एक ऐसे अति अनुदार प्रतिक्रियावादी के ह्रदय में परिवर्तन लाने के लिए दृढ़ संकल्पित है जो रुग्ण हिंदुत्व में आस्था रखता है ।


इस कथा के तीन सिरे हैं- कांग्रेस पार्टी के द्वारा सामाजिक कार्य का एक साधन बनाने के लिए भंग करने के बजाय सरकार बनाने के विरुद्ध गांधी का मजबूत विरोध, गांधी द्वारा आदिवासी क्षेत्र में स्वराज की अवधारणा को लागू करना तथा गांधी का आश्रम के निवासियों द्वारा ब्रह्मचर्य पालन करने का दूरगामी विचार । इन तीनों सिरों को विपरीत विचारधारा वाले दो पुरुषों के विचारों के टकराव और समाधान पर ध्यान देने के लिए कथानक की मूल संरचना में बुना जाना आवश्यक है । लेकिन उन्हें कथानक में कसाव लाने के लिए एकीकृत नाटकीय संरचना में विलय नहीं किया जाता है ।


निर्देशक टॉम ऑल्टर ने अपने प्रस्तुतीकरण को सरल रंग-योजना के साथ डिजाइन किया था तथा दृश्यों को इस तरह से तैयार किया कि वे दर्शकों को प्रत्यक्षतया स्पष्ट हों । प्रधानमंत्री नेहरू के कार्यालय का दृश्य एक ऊँचे मंच पर स्थापित किया गया है, जो उनके और जनता के बीच आई व्यापक दूरी का प्रतीक है तथा प्रधानमंत्री राज्य की नौकरशाही संरचना के दलदल में कहीं खो गए हैं, जोकि गांधी की स्वराज की अवधारणा के अनुसार एक अभिशाप है ।


टॉम ऑल्टर ने गांधी की मुख्य भूमिका में हिंदी में अपनी पंक्तियों को पूर्ण निष्ठा के साथ प्रदर्शित किया है । हमने उन्हें पहले ही पियरोट की मंडली के लिए एम. सईद आलम द्वारा निर्देशित कई प्रस्तुतियों में उर्दू के संवाद प्रस्तुत करते सुना है । उनके गांधी सघन भावनात्मक स्थिति में भी शांत रहते हैं, उनके गांधी केवल एक बार क्रोध को दबाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि आश्रम में युवा प्रेमियों ने ब्रह्मचर्य के कठोर अनुशासन को तोड़ दिया है । अपनी गहरी प्रतिबद्धता और बातचीत की एक प्रेरक शैली के माध्यम से, वह गोडसे का सामना करते हैं । प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रूप में बेंजामिन गिलानी एक मज़बूत प्रस्तुति देते हैं । हरीश छाबड़ा को गांधी के साथ एक हिंदू कट्टरपंथी के रूप में शुरुआती टकरावों में अपने रूपांतरण को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए अपनी तीव्र घृणा और बदले की भावना का प्रकटीकरण करना चाहिए था । अनिल जॉर्ज, जेलर के रूप में गोडसे के साथ बैरक साझा करने के लिए गांधी को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक पुलिस अधिकारी की चिंता को यथोचित पकड़ते हैं ।



लेख- ‘द हिन्दू’ से 
अनुवाद – अनुपमा शर्मा 


Tuesday, May 28, 2019

नए भारत में हमेशा की तरह अब कोई सरोकार नहीं


पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं, 'बीजेपी की इस चौंका देने वाली जीत का सबसे महत्वपूर्ण एकमात्र कारण राष्ट्रीय दृष्टिकोण का प्रकटीकरण, गर्व का एक साझा सपना, मुखर भारत है ।' 

भोपाल से विजयी भाजपा प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर मतगणना के अंतिम दौर में जब केंद्र का दौरा करने पहुँची, तब उन्हें ’गोडसे ज़िंदाबाद’ का नारा लगाकर बधाई दी गई । एक "देशभक्त" के रूप में गोडसे की तसदीक़ करने से प्रधानमंत्री मोदी प्रकट रूप से इतने परेशान हो गए कि वे प्रज्ञा ठाकुर को अपने दिल में कभी माफ नहीं करेंगे । ऊपर से नीचे तक सही धूम और सही प्रक्रियाएं थीं; और फिर गांधी की हत्या के लिए फांसी पर लटकाए गए व्यक्ति का पुरजोर बखान था । 

यह सांकेतिक संचार की कीमियागिरी है जो संघ परिवार के भीतर एक साझे दृष्टिकोण के कारण इतने प्रभावी रूप से कार्य कर रही है । मोदी और शाह नए युग की कॉर्पोरेट दक्षता और संघ परिवार में पाई जाने वाली मानसिकता एवं तंत्र की आक्रामकता लेकर आए । यह अनायास नहीं था कि मोदी ने अपना पहला कार्यकाल "पांच पीढ़ियों के बलिदान" की आभार स्वीकृति के साथ शुरू किया । यह वर्ष 2014 के जनादेश में आरएसएस (1925 में स्थापित) के योगदान के लिए एक उपयुक्त श्रद्धांजलि थी; उदासीन कार्य प्रदर्शन के बावज़ूद इसे और अधिक प्रभावी रूप से दोहराया गया है । 

मोदी के विरोधी पक्ष एवं आलोचक 2014 के जनादेश के दीर्घकालिक अर्थ को समझने में पूरी तरह विफल रहे । चाहे वह संस्थागत तोड़फोड़ हो या इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के माध्यम से वैचारिक युद्ध हो, नेहरू की छवि को धूमिल करना हो, सबकुछ सावधानीपूर्वक तैयार की गई रणनीति का हिस्सा था । यह महज व्यवस्था परिवर्तन नहीं था, यह "पांच पीढ़ियों के निरंतर कार्य" तथा भारत के वैकल्पिक विचार को मजबूत करने के लिए राज्यतंत्र उपयोग करने की परिणति थी । यह हमेशा की तरह एक पेशा भी नहीं था । यह "पूरी राजनीति के हिंदुकरण" की यात्रा में एक महत्वपूर्ण चरण था - जिसे सावरकर ने स्थापित किया था । हम यहाँ स्वयं को याद दिलाते हैं कि सावरकर के लिए, "अस्पष्ट, सीमित, सांप्रदायिक शब्द हिंदू धर्म" से "हिंदुत्व समरूप नहीं है"। सावरकर ने जो चाहा, तथा संघ परिवार जो प्रयास कर रहा है, वह लोगों को ज़्यादा धार्मिक नहीं, बल्कि उन्हें हिंदू राष्ट्रवादी बना रहा है । 

भाजपा के मुखर विरोध के बावजूद, उनके विरोधियों से इस महत्वपूर्ण बिंदु को याद रखने में चूक हुई, अन्यथा वे अपने संकीर्ण (भले ही उचित) हितों और विचारों से ऊपर उठ गए होते, तथा मतदान से पूर्व एक वास्तविक गठबंधन बनाते, जो महज भाजपा को हराने के उद्देश्य से नहीं बल्कि भारत के लोकतांत्रिक, समावेशी विचार पर जोर देने के उद्देश्य के साथ बनाया जाता । 


भाजपा की इस चौंका देने वाली जीत का सबसे महत्वपूर्ण एकमात्र कारण राष्ट्रीय दृष्टिकोण का प्रकटीकरण, गर्व का एक साझा सपना, मुखर भारत, तथा साथ ही उनकी सफलता (टीवी न्यूज़ रूम में योग्य लोगों की उत्साहपूर्ण मदद से) विपक्ष के प्रस्तुतीकरण के कारण है, विशेष रूप से कांग्रेस को एक उदासीन विपक्ष के रूप में प्रस्तुत करना, जैसे कि वह भारतीय राष्ट्रवाद पर गर्व करने की पक्षधर नहीं है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सभी समुदायों में अतीत के साथ एक भावनात्मक जुड़ाव एवं भविष्य के प्रति चिंता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इस देशभक्ति की भावना को या तो एक प्रतिगामी, कट्टरतापूर्ण अति-राष्ट्रवाद या लोकतांत्रिक, समावेशी राष्ट्रवाद के रूप में व्यक्त किया जा सकता है । राष्ट्रवाद के विभिन्न पहलुओं पर अकादमिक बहस चल सकती है, लेकिन रोजमर्रा की राजनीति में, राष्ट्रवाद की ताक़त को शायद ही नकारा जा सकता है । 


हमारा राष्ट्रीय आंदोलन इस मायने में अनूठा था कि इसने देशभक्ति की भावना और उपनिवेशवाद विरोधी भावना को एक लोकतांत्रिक, समावेशी राष्ट्रवाद के रूप में चित्रित किया । दादा धर्माधिकारी के शब्दों में कहें तो, यह मानवनिष्ठा भारतीयता अर्थात् सद्य भारतीय राष्ट्रवाद था । सभी मतों की प्रतिक्रियावादी ताकतों ने राष्ट्रवाद के इस संस्करण का विरोध किया है, और यही कारण है कि, नेहरू और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं ने अपने राष्ट्रवाद से सांप्रदायिकता- हिंदू, मुस्लिम या कोई अन्य का प्रतिवाद किया; राष्ट्रवाद से दूर हटने के बजाय, उन्होने लोगों को एक साझे दृष्टिकोण के रूप में मानवनिष्ठा भारतीयता के विचार पर लाने के लिए सफलतापूर्वक प्रयास किया । 


इस चुनाव में साढ़े आठ करोड़ प्रथम बार मतदान करने वाले मतदाता थे । युवा महिलाओं एवं पुरुषों के लिए देशभक्ति की भावना को कौन चित्रित कर रहा था ? कौन देशभक्ति भावना के हिंदुत्व संस्करण का विकल्प प्रस्तुत कर रहा था ? इन युवा भारतीयों को एक ऐसी शिक्षा प्रणाली में दीक्षित किया गया है जो 'कौशल और नौकरियों' को अन्य चीजों से ऊपर रखती है । उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक समझ मुख्य रूप से व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से प्रवाहित होती है, जो स्वाभाविक रूप से भाजपा के राष्ट्रवाद के संस्करण को देशभक्ति की भावना का एकमात्र द्वार समझती है । 


यह कांग्रेस थी, जिसने अपनी अदूरदर्शिता के कारण शिक्षा को मानव संसाधन प्रबंधन में बदल दिया, जिसने शिक्षा प्रणाली और प्रशासन के सभी स्तरों पर मानविकी और लिबरल आर्ट्स को हाशिए पर डाल दिया । जब लाखों युवा भाषा, इतिहास और समाज की मौलिक भावना से व्यवस्थित रूप से ही वंचित हैं, तो ऐसे में गोडसे के ज़ोरदार बखान के सिवा आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं ? 


( लेखक एक प्रसिद्ध लेखक एवं विद्वान हैं । व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं ) 


-आउटलुक से अनुवाद

Wednesday, April 3, 2019

लुई फिशर और गाँधी



लुई फिशर का जन्म सन् I896 में फिलाडेल्फिया की झुग्गियों में हुआ था, एक निश्चित कार्यकाल तक स्कूल शिक्षक एवं फिलिस्तीन में यहूदी सेना के सदस्य के रूप में कार्य करने के बाद, लुई फिशर जर्मनी से यूरोप को कवर करने वाले पत्रकार बन गए तथा फिर, 1922 में मास्को में आधारित संवाददाता बन गए । पाश्चात्य से उनका मोहभंग एवं पूंजीवाद के विकल्प के प्रति उत्कंठा, जोकि लोगों से पहले मुनाफे को रखता था, अर्थात् कि वे साम्यवादी प्रयोग के प्रति सहानुभूति रखते थे और इसकी अंतिम सफलता की उम्मीद करते थे । वे सोवियत संघ में एक लंबी अवधि तक रहे तथा उस दौरान उन्होंने देश और उसके नेताओं के बारे में कई किताबें लिखीं । 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध तथा 1939 की निंदनीय सोवियत-नाजी संधि के बड़े पैमाने पर परीक्षण एवं क्रियान्वयन के बाद उनका मोहभंग हुआ । उन्हें अनुभव हुआ कि 'प्रणाली' की चिंता के दायरे में अपने नागरिकों की देखभाल के बजाय आत्म-संरक्षण अधिक है, उन्होंने अपने अतीत से नाता तोड़कर स्टालिन से गांधी की ओर रुख किया । वे 1942 में पहली बार भारत आए तथा जून माह में सेवाग्राम आश्रम में महात्मा गांधी के साथ एक सप्ताह बिताया । तत्पश्चात उन्होंने गांधी और स्टालिन की तुलना करते हुए एक पुस्तक लिखी तथा जिसे सर्वप्रथम 1950 में पूर्ण रूप से प्रकाशित किया, और संभवतः गांधी के जीवन की सबसे लोकप्रिय जीवनी यही थी । 1960 के दशक के दौरान उन्होंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया । 1970 में उनका निधन हो गया । 


मैं जल्दी उठा और सेवाग्राम जाने के लिए गांधी के दंत चिकित्सक के साथ एक ताँगा लिया, चूँकि गाँधी जब जेल में नहीं थे, तब यह गाँव ही गाँधी का घर था । दंत चिकित्सक ने कहा कि इंग्लैंड 'एक समझदार संचालक’ था । मैंने उनसे गांधी के बारे में बात करने का प्रयास किया । उन्होंने राजनीति पर बात करने पर जोर दिया । 


ताँगा रुक गया । मैं उतर गया और वहाँ पर भूरी और सफ़ेद काया के लम्बे- गाँधी खड़े थे । मैं लंबे, तेज कदमों से उनकी ओर बढ़ा । उन्होंने अपने हाथ दो महिलाओं के कंधों पर रखे हुए थे, जो उनके दोनों ओर चल रहीं थीं । उनकी पतली भूरी टाँगें उनके लंगोट तक नग्न थीं । उनके पैरों में चमड़े के सैंडल; कंधे के चारों ओर एक जालीदार कपड़ा; सिर पर एक सफेद रूमाल बंधा था । उन्होंने अंग्रेजी उच्चारण के साथ कहा, 'श्रीमान् फिशर,’ और हमने एक-दूसरे से हाथ मिलाया । उन्होंने दंत चिकित्सक का अभिवादन किया और मुड़ गए, मैं उनके पीछे-पीछे गया, वहाँ एक सपाट, मोटा तख़्त था, जो दो धातु के कुंडों से जुड़ा हुआ था । वे बैठ गए, उन्होंने अपना हाथ बोर्ड पर रखा और कहा, बैठिए । उन्होंने कहा, ‘जवाहरलाल ने मुझे आपकी पुस्तक और आपके व्यक्तित्व के बारे में बताया है, और हमें आपके यहाँ होने से प्रसन्नता है । आप कब तक रहने वाले हैं ?’ मैंने कहा कि मैं कुछ दिन रह सकता हूँ । 



उन्होंने आह्लादित होकर कहा 'ओह, 'तब हम ज्यादा बात कर पाएंगे ।' 


एक युवक उनके पास आया, उनके पैरों में झुक गया, और ऊपर-नीचे होने लगा । गाँधी ने धीरे से कहा, 'बस, बस' । मैंने कल्पना की, कि इसका तात्पर्य 'पर्याप्त' है, और बाद में पाया कि मेरा अनुमान ठीक था । शीघ्र ही दो अन्य युवकों ने भी ऐसा ही किया और फिर से गांधी ने उन्हें वही कहकर अलग कर दिया । 


मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने रहने के लिए इसी गाँव का चयन क्यों किया । उन्होंने कुछ-कुछ कहा, तथा उन्होंने एक नाम का उल्लेख किया जो मुझे समझ नहीं आया, और कहा कि उसने उनके लिए इस गाँव को चुना था । मैंने कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन उन्होंने ध्यान दिया कि मैं भारतीय नाम नहीं समझ पाया हूँ, और तब उन्होंने कहा कि मीरा बेन मिस स्लेड थी, जो एक अंग्रेज महिला थी, वे लंबे समय से उनके साथ जुड़ी हुई थी । उन्होंने बताया कि यह उनका विचार था कि उन्हें भारत के मध्य में एक गाँव में रहना चाहिए, और उन्होंने उन्हें स्थान खोजने के लिए कहा था । उनकी गाँव के अंदर रहने की इच्छा नहीं थी चूँकि यहाँ बहुत गन्दगी तथा अशांति थी । 'यहाँ बाह्य सीमाक्षेत्र में रहना बेहतर विकल्प है ।' दंत चिकित्सक ने नकली दांतों के बारे में बात करना शुरू कर दिया, और गांधी ने उन्हें समझाया कि उनके द्वारा लगाए गए सेट से काटना दोषपूर्ण है । एक महिला पानी से भरे पीतल के कटोरे और कृत्रिम दांतों के तीन सेट लेकर आई, और मैंने जाने का निर्णय लिया । गांधी ने कहा, 'आप मेरे साथ शाम और सुबह में सैर पर चलेंगे, तथा हमारे पास बात करने के और अवसर होंगे ।' मैंने अभिवादन किया और चला गया । [...] 


ग्यारह बजे जब मुझे भूख लगी, [आश्रम का सदस्य] कुर्शेड [नौरोजी] मुझे गांधी के घर ले गए, जो कि अतिथि गृह से सौ गज की दूरी पर था । यह एक मंज़िला जगह, जिसमें चटाई की दीवारें और खराब लाल टाइल्स की छत है । मैंने अपने शयनकक्ष की चप्पलें बाहर के सीमेंट स्टेप पर छोड़ दीं और अंदर चला गया और उस छोटे से अंतःकक्ष में आ गया, जहाँ से मैं घर के मुख्य कक्ष को देख सकता था । गांधी ज़मीन पर सफ़ेद फूस पर लेटे हुए थे, और उनका एक शिष्य उनके इस बिस्तर के निकट ज़मीन पर बैठा हुआ था एवं उसने एक रस्सी खींची जिसमें एक बोर्ड लगा था, जिसमें से एक काला कपड़ा लटका हुआ था, जिसे छत से लटकाया गया था । यह एक बिजली के पंखे का कार्य करने वाला था । गांव में बिजली नहीं है । गांधी ने उठकर मुझसे कहा, 'अब अपने जूते और टोपी पहन लें । ये दोनों यहाँ अपरिहार्य चीजें हैं । लू मत लगवा लेना । एक महिला ने उनके सिर के लिए एक गीला कपड़ा दिया । फिर, कुर्शेड पर एक हाथ रखकर, जो उनके साथ एक कदम चला, उसने मुझे दोस्ताना अंदाज में कहा, 'साथ आओ' । हम दो घरों से गुजरे और चटाई से बने एक कॉमन डाइनिंग हॉल में आए । मैंने अपने जूते बाहर छोड़ दिए, जैसा कि गांधी ने किया था, मैंने अपने हेलमेट को कुर्शेड को दे दिया, उसने दीवार पर एक खूंटी पर उसे टांग दिया, और जमीन पर बैठ गया, जिसकी ओर गांधी ने संकेत किया था, दोनों ने उन्हें बैठा दिया । [..] 


डाइनिंग हॉल में तीसरी पिछली दीवार से जुड़ी दो लंबी दीवारें हैं । जहां से व्यक्ति प्रवेश करता है, वह स्थान आने-जाने के लिए खुला है । प्रवेश द्वार के पास जग और भोजन की थाली से भरी एक मेज है । औरतें अलग बैठती हैं । मैंने कुछ चमकीली-आंखों वाले, भूरे-चेहरे वाले बच्चों को देखा, उनमें से कुछ तीन, पांच या आठ वर्ष की उम्र के बच्चे आश्रम के सदस्यों के बच्चे थे । शीघ्र ही प्रत्येक व्यक्ति के सामने एक पीतल की थाली थी, और कई वेटर नंगे पैर, बिना शोर किए थाली में भोजन परोस रहे थे । गांधी के सामने कई बर्तन और प्याले रखे गए थे । उन्होंने उन बर्तनों को खोला और अपने आस-पास के लोगों को भोजन परोसना शुरू किया । मुझे पानी से भरा पीतल का एक गिलास दिया गया था । गांधी ने मुझे पीतल का एक कटोरा दिया जिसमें सब्जी का भर्ता था जिसमें मुझे लगा कि मैंने कटे हुए पालक के पत्ते और स्क्वैश के टुकड़े डाल दिए हैं । फिर उन्होंने एक धातु पात्र को खोला और मुझे एक सख्त, कागज जितनी पतली गेहूँ के आटे की चपाती दी । एक महिला ने मेरी थाली में कुछ नमक डाला और मुझे गर्म दूध का कटोरा दे दिया । जल्द ही वह अपनी मिरजई में दो उबले हुए आलू और कुछ नरम, सपाट गेहूँ की भूरे रंग की सेंकी हुई चपाती लेकर आई । गांधी ने मेरी ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा, 'मैं आपको भोजन परोस रहा हूं, किन्तु आपको प्रार्थना होने तक नहीं खाना है ।' मैंने उनसे कहा कि मैं देख रहा था कि बच्चे अपने भोजन को नहीं छू रहे हैं और इसलिए मुझे पता था कि मुझे भी नहीं छूना चाहिए । [...] 


गांधी भोजन करते हुए केवल अपनी पत्नी, कुर्शेड, देव, और मुझे भोजन परोसने के लिए रुकते थे । उनके हाथ लंबे और उंगलियां बड़ी और सुडौल हैं । उनके घुटनों के उभार स्पष्ट दिखाई देने वाले तथा उनकी हड्डियाँ चौड़ी और मजबूत हैं । उनकी त्वचा चिकनी और साफ है । बर्तन में हाथ डालते हुए उनके हाथ नहीं कांपते । उनकी पत्नी फूस के पंखे से लगातार उनकी हवा कर रही थी । वे मूक आत्म-विलोपन की प्रतीक लगती थी । 


एक बार गांधीजी ने रोककर यह कहा, 'आप चौदह वर्षों तक रूस में रहे हैं । स्टालिन के बारे में आपकी क्या राय है ? ' 


मुझे बहुत गर्मी महसूस हो रही थी, और मेरे हाथ भी चिपचिपा रहे थे, इसलिए मैंने संक्षेप में उत्तर दिया, 'बेहद योग्य एवं बेहद निर्मम ।‘ 


'हिटलर जितना निर्मम ?' गांधी ने पूछा । 


’कम से कम' - मैंने उत्तर दिया । [...] 


मुझे अपनी एड़ियों का पता चल रहा था । मेरा बहुत सारा भार उन पर टिका हुआ था । भारतीयों को पता है कि अपने शारीरिक वजन को कैसे बांटना है, किन्तु मैंने नहीं सीखा था । मैं अपने एक पैर पर खड़ा हुआ, तथा थोड़ा और आरामदायक महसूस करने लगा । गांधी ने मुझसे कहा, 'मुझे लगता है कि आप कुछ खामोश से हो गए हैं ।' 


'नहीं, मैंने उत्तर दिया, मुझे भोजन आश्चर्यजनक रूप से अच्छा लगा था । 


उन्होंने कहा, 'तुम जितना चाहो, पानी पी सकते हो । हम ठीक प्रकार से ध्यान रखते हैं कि यह उबला हुआ हो । और अब आपको अपना आम खाना चाहिए । 


मैंने कहा कि मैं अन्य लोगों को इसे खाते हुए देख रहा था, और अब मैं अपने जीवन में पहली बार इसे खाऊँगा । कुर्शेड ने सुझाव दिया कि यहाँ से जाने पर मुझे स्नान की आवश्यकता होगी । मैंने आम को छीलना शुरू कर दिया । गांधी तथा अन्य लोग हँसने लगे । गांधी ने बताया कि वे आमतौर पर इसे अपने हाथों में दबाते हैं और इसे नरम बनाने के लिए इसे निचोड़ते हैं, और फिर सामग्री को चूसते हैं, लेकिन मुझे यह देखने के लिए छीलना उचित लगा कि क्या यह अच्छा था । उन्होंने कहा, 'आप हमारी तरह आम खाने के लिए तैयार होने के साहस पर एक पदक अर्जित करेंगे ।' मैंने भोजन समाप्त कर लिया था और कुर्शेड ने अपने सिर से संकेत दिया कि मैं गांधी के उठने से पहले जा सकता हूं । मैंने अभिवादन किया, और अपनी टोपी और जूते लिए, और निकल गया । कुर्शेड ने कहा कि गांधी से तीन बजे भेंट होगी । [...] 


तीन बजने से कुछ मिनट पहले, गांधी के घर से मेरे घर को अलग करने वाली सौ गज तक की गर्म बजरी और रेत पर मैं चलने लगा । मुझे अनुभव हुआ कि गर्मी ने मेरे सिर के पूरे अंतः भाग को सुखा दिया । तापमान एक सौ दस था । जब मैंने गांधी के कमरे में प्रवेश किया, तो सफेद रंग के लिबास में छह आदमी उनके कमरे में फर्श पर बैठे थे । काली साड़ी में एक महिला पंखे की रस्सी खींच रही थी । कमरे में केवल एक सजावट थी, एक कांच का काला और सफ़ेद जीसस क्राइस्ट का चित्र, जिस पर शब्द छपे थे, 'वह हमारी शांति है' । गांधी उस फूस के बिस्तर पर बैठ गए । उनकी पीठ के पीछे एक बोर्ड था तथा बोर्ड और उनकी पीठ के बीच एक तकिया था । वे सुनहरे रंग का चश्मा पहने हुए थे, तथा फाउंटेन पेन से एक पत्र लिख रहे थे । उन्होंने पैर की पालथी लगाईं हुई थी । उन्होंने एक घुटने पर छोटा बोर्ड रखा था और बोर्ड पर वह पैड रखा था जिस पर वे लिख रहे थे । हाथ से बने लकड़ी के स्टैंड में छेद में तीन अन्य फाउंटेन पेन लगे थे । उनके बिस्तर के बाईं ओर फर्श पर बड़े करीने से कुछ किताबें रखी हुई थीं । उन्होंने मुझसे कहा, पंखा हिलाने वाली महिला की तुलना में, आओ यहाँ सबसे ठंडी जगह पर बैठो, । मैं एक कोने में बैठ गया और चटाई पर अपनी पीठ टिका ली । गांधी ने कहा, यदि आप बुरा नहीं मानते हैं, तो ये लोग यहां रहेंगे । ये बात नहीं करेंगे । यदि आप आपत्ति करते हैं, तो ये जा भी सकते हैं । देव और देसाई, तथा आश्रम के कई अन्य सदस्य वहाँ थे, जिनमें कुर्शेड भी शामिल था । मुझे सभी के साथ रहकर साक्षात्कार का विचार कुछ ख़ास पसंद नहीं आया, लेकिन मैंने कहा, 'नहीं' और व्यवस्थित हो गया । 


'अब मैं पूरी तरह से आपके नियंत्रण में हूं,' गांधी ने घोषणा की । 


*अनुवाद*

(सौजन्य: लुई फिशर, ए वीक विथ गांधी, लंदन: हार्पर कॉलिन्स ।) 




Sunday, February 24, 2019

प्रगतिशीलता की कसौटी पर प्रेमचंद



वैचारिकी के स्तर पर देखा जाए तो आज की पैर तले की ज़मीन, जिस पर हम खड़े हैं, उसकी उर्वरा को मापने के लिए पीछे मुड़कर झाँकना ज़रूरी हो जाता है कि हमने अपनी यात्रा कहाँ से शुरू की थी, क्या उस ज़मीन की बंज़र और उर्वरा के प्रतिशत में कुछ घटा-बढ़ा है. हाल ही में प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर नवलकिशोर की पुस्तक 'प्रेमचंद की प्रगतिशीलता' प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा ही प्रत्यावलोकन का प्रयास करता प्रयास है. हिंदी की नई पीढ़ी के रचनाकारों में हमेशा कुछ लिखते और छपते रहने की होड़ को आज के समय में सहजता से देखा जा सकता है. संभवतः इसके पीछे जो कारण है वह यह है कि न लिखते रहने से कहीं उन्हें पुरातन युग का रचनाकार न मान लिया जाए. निश्चय ही ऐसी सोच तथा ऐसी होड़ साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है. भले से कम लिखना किन्तु सार्थक लिखना साहित्य के लिए ज्यादा बेहतर मूल्य है. ऐसे में यह पुस्तक आलोचक प्रोफेसर नवलकिशोर की इकतालीस वर्षों बाद आई नई पुस्तक है. साहित्य जगत में लम्बे इंतज़ार के बाद आई यह पुस्तक हिंदी आलोचना के लिए एक शुभ घटना है.


इससे पूर्व आलोचक नवलकिशोर की पुस्तक ‘मानववाद और साहित्य’ तथा ‘आधुनिक हिंदी उपन्यास और मानवीय अर्थवत्ता’ प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी यह नई पुस्तक 'प्रेमचंद की प्रगतिशीलता' कथाकार प्रेमचंद के महत्व को फिर से एक नई दृष्टि से देखने की कोशिश करती है. यह पुस्तक इस मायने में भी अनूठी है कि प्रेमचंद का साहित्य बहुधा उपलब्ध हो जाता है किन्तु उनकी रचनाओं एवं विचारों पर किताबे लगभग दुर्लभ हैं. इस पुस्तक के बहाने प्रेमचंद को नए सिरे से देखने-समझने तथा पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया गया है.


किसी भी पुस्तक को आकार देना कोई क्षण भर की क्रिया नहीं होती, बल्कि यह एक लंबी प्रक्रिया एवं पूर्वपीठिका का परिणाम होता है, आलोचक नवलकिशोर ने भी लंबे समय तक समाज के विभिन्न वैमनस्यों एवं अनुदारवादी रवैयों से क्षुब्ध होकर प्रेमचंद एवं उससे पूर्व एवं बाद के साहित्य के आईने में आज की परिस्थितियों एवं स्थितियों की तलाश की तथा पाया कि इतनी असहिष्णुता एवं अनुदारता पहले भी नहीं थी, जितनी विपरीत स्थितियां अब हो गई हैं.! लेखक ने समाज में मानवीयता को ओतप्रोत करने के लिए इस पुस्तक में प्रेमचंद के कथा साहित्य की मानवीय अर्थवत्ताओं को थोड़ा और उजागर करने की कोशिश की है. यदि हम साहित्य के माध्यम से समाज में मानवीय सद्गुणों का संचार करना चाहते हैं तो यह कहना अनुचित ना होगा कि हमें एक बार पुनः प्रेमचंद की ओर लौटना होगा चूँकि जो प्रेमचंद अपने निर्वाण के आठ दशक बाद भी आज के समय में उतने ही प्रासंगिक हैं बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा.! किसान तब भी त्रस्त थे, किसान आज भी त्रस्त हैं बल्कि आज समय की भयावहता इस क़दर है कि किसान आत्महत्या करने को विवश है.


आलोचक नवल किशोर ने इस पुस्तक में हिंदी उपन्यास में प्रेमचंद का महत्व, प्रेमचंद साहित्य में मानवीय अर्थवत्ताओं, यथार्थवाद-राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों तथा उत्तर औपनिवेशिक समय खंड के दौरान प्रेमचंद की प्रगतिशीलता का विश्लेषण करने का प्रयास किया है. 'हिंदी उपन्यास में प्रेमचंद का महत्व' अध्याय में आलोचक नवलकिशोर ने यह स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने साहित्य में उपन्यास को मंत्र-तंत्र, जादू-टोना तथा कल्पनाओं के बवंडर से बाहर निकालकर उसे मनुष्य के जीवन से जोड़ा. एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं. साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है. बीसवीं शताब्दी के साहित्य का विशेष महत्व इसलिए भी है कि कुलीनता और अभिजात्य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य की पीड़ा-दर्द को समझने की चेष्टा की , साथ ही अस्मिताओं के लिए किए गए संघर्ष को भी अपने साहित्य का प्रतिपाद्य बनाया. उसी कड़ी में प्रेमचंद को जीवन से जुड़े साहित्य के पुरोधा के रूप में देखा जा सकता है.


उनकी कृतियां उनकी मानवतावादी दृष्टि के क्रमिक विकास की सूचक हैं. इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि प्रेमचंद की रचनाओं में 'स्टैग्नेशन' नहीं है, वे ठहराव के बरअक्स अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज को इवॉल्व करते चलते हैं. यही कारण है कि हिंदी उपन्यास ने आधुनिकता एवं जनसाधारण का जुड़ाव प्रेमचंद के उपन्यासों से दिखाई देता है. आलोचक ने विवेचनात्मक ढंग से प्रेमचंद से पूर्व से प्रारंभ करते हुए उनके बाद के उपन्यासों के उदाहरणों को तुलनात्मक ढंग से कोट करते हुए गोदान को उनकी मानवतावादी दृष्टि की भव्य परिणति घोषित किया है. नवल किशोर लिखते हैं कि "यह उपन्यास सामाजिक ढांचे को पूरी तरह बदलने का और न्याय पूर्ण मानवीय व्यवस्था की स्थापना का आह्वान बन गया है.!" उन्होंने यह भी कहा कि "प्रेमचंद की परंपरा के प्रति सम्मान का वास्तविक अर्थ यही हो सकता है कि एक लेखक से उनकी तरह जन साधारण से जुड़ने की उम्मीद की जाए.!"


प्रेमचंद को समय के साथ-साथ एक खाँचे में बांधने की कई बार कोशिश की गई. कभी उन्हें आदर्शवादी, कभी यथार्थवादी तो कभी गांधीवादी तो कभी मार्क्सवादी-साम्यवादी तो कभी इससे भी काम न बन सका तो उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवादी घोषित कर संतोष पाने का जतन किया गया, किंतु सही मायनों में प्रेमचंद को किसी भी ''वाद' में बाँधा एवं परिभाषित नहीं किया जा सकता. यह उन्हें एवं उनके साहित्य को एक सीमा में बांध देना होगा. यदि हम तार्किक ढंग से देखे तो प्रेमचंद केवल मानवता के पक्षधर थे. उन्होंने समय के साथ हर वाद से समाज को सुंदर एवं बेहतर बनाने तथा समाज का कल्याण करने वाली हर प्रवृत्ति को अपने साहित्य में स्थान दिया. यही कारण है कि प्रेमचंद एक सीमित दायरे में ना बंध कर समय के साथ आए हर परिवर्तन में से कल्याणकारी एवं सुंदरतम को चुन लेते हैं. आलोचक नवलकिशोर ने स्पष्ट किया कि "प्रेमचंद ने लेखन का आरम्भ समाज सुधार की भावना से किया था, लेकिन जल्दी ही उनकी चिंता का प्रमुख विषय किसान की मुक्ति हो गया. उन पर गांधी जी के व्यक्तित्व और विचारों का गहरा असर हुआ था." अपने आदर्शवादी दौर में प्रेमचंद गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हुए किंतु जीवन अनुभवों के साथ वे यथार्थवाद की ओर बढ़ते चले गए, इसी प्रकार जैसे ही समाजवादी क्रांति ने सारी दुनिया के पददलितों को मुक्ति का एक संभव तथा सन्निकट भविष्य दिया तो ऐसे में प्रेमचंद जैसे जन पक्षधर लेखक का रूसी क्रांति और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होना स्वाभाविक ही था. वे संपत्ति के समान वितरण की आधारभूत समाजवादी संकल्पना से परिचित थे. इसी के चलते साम्यवाद की ओर उनका झुकाव हुआ. इस प्रकार समय के साथ-साथ प्रेमचंद का हर वैचारिकी की ओर झुकाव हुआ किंतु इसे भी झूठलाया नहीं जा सकता कि उन्हें समय दर समय मोहभंग भी हुआ जो कि उनकी रचनाओं में साफ तौर पर 'रिजेक्शन' के रूप में देखा जा सकता है.



प्रेमचंद कुछ समय के लिए राष्ट्रवादी भी होते हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रेमचंद कुछ अवधि के लिए गांधीवादी भी हुए, जिसका पूरा असर उनके उपन्यास 'रंगभूमि' में परिलक्षित होता है. किंतु वे उसके बाद की समसामयिक स्थितियों को देखते हुए गांधीवाद को रिजेक्ट कर देते हैं उसके बाद सीधे तौर पर उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में निरा यथार्थ है. आलोचक नवलकिशोर ने यह लिखा भी है कि "हम प्रेमचंद को कितने ही अलग-अलग बिंदुओं से समझे, हमारी दृष्टि में उनके उचित मूल्यांकन का साहित्यिक प्रतिमान यथार्थवादी बना रहेगा. कम से कम उनके प्रसंग में यह अप्रासंगिक नहीं हुआ है." किंतु फिर भी उन्हें किसी सीमा में बांधना उनके साथ अन्याय होगा क्योंकि उन्होंने समसामयिकता के दबाव में लिखा और खूब लिखा, लेकिन कलाकार की सहज चेतना के साथ. इसलिए हम देखते हैं कि ज्यों-ज्यों वे यथास्थिति का साक्षात्कार करते गए, उनकी कृतियों में कथा चरित्र परिस्थितियां अधिकाधिक विश्वसनीयता लेकर आती रही और उन्हें वे बेहतर कौशल से ढालते गए.

जहाँ तक प्रश्न प्रेमचंद के कथा साहित्य के उत्तर औपनिवेशिक पाठ का है, तो प्रेमचंद का साहित्य समतावादी समाज के सपनों को जगाए रखने की प्रेरणा देने वाला साहित्य है. प्रेमचंद की समाजवादी दृष्टि किसी निश्चित विचारधारा पर आधारित भले ना हो, लेकिन उसमें गांधी के 'आख़िरी आदमी' के कल्याण की चिंता का समावेश अवश्य है. वे साहित्य के माध्यम से समाज को गति एवं दिशा देना चाहते थे. आलोचक नवलकिशोर ने प्रेमचंद को कालजयी लेखक कहा है उनके अनुसार ‘‘कालजयी लेखक वही होता है जिसकी रचनाएं उसके और उसके समय के प्रति मानव के व्यतीत होने पर भी पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ी जाती रहे, ऐसा तभी होता है जब वह उनके लिए प्रासंगिक बना रहता है. अपने समय के सरोकारों को व्यापक मानवीय सरोकार बनाकर जब लेखक एक ऐसे माध्यम से प्रकट करता है जो हमें अपनी विशिष्टता से अभिभूत करता है तो हमारे लिए वह हमारा समकालीन बन जाता है. यह विशेषता उसकी कला साधना का अर्जित पुरस्कार है. इस मायने में प्रेमचंद एक बड़े कलाकार भी हैं.’’



प्रेमचंद ने वर्षों पहले कहा था कि कोई भी समाज तब तक विकास या प्रगति नहीं कर सकता जब तक उस समाज के किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की दशा नहीं सुधरती. उन्हें मनुष्य नहीं माना जाता, प्रेमचंद के इस कहन की जबकि हम हीरक जयंती मना चुके हैं तब भी स्थिति यह है कि हाशिए की पट्टी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है. मुक्ति की चाह लिए हुए समाज का यह हिस्सा आज भी शोषण-अन्याय से पीड़ित है. जब पंछी धरती के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध अपनी पहली उड़ान भरता है तब जिस ऊर्जा से वह संचालित होता है, वह होती है - मुक्ति की चाह और उड़ान की अकुलाहट. समाज के इस हिस्से की आँखों में आज भी मुक्ति का स्वप्न और उन्मुक्त आकाश में उड़ पाने की अकुलाहट बनी हुई है. 'प्रेमचंद की आवाज़' अध्याय में आलोचक नवलकिशोर ने प्रेमचंद की इसी दृष्टि को विश्लेषित किया है. प्रेमचंद ने जातिवाद के अंतर्गत दलित दमन को बगावत की हद तक नंगा किया है, थोड़े में कहें तो वे मूक अनपढ़ अवाम की आवाज बने. उन्होंने दलितों एवं स्त्रियों के साथ होने वाले अत्याचारों एवं शोषण को आवाज दी. मेरा मानना है कि दलित जीवन पर उठाए गए प्रेमचंद के ज्यादातर सवाल जोकि उनकी रचनाओं के माध्यम से प्रकट होते हैं. वे सभी डॉ अंबेडकर की अपेक्षा गांधी जी के विचारों के अधिक करीब हैं. प्रेमचंद अपने पात्रों को आर्थिक एवं सामाजिक बदहाली दोनों प्रकार के शोषण का शिकार दिखाते हैं, क्योंकि दोनों से निकले बिना उनकी हालत में सुधार संभव नहीं है. समग्रता में कहें तो प्रेमचंद साहित्य हर तरह के जुल्म से मनुष्य के छुटकारे की आकांक्षा का साहित्य है. मानव मुक्ति के चिरकाल संचित यूटोपिया का साहित्य है. 


इस पुस्तक की विशेष उपलब्धि इसके दो अध्याय ‘गोदान - दांपत्य की एक अपूर्व कथा’ तथा ‘प्रेमचंद की प्रगतिशीलता - बज़रिये नामवर सिंह समारंभ’ है. जोकि विशेष रूप संग्रहणीय हैं. आलोचक ने गोदान पर इतने सटीक ढंग से पुनर्पाठ किया है कि कई बीते युग की परिभाषाएँ धूमिल होकर नई व्याख्याएँ गढ़ी जाएँ. होरी और धनिया के दाम्पत्य को जिस रूप में देखने की दृष्टि दी है, वह अपने आप में नयी और अप्रचलित है. इस पुस्तक के अंतिम अध्याय को एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में भी देखा जा सकता है. इस अध्याय में प्रसिद्ध आलोचक नामवर जी के द्वारा प्रेमचंद एवं उनकी प्रगतिशीलता पर लिखी गई आठ पुस्तकों के विवेचनात्मक अध्ययन पर लिखे गए आलेखों पर आलोचक नवलकिशोर ने मूल्यांकनपरक प्रकाश डाला है. संयोग यह है कि अभी हाल ही में 19 फरवरी 2019 को नामवर जी का निधन हो गया. हिंदी आलोचना का एक शिखर परकोटा ढह गया. ठीक इसी समय प्रेमचंद के बहाने नामवर जी के इस मूल्यांकन को पढ़ना अपने आप में समीचीन हैं. नामवर जी मार्क्सवादी हैं लेकिन उन्होंने प्रेमचंद की प्रगतिशीलता का भाष्य उनके समय संदर्भ में ही किया है बिना मार्क्सवादी चश्मा लगाए. 


बहरहाल यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद जैसे लेखक के बहाने प्रगतिशील विचार पर यह पुस्तक निश्चय ही प्रेरक और पथ-प्रदर्शक सिद्ध होगी. आलोचक की यह कृति नयी पीढ़ी में कालजयी कथाकार प्रेमचंद के महत्त्व की पुनर्स्थापना करेगी. आलोचक ने इस पुस्तक में प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य कालक्रम को गुण-दोषों सहित देखा है. यह पुस्तक भारतीय सैद्धांतिक आलोचना में योगदान देती विशिष्ट पुस्तक है जो प्रेमचंद को देखने का, समझने का एक नया नज़रिया देती है तथा प्रेमचंद की प्रासंगिकता को विविध माध्यमों से सामने लाती है. जब तक समाज नहीं बदलेगा, तब तक प्रेमचंद प्रासंगिक रहेंगे. प्रेमचंद के बिना हम समाज को नहीं समझ सकते. आज भी स्थिति कमोबेश वैसी सी ही है. इस रूप में यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है. 





प्रेमचंद की प्रगतिशीलता - नवलकिशोर 

प्रकाशन संस्थान, दिल्ली मूल्य – 300 रुपये, प्रकाशन 2019 







Wednesday, February 6, 2019

परस्पर भाषा-साहित्य-आंदोलन



परस्पर
भाषा-साहित्य-आंदोलन


हाल ही के वर्षों से रजा फाउंडेशन ने प्रसिद्ध चित्रकार एवं कलाकार सैयद हैदर रजा की कला एवं हिंदी साहित्य में रुचि एवं साहित्य- समाज के प्रति चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, उन चिंताओं एवं विचारों को दिशा देते हुए हिंदी में कुछ नए किस्म की पुस्तकें प्रकाशित करने की पहल की है । इसे ‘रजा पुस्तक माला’ के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । इसके अंतर्गत गांधी, संस्कृति चिंतन, संवाद, भारतीय भाषाओं से विशेषतः कला चिंतन के हिंदी अनुवाद,कविता आदि की पुस्तकें शामिल की जा रही है । इसी श्रृंखला के प्रकाशन के दौरान पिछले दिनों युवा आलोचक राजीव रंजन गिरि की राजकमल प्रकाशन के माध्यम से ‘परस्पर – भाषा-साहित्य-आंदोलन’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ जोकि हिंदी साहित्य की प्रचुर लंबी यात्रा के दौरान हुए भाषा-साहित्य-आंदोलन के ‘बिटवीन द लाइंस’ को खोलने का प्रयास करती हैं । यह महज़ पुस्तक भर नहीं बल्कि तमाम शोधों एवं संदर्भों से लैस एक ऐसी पुस्तक है जो भरपूर खोजबीन एवं अनुसंधान प्रवृत्ति के साथ लिखी गई है ।


इस शोध एवं तथ्यात्मक प्रवृति का बीते कुछ समय से साहित्य में अभाव सा रहा है । यह पुस्तक भारतीय समाज के भाषा आंदोलन से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल करती है । इसकी भूमिका में अशोक वाजपेयी जी ने लिखा है कि “हिंदी भाषा का विमर्श और संघर्ष लंबा है, लेकिन अभाग्यवश हमारा निपट वर्तमान पर आग्रह इतना इकहरा हो गया है कि उसकी परंपरा को भूल ही जाते हैं । युवा चिंतनशील आलोचक ने विस्तार से इस विमर्श और संघर्ष के कई पहलू उजागर करने की कोशिश की है और कई विवादों का विवरण भी सटीक ढंग से किया है ।”


देखा जाए तो हम एक बहुभाषी समाज का हिस्सा है इसे गत समय में एक समस्या के रूप में देखा जाने लगा था,जिसके चलते साहित्य में भाषा सम्बन्धी बहस का एक पूरा बड़ा मुद्दा आन्दोलन के रूप में उठ खड़ा हुआ, किन्तु बहुभाषीय विविधता को भारतीय समाज की एक समस्या नहीं बल्कि एक समाधान के रूप में देखे जाने की ज़रूरत थी । इस पुस्तक में संकलित शोध निबंध इसी बात की स्थापना करते हैं कि किस प्रकार भाषाई अस्मिता समाज को प्रभावित करती है तथा आधुनिकता की ज़मीन तैयार करती है । इस पुस्तक में तीन शोध निबंध हैं - ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद’ , राष्ट्र निर्माण, संविधान सभा और भाषा विमर्श तथा ‘बीच बहस में लघु पत्रिकाएं: आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ । ये तीनों शोध निबंध बड़े फलक पर भाषा संबंधी बहसों को उठाते एवं उनका विश्लेषण करते हैं ।


इस पुस्तक में शामिल तीनों शोध निबंध अंतराल पर लिखे गए निबंध हैं । ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद’ तद्भव पत्रिका में वर्ष 2006 में, राष्ट्र निर्माण, संविधान सभा और भाषा विमर्श वाक् पत्रिका में 2014 में तथा ‘बीच बहस में लघु पत्रिकाएं: आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ प्रतिमान के 2013 के अंक में प्रकाशित हुए । इस लंबे अंतराल के बावजूद आलोचक राजीव रंजन गिरि के ये लेख एकसूत्रता में कालक्रम की निरंतरता में उठी भाषा बहसों को चिह्नित करते चलते हैं । 


पहला शोध निबंध ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद पर केंद्रित है । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भाषाओं के बीच तनाव भरा रिश्ता हो चला था । हिंदी-उर्दू और ब्रजभाषा-हिंदी के बीच एक अंतर्विरोधी संबंध बन गया था जिसमें ब्रजभाषा को ‘भाषा’ तथा हिंदी जिसे ‘खड़ी बोली’ कहते थे उसे ‘बोली’ के चश्मे से देखा जाने लगा । इन दोनों के बीच बहस-मुबाहिसे और बदलती परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि खड़ी बोली हिंदी साहित्य की ‘भाषा’ बन गई और ब्रजभाषा मात्र एक बोली के रूप में तब्दील होकर रह गई । स्मरण रखना होगा कि साहित्य भी एक तरह की सत्ता संरचना का निर्माण करता है । कोई भी भाषा यदि केंद्रीय भाषा बनती है तो वह अपने समय के तमाम अंतर्विरोध को अपने में समाहित किए हुए होती है । भाषा को ‘बोली’ और बोली को ‘भाषा’ में रूपांतरित करने का कारक बोली अथवा भाषा का आंतरिक चरित्र नहीं होता, बल्कि इसे बाह्य परिस्थितियां निर्धारित करती हैं । बदलते भू राजनीतिक आर्थिक माहौल के माकूल खड़ी बोली ने स्वयं को सिद्ध किया था । बोली के रूप में खड़ीबोली भले ही पहले से मौजूद थी किन्तु उसी दौर में वह स्वयं को भाषा के रूप में आधुनिकता के साथ विकसित करते हुए हिंदी की नई परिस्थितियों का सामना करने के साथ-साथ खुद को उस बदले माहौल के मुताबिक अनुकूलित भी कर रही थी । इसलिए भी उसकी सामर्थ्य में इजाफा हो रहा था । यही वजह है कि तत्कालीन साहित्यकार- पत्रकार नई चुनौतियों के सहयोग से उत्पन्न परिस्थितियों में अपने विचार की अभिव्यक्ति इसी भाषा में कर रहे थे । एक ओर यह नई दिशा में बढ़ता कदम था । ब्रज भाषा में काव्य-रचना की परंपरा भी साथ-साथ चल रही थी । धीरे-धीरे जहां हिंदी की व्याप्ति बढ़कर राष्ट्रीय फलक तक पहुंच गई थी, वहीं ब्रजभाषा जनपद तक सिमट गई । आलोचक राजीव रंजन गिरि ने इन सभी तात्कालिक अंतर्विरोधों का भरपूर विश्लेषण किया है । उन्होंने अयोध्या प्रसाद खत्री के भाषा आन्दोलन से इस यात्रा को शुरू कर राधाचरण गोस्वामी, राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र-भारतेंदु के भाषा आन्दोलन का विश्लेषण किया है । 


दूसरा शोध निबंध ‘राष्ट्र-निर्माण, संविधान सभा और भाषा विमर्श में आलोचक राजीव रंजन गिरि ने संवैधानिक भाषाई स्थितियों का ब्यौरा देते हुए जनपदीय भाषाओं की अस्मिता बचाने और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए होने वाले प्रयासों का विश्लेषण किया है । हिंदी और इसकी जनपदीय भाषाओं के बीच संबंधों की समस्या ‘राजभाषा’ के रूप में मान्यता मिलने के बाद दिखनी शुरू होती है । इस निबंध में किए गए अध्ययन जनपदीय भाषाओं के ऊपर आए संकटों को बताते हैं । ऐसे में अन्तःकलह होना स्वाभाविक है साथ ही अपनी अस्मिता को बचाने के लिए इन जनपदीय भाषाओं द्वारा हिंदी के बरअक्स अपने को स्थापित करने की जद्दोजहद होना भी स्वाभाविक ही है । इन जनपदीय भाषाओं की अस्मिता बचाने और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए जब-तब कुछ भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग होती रहती है । इसी क्रम में संविधान की आठवीं अनुसूची में समय-समय पर कुछ भाषाओं को जोड़ा जाता रहा है । जिस दौरान भारत का संविधान बन रहा था, संविधान की आठवीं अनुसूची के मूल प्रस्ताव में सिर्फ 12 भाषाओं को जगह दी गई थी - हिंदी, बांग्ला, पंजाबी, तमिल, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, उड़िया, असमी, कश्मीरी, मराठी और गुजराती । संविधान सभा की भाषा-बहसों के दौरान पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहल पर इसमें उर्दू को भी शामिल किया गया तथा के एम मुंशी जी के आग्रह पर संस्कृत को शामिल किया गया । स्मरणीय तथ्य यह भी है कि संविधान सभा की बहसों के दौरान इसके एक सदस्य जयपाल सिंह के जोर देने के बावजूद किसी भी आदिवासी भाषा को अनुसूची में शामिल नहीं किया गया जबकि उन्होंने 176 आदिवासी भाषाओं में से केवल तीन को ही अनुसूची में शामिल करने की मांग की थी । यह उस दौर के भाषाई तनाव का ही नतीज़ा था ।


आलोचक राजीव रंजन गिरि ने विस्तार से राष्ट्र-निर्माण तथा राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता की पूर्वपीठिका को विश्लेषित करते हुए आठवीं अनुसूची में ली गई भाषाएं एवं उसमें शामिल होने के लिए जद्दोज़हद कर रही भाषाओं की अकुलाहट को व्यक्त किया है । उन्होंने हिंदी और जनपदीय भाषाओं के अंतर्संबंध की समस्याओं के आरंभिक बिंदुओं की भी भली-भांति विवेचना की है । लेखक ने जनपदीय भाषाओं के विकास की विवेचना करते हुए यह तर्क भी स्थापित किया है कि एक लोकतांत्रिक समाज के बीच हिंदी की जनपदीय भाषाओं की अस्मिताओं को दबाना लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना है । इतिहास में दर्ज़ भी है कि जब-जब अस्मिताओं को दबाया गया है, तब-तब वे लंबी अकुलाहट एवं दमन के बाद विस्फोट के रूप में सामने आई हैं । भले से अभी के लिए यह तर्क गढ़ लिए जाए कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए अकुलाई ये बोलियां अभी अपनी अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है किंतु इतिहास इस बात का भी गवाह है कि अंग्रेजी भाषी राज में हिंदी की भी यही स्थिति हो गई थी, इससे कुछ कमतर नहीं ।


इस पुस्तक की एक बड़ी उपलब्धि इसका तीसरा शोध निबंध है । जिस दौर में भारतीय साहित्य समाज की निष्क्रियता से क्षुब्ध मुक्तिबोध लिख रहे थे - ‘सब चुप, साहित्यिक चुप हैं और कविजन निर्वाक/ चिंतक, शिल्पकार,नर्तक चुप हैं’ - इस चुप की पहचान कर उसी दौर में भारतीय समाज का एक और क्षुब्ध वर्ग प्रयोगशील एवं प्रतिरोधी रुख अपना रहा था । सामाजिक व्यवस्था और साहित्यिक जगत से असंतुष्ट यह पीढी वैचारिक रूप से व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्षरत थी, इन्हें सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाएं अपने यहाँ बहुत महत्व नहीं देती थीं । परिणामस्वरूप इन लोगों ने अपनी अभिव्यक्ति को स्वर देने के लिए अपने स्तर पर पत्रिकाएं निकालनी प्रारम्भ की । यहीं से लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई. इस लघु पत्रिका आन्दोलन की विकास यात्रा को समझने के लिए लेखक राजीव रंजन गिरि का प्रचुर परिश्रम से लिखा गया यह शोध-निबंध ‘लघु-पत्रिकाएं : आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ बेहद उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक लेख है. यह लेख सौ से अधिक सन्दर्भों-तथ्यों की मदद से बेहद तार्किक एवं विश्लेषणात्मक ढंग से लिखा गया है । चूँकि हिंदी साहित्य की वैचारिक और सामाजिक सरोकारों वाली उद्देश्यपूर्ण रचनात्मकता के संरक्षण, संव‌र्द्धन और पोषण में लघु पत्रिकाओं की ऐतिहासिक भूमिका रही है । ये पत्रिकाएं एक मुहिम के तौर पर निकाली गई जिसकी एक लम्बी परम्परा बीसवीं सदी के उतरार्द्ध से प्रारम्भ होकर आज तक की यात्रा तय कर रही है । लेखक का मानना भी है कि “हिंदी साहित्य के अतीत और वर्तमान को पहचानने और विश्लेषित करने की कोई भी कोशिश, लघु-पत्रिकाओं की दुनिया पर नजर डाले बिना, पूरी नहीं हो सकती.” राजीव रंजन गिरि का यह लेख विचारधारा, प्रतिबद्धता, प्रतिरोध, समाज-रचना, व्यावसायिकता और रचनाशीलता जैसे प्रत्ययों में संशोधन की माँग के बीच में लघु पत्रिका संप्रत्यय तथा इसके सरोकारों से जुड़े सवालों की ज़रूरी पड़ताल करता है । 


आजादी के बाद भाषा-विमर्श में साहित्यिक लघु पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है । छोटे स्तर पर किए गए व्यक्तिगत प्रयास एवं भले ही अनियमित रूप से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं ने सांस्कृतिक-बौद्धिक वातावरण को मजबूत बनाया है । चेतना व ज्ञान निर्माण में इन पत्रिकाओं की महती भूमिका रही है । सूचना क्रांति से पहले बौद्धिक संवाद-संचार का काम यही पत्रिकाएं करती थी । छोटे शहरों-कस्बों से प्रकाशित होने वाली इन पत्रिकाओं ने रचनाकारों की एक बड़ी ज़मात भी पैदा की है । आलोचक ने प्रचलित धारणाओं पर विचार-विश्लेषण करते हुए इस आन्दोलन की वर्तमान स्थिति का जायज़ा भी लिया है । यह शोध-पत्र पाँच भागों परिभाषा का प्रश्न, आन्दोलन का निर्माण, संगठन और उसका दायित्व, आन्दोलन का आधार तथा स्वायत्तता के साथ सहयात्रा में बिखराव में विभक्त है, जिनमें बारी-बारी से भले ही इस आन्दोलन की ज़रूरत पर विचार किया गया हो किन्तु चिन्तन के केंद्र में मूलतः इससे जुड़े दायित्व एवं प्रतिबद्धताएँ ही हैं ।


बहरहाल यह कहा जा सकता है कि लघु-पत्रिका आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा सांस्कृतिक प्रदूषण से बचने के लिए वैकल्पिक मीडिया के रूप में खुद को स्थापित करना है । लेखक राजीव रंजन गिरि का यह शोध पत्र बेहद संजीदगी एवं विश्लेषणात्मक ढंग से लघु पत्रिका आन्दोलन की संरचना को समझने एवं उसके सरोकारों को व्याख्यायित करने की दिशा में लिखा गया एक बेहद कारगर एवं ज्ञानवर्द्धक शोधपरक लेख है जिसके द्वारा प्रतिगामी मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध एक वैचारिक आन्दोलन की पृष्ठभूमि से वाकिफ़ होने में मदद मिलती है ।


राजीव रंजन गिरि की यह पुस्तक शोधपरक लेख लिखने की दिशा में प्रेरणा देती पुस्तक है । राजीव रंजन गिरि ने इतिहास की तह से प्रचुर शोध ग्रंथों से सामग्री इकट्ठी कर उनको प्रखर एवं संपन्न आलोचनात्मक दृष्टि से विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, यह एक तथ्यों की अपार सम्पदा से लैस एक बेहद महत्वपूर्ण एवं पठनीय पुस्तक है ।


पुस्तक - परस्पर भाषा-साहित्य आन्दोलन
लेखक - राजीव रंजन गिरि
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन
मूल्य - 595/- रूपए

**राष्ट्रीय सहारा 14 अप्रैल 2019 में प्रकाशित 

Friday, November 16, 2018

अहिंसक संवाद साक्षरता



वैश्विक शांति के लिए अहिंसक संवाद साक्षरता के माध्यम से भावनात्मक संबंध को पोषित करना


श्री नटवर ठक्कर उत्तर-पूर्वी भारत में गांधीवादी आंदोलन के अग्रदूतों में से एक थे । उन्होंने गांधीवादी रचनात्मक कार्य को बढ़ावा देने के लिए नागालैंड में 1955 से कार्य करना शुरू किया । नागा विप्लव उस समय चरम पर था जब उन्होंने देश में भावनात्मक संबंध बनाने के कार्य को करने के लिए नागालैंड की यात्रा करने का साहस जुटाया ।


उनके द्वारा स्थापित किया गया नागालैंड गांधी आश्रम गांधीवादी गतिविधियों का एक जीवंत केंद्र रहा है । उनका प्रयास उस क्षेत्र के लोगों एवं देश के शेष भाग के बीच भावनात्मक संबंध को बढ़ावा देना था ।


इस बातचीत में उन्होंने भावनात्मक संबंधों को उन्नत करने के लिए गांधीवादी अहिंसक संवाद के मूल तत्वों पर अपने विचार साझा किए हैं । उनका मानना है कि शांति और अहिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए यह महत्वपूर्ण है ।


श्री ठक्कर का इस वर्ष अक्टूबर में निधन हो गया ।


यह बातचीत डॉ वेदाभ्यास कुंडू, कार्यक्रम अधिकारी, गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली द्वारा आयोजित की गई थी । डॉ कुंडू की अहिंसक संवाद एवं मीडिया पर तथा शांति और अहिंसा के लिए सूचना साक्षरता मे विशेषज्ञता है ।


वेदाभ्यास कुंडू: प्रतिदिन जब हम अपने समाचार पत्र, टेलीविजन चैनल को बदलते हैं अथवा इंटरनेट ब्राउज़ करते हैं, तो हमें लोगों की एक-दूसरे की हत्या कर देने वाली, हमारे समाज का अवमूल्यन करती संघर्ष और हिंसा के विभिन्न रूपों को प्रकट करती भयावह कहानियां मिलती हैं । अधिकांश टकराव तब शुरू होते हैं जब हम खुद को श्रेष्ठ मानने लगते हैं तथा अपने साथी मनुष्यों के प्रति तिरस्कार की भावनाओं को विकसित कर लेते हैं । पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने 2001 में अपने नोबेल शांति पुरस्कार स्वीकृति भाषण में कहा था, "हमने आग के द्वार से तीसरी सहस्राब्दी में प्रवेश किया है । …. नए खतरे जातियों, राष्ट्रों या क्षेत्रों में कोई भेद नहीं करते हैं । धन होने या सामाजिक स्थिति ठीक होने के बावजूद, एक नई असुरक्षा प्रत्येक मस्तिष्क में प्रवेश कर चुकी है ... 21 वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में - यह शताब्दी पहले ही कठोरता से हर उम्मीद को नकार चुकी है कि राष्ट्र का वैश्विक शांति और समृद्धि की ओर बढ़ना अवश्यम्भावी हो गया है- इस नई वास्तविकता को अब अनदेखा नहीं किया जा सकता । इसका सामना करना ही होगा... 20वीं शताब्दी शायद मानव इतिहास में असंख्य संघर्ष, अनकही पीड़ा, और अकल्पनीय अपराधों से तहस-नहस सबसे घातक शताब्दी थी । समय-समय पर, समूह या राष्ट्रों ने प्रायः तर्कहीन घृणा एवं संदेह, या शक्ति और संसाधनों के लिए अपार अहंकार एवं लालसा से प्रेरित होकर एक-दूसरे पर पुरजोर हिंसा की ...।"


इसके अलावा सैमुअल हंटिंगटन (1997) ने अपनी पुस्तक ‘द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन एंड द रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर’ में कहा है, "लोग हमेशा हमारे और उनके, आंतरिक समूह और अन्य बाहरी, हमारी सभ्यता और उनकी बर्बर सभ्यता के बीच विभाजित करने के लिए तत्पर रहते हैं ।" लोगों द्वारा असहिष्णुता, नस्लवादी और विदेशियों के प्रति विकर्षण या घृणा के वातावरण पैदा करने से गहरी दरारें पड़ जाती हैं, आज के समय में इन दरारों को भरने के लिए असहिष्णुता और घृणा की संस्कृति को रोकने के ईमानदार प्रयास करने के लिए दृढ़ता से कार्य करना एक चुनौती है । जैसा कि कोफी अन्नान ने अपने भाषण में आगे कहा भी था, "शांति को प्रत्येक व्यक्ति के दैनिक अस्तित्व में वास्तविक एवं मूर्त रूप से होना चाहिए । शांति की मांग की जानी चाहिए, क्योंकि यह मानव जाति के प्रत्येक सदस्य के लिए गरिमा और सुरक्षा का जीवन जीने की शर्त है ।" वर्ष 1980 के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता एडॉल्फो पेरेज़ एस्क्यूवेल ने अपने पुरस्कार स्वीकृति भाषण में भी इस बात पर बल दिया कि समाज में शांति जीवन जीने का आधार है 'हमें सत्य एवं न्याय की रक्षा में अडिग दृढ़ संकल्प के साथ, सुलह और शांति के लिए, घृणा और द्वेष के बिना, आपसी भाईचारे तक अपनी पहुँच बनानी चाहिए । हम जानते हैं कि बंद मुट्ठी से बीज नहीं लगाए जा सकते ।


मनुष्य के लिए शांतिपूर्ण समाज बनाने की आवश्यकता पर एस्क्यूवेल का रूझान अलग-अलग रणनीतियों के महत्व को रेखांकित करता है, मानव समाज को इन रणनीतियों को समुदायों और मनुष्यों के बीच एकजुटता को पोषित करने के लिए निरंतर उपयोग करना चाहिए । लोगों के लिए शांतिपूर्ण समाज बनाने के लिए संवाद सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है । इसमें दोहरी भूमिका निभाने की क्षमता है- चूँकि यह शांति को वास्तविक और मूर्त बनाने में योगदान दे सकता है; अगर गलत तरीके से इसका प्रयोग किया जाता है तो यह टकराव को बढ़ा भी सकता है और इससे घृणा-द्वेष भी फैल सकता है । यह लोगों पर निर्भर करता है कि वे संवाद के माध्यमों का उपयोग कैसे करते हैं ।


नटवर ठक्कर: आपने संवाद की दोहरी भूमिका पर सही प्रकाश डाला है । हालांकि मीडिया काफी अच्छी नौकरी करने की कोशिश करता है, प्रायः यह हिंसा को सनसनीखेज करने का प्रयास करता है जिससे टकराव की स्थिति के मामले बढ़ सकते हैं । मीडिया पर भी अतिशयता का आरोप है, हंटिंगटन ने कहा भी कि, मीडिया लोगों को हमारे और उनके बीच बांटने का प्रयास करता है । पूरे इतिहास में हम पाएंगे कि विभाजन और असहिष्णुता को बढ़ाने के लिए संवाद के विभिन्न रूपों का उपयोग कैसे किया गया है । इस संदर्भ में, महात्मा गांधी ने आत्म-संयम का अभ्यास करने की आवश्यकता पर बल दिया तथा गंभीर रूप से इस बात पर विचार करने पर बल दिया कि इससे जनता कौन सा संदेश लेने की कोशिश कर रही हैं, आज सभी संवाददाताओं को एक मार्गदर्शक के रूप में होना चाहिए । उन्होंने कहा था, "अपने विश्वास के प्रति सही होने के लिए ही, मैं क्रोध या द्वेष में नहीं लिख सकता । मैं मूर्खता से नहीं लिख सकता । मैं केवल उत्तेजित करने के लिए भी नहीं लिख सकता । पाठक को मेरे संयम का कोई अंदाजा नहीं है कि मैं सप्ताह दर सप्ताह अपनी पसंद के विषयों और शब्दावली का अभ्यास करता हूँ । यह मेरे लिए प्रशिक्षण है । यह मुझे अपने भीतर झाँकने और अपनी कमजोरियों को खोजने में सक्षम बनाता है । प्रायः मेरी व्यर्थता एक उम्दा अभिव्यक्ति या मेरा क्रोध एक कठोर विशेषण के रूप में व्यक्त होता है । यह एक भयावह परीक्षा है लेकिन इस खरपतवार को हटाने के लिए यह एक अच्छा अभ्यास है । "


आज संवाददाताओं को वर्ग, धर्म और जाति के आधार पर लोगों को विभाजित करने के लिए हो रहे प्रयासों को चुनौती देने की आवश्यकता है । संवाद करते समय उन्हें महात्मा गांधी की प्रभावशाली ढंग से कही गई बात धारण करनी चाहिए कि "मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सभी ओर से दीवारों से घिरा हो और मेरी खिड़कियां भरी हुई हों । मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियों को मेरे घर में जितना संभव हो सके फैलाया जाए । "उन्होंने आगे कहा था," मेरे विचार से कहीं भी कुछ भी हो सकता है कि हम विशिष्ट बन जाएं या बाधाएं खड़ी कर लें ।" इसलिए हमें छोटी उम्र से ही बच्चों में मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए संवाद का उपयोग करने की आवश्यकता है जो एकजुटता की भावना उत्पन्न करने में योगदान देता है । मेरे विचार में संवाद शिक्षा को बहुलवाद, आपसी सम्मान और समावेशिता के मूल्यों को एकीकृत करना चाहिए । इसे जुनून को सनसनीखेज करने या उत्तेजित करने का एक औज़ार भर नहीं होना चाहिए बल्कि सभी पहलुओं पर आत्म-संयम और अहिंसा के सिद्धांतों का अभ्यास करने के एक सबक के रूप में होना चाहिए ।


नागालैंड में कार्य करने का मेरा अनुभव है कि संवाद की भूमिका भावनात्मक संबंध बनाने की, विभिन्न सांस्कृतिक समुदायों के लोगों के बीच बातचीत जोड़ने की एवं सुविधा प्रदान करने की होनी चाहिए । संवाद की प्रक्रिया में भावनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । अधिकांश हम इस बात से अवगत नहीं होते हैं कि हमारा बोलना दूसरों पर क्या भावनात्मक प्रभाव डालता हैं । इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी भावनात्मक शब्दावली विकसित करने का प्रयास करें ।


एक दूसरे की चिंताओं की गहरी समझ विकसित करते समय हमारी संवादात्मक क्षमताओं को करुणा और स्वानुभूति के लिए सक्षम होना चाहिए । अगर हम दयालु एवं स्वानुभूत हैं, तो हम अन्य लोगों के विचारों को समझ पाएंगे और उनके साथ जुड़ सकेंगे । करुणामय और स्वानुभूतपूर्ण होने के नाते, हम भावनात्मक संबंध को बढ़ावा दे सकते हैं । यह मतभेदों को कम करने और संबंधों को पोषित करने में मदद कर सकता है ।



वेदाभ्यास कुंडू: भावनात्मक संबंध की भूमिका जिसे आपने संवाद के एक महत्वपूर्ण कार्य के रूप में वर्णित किया है, उसे आबादी के सभी वर्गों में प्रचारित करने की आवश्यकता है । भावनात्मक संबंध का अर्थ सार्थक संवाद हो सकता है । हमारा प्रयास उन लोगों और समूहों को आकर्षित करना होना चाहिए जो संवाद में शामिल होने में असमर्थ महसूस करते हैं । जॉन डयूवी (1859 -1952) ने जोर देकर कहा था कि जिन लोगों के पास उस प्रकार का अनुभव नहीं है जो पड़ोस और पड़ोसियों की समझ को गहरा समझ सकें, वे दूरस्थ भूमि के लोगों के प्रति सम्मान बनाए रखने में असमर्थ होंगे । हमें दूसरे लोगों के साथ लगातार जुड़ने और आपसी सम्मान के साथ उन तक पहुंचने की आदत विकसित करने की आवश्यकता है । बातचीत के महत्व पर, शांति विद्वान, डेसाकू इकेडा (2007) ने रेखांकित किया कि, "बातचीत के माध्यम से, हम एक गहरी पारस्परिक समझ पर पहुंच सकते हैं । बातचीत संबंधित पक्षों की स्थिति और हितों को स्पष्ट रूप से पहचानने से शुरू होती हैै और फिर स्पष्ट रूप से प्रगति की ओर उन्मुख होने में आने वाली बाधाओं की पहचान करती चलती है, तभी ध्यानपूर्वक उन सभी को दूर करने एवं समाधान करने के लिए कार्य किया जाता है ।" उन्होंने आगे कहा, "मैं दृढ़ता से मानता हूं कि बातचीत का वास्तविक मूल्य बातचीत से निकलने वाला परिणाम नहीं है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि संवाद की प्रक्रिया में, दो मानवीय आत्माएं एक-दूसरे के साथ जुड़ती हैं और एक दूसरे को उदात्त की ओर ले जाती हैं ...। संवाद मनुष्य की आत्मा के चक्षु खोलता है तथा लोगों को संकीर्ण विचारधाराओं और घृणाओं के अभिशाप से मुक्त करता है ।" अपने शांति प्रस्ताव 2005 में, इकेडा आगे लिखते हैं, "हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं वे मनुष्यों के कारण उत्पन्न होती हैं, इसका अर्थ है कि उनका एक मानवीय समाधान अनिवार्य रूप से है । हालांकि लंबे समय तक तब तक प्रयास किया जाता है, जब तक हम इन पारस्परिक मुद्दों के उलझे हुए धागों की गाँठो को सुलझा नहीं लेते, हम निश्चित ही आगे बढ़ने के बारे में निश्चित हो सकते हैं । इस तरह के प्रयासों का मूल उद्देश्य संवाद की पूरी क्षमता को सामने लाने का होना चाहिए ।"


किन्तु आज के दौर में हम देखते हैं कि हम में से बहुत से लोग संवाद और वार्तालाप की भावना को तेजी से छोड़ रहे हैं, वे लोग जल्दबाजी में हैं और असहिष्णु हैं । वे दूसरों को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं और इसके परिणामस्वरूप कल्पना और संघर्ष होते हैं । यह चिंताजनक है । भावनात्मक संबंध की भूमिका निभाने के लिए संवाद के बजाय घृणा और असहिष्णुता का संवाद होता है ।


नटवर ठक्कर: निश्चित रूप से जब घृणा फैलाने के लिए संवाद का उपयोग किया जाता है तब संवाद के लिए बहुत कम जगह होती है, यह स्थिति चिंताजनक होती है । भावनात्मक संबंध-निर्माता की भूमिका निभाने के बजाय, संवाद विभाजन में योगदान देना शुरू कर देता है । संवाद के टूटने से मतभेदों और यहां तक कि संघर्षों का उदय होता है । मैं ईमानदारी से मानता हूं कि संवाद के माध्यमों को खोलने के लिए निरंतर बातचीत महत्वपूर्ण है । महात्मा गांधी इस कला के एक प्रतिपादक थे । 1939 में उन्होंने एक संवाददाता से कहा था कि एक सत्याग्रही का उद्देश्य 'विरोधी शक्ति के साथ किसी भी रिश्ते से बचना' नहीं बल्कि 'रिश्ते में परिवर्तित' होना था । गांधीवादी विद्वान बी आर नंदा (2002) ने अपनी पुस्तक ‘इन सर्च ऑफ गांधी’ में, खूबसूरती से इसे समझाया है, "भारत में, गांधी जी ने शताब्दी के एक चौथाई से, सभी वायसराय- चेम्सफोर्ड, रीडिंग, इरविन, विलिंगडन और लिनलिथगो से संवाद किया- उन्होंने अपना संवाद तब भी बनाए रखा जब वे अहिंसा की लड़ाई में व्यस्त थे ।" यह संवाद का सच्चा सार है कि जब गंभीर मतभेद भी होते हैं तब भी हम संवाद को छोड़ते नहीं हैं बल्कि संवाद के माध्यमों को खुला रखने के लिए हर प्रयास करते हैं । गांधी जी के एक महान अनुयायी नेल्सन मंडेला ने शांति के लिए संवाद के महत्व को बहुत ही अच्छे से रखा है, नेल्सन ने कहा, "हम शांति को भंग करते हैं और संघर्षों के संकल्पों पर समझौता करते हैं, इससे हम केवल एक दूसरे को एक हद तक दैत्य बनाते हैं । हम जिस प्रकार अक्षांश से अपने को अलग करते हैं, वैसे ही हम राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय मामलों की प्रक्रियाओं को अलग करते हैं, और दूसरी तरफ, मनुष्य के रूप में हमारे बीच के नैतिक संबंध का विच्छेद करते हैं ... एक दूसरे से बात करके एवं विचार-विमर्श के द्वारा विवादों का समाधान किया जाना चाहिए ।" तो आइए.! एक दूसरे से तब भी बात करते रहें जब संवाद के टूटने की संभावना लगने लगे; चलिए हम हिंसा और प्रतिद्वंद्विता से नहीं बल्कि विचार-विमर्श के माध्यम से अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास करें । आओ, भावनात्मक संबंध-निर्माता की भूमिका के लिए संवाद की अपनी शक्ति का उपयोग करें ।


वेदाभ्यास कुंडू: मुझे लगता है कि जब आप संवाद के माध्यमों को खोलने के महत्व पर बात करते हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम सुनने का महत्व सीखें । वास्तव में हमें सुनने की आदत विकसित करने के लिए गहनता और अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है । गहनता से सुनने की क्षमताओं को विकसित किए बिना यह सुनिश्चित करना संभव नहीं लगता कि संवाद के माध्यम खुले रहेंगे । अधिकतर, इस उत्तर आधुनिक दुनिया में जब हम में से अधिकांश एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए दौड़ रहे हैं और यह मानते हैं कि हमारे विचार अधिक महत्वपूर्ण हैं, ऐसे में हमारी गहनता से सुनने की आदत का लोप हो जाता है । दूसरों के विचारों का सम्मान करना एवं, उनकी कही गई बातों पर ध्यान देना सीखना महत्वपूर्ण है । जब अन्य लोग अपने विचारों को रखने का प्रयास कर रहे हों ऐसे में हमें निर्णायक होने के स्थान पर, स्वानुभूतिपूर्ण एवं ग्रहणशील होने की आवश्यकता है । कुल मिलाकर, मुझे लगता है कि सुनने की क्षमतायें, एक प्रभावी संवाददाता बनने के लिए, अपने विरोधियों से भी संवाद करने तथा भावनात्मक संबंध बनाने की क्षमता हमारे प्रशिक्षण का आलम्ब होना चाहिए । 1987 में डेसाकू इकेडा ने 'सभ्यताओं की बातचीत से मानवता की समृद्ध संस्कृति की ओर अग्रसर होते हैं' विषय पर अपने भाषण में संवाद के लिए तीन सिद्धांतों और दिशानिर्देशों का सुझाव दिया: (1) मूल्य निर्माण के स्रोत के रूप में सभ्यताओं के बीच विनिमय; (2) खुले संवाद की भावना; तथा (3) शिक्षा के माध्यम से शांति की संस्कृति का निर्माण ...। हालांकि, आज के समय में डेसाकू इकेडा के द्वारा प्रतिबिंबित संवाद के सिद्धांतों पर कार्य करना चुनौती है, जिसे यूनेस्को बेसिक शिक्षा प्रभाग के पूर्व निदेशक विक्टर ऑर्डोनज़ ने उपयुक्त ढंग से समझाया है, उन्होंने कहा था, "हम सूचना प्रौद्योगिकी में विशेषज्ञों का निर्माण कर सकते हैं, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि हम सुनने की क्षमता का विकास करने में, सहिष्णुता बढाने में , विविधता के सम्मान के लिए, समाज के भले के लिए कार्य करने, या मौलिक नैतिकता के प्रसार का कार्य करने में असमर्थ हैं इसके बिना कोई भी कौशल और ज्ञान हमारे लाभ का नहीं है । (यूनिसेफ, 1995)


नटवर ठक्कर: श्री विक्टर ऑर्डोनज़ ने जिन चुनौतियों को प्रतिबिंबित किया, उन्हें संभवतः संबोधित करने के लिए, मैं सुझाव दूंगा कि हमें दुनिया भर में आबादी के सभी वर्गों में अहिंसक संवाद साक्षरता को बढ़ावा देना चाहिए । यह सिर्फ स्कूलों और कॉलेजों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि अहिंसक संवाद साक्षरता परिवारों से शुरू होकर हमारे समाज तक प्रसारित होनी चाहिए । संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ने साक्षरता को "अलग-अलग संदर्भों से सम्बन्धित मुद्रित व लिखित सामग्री का उपयोग करके पहचानने, समझने, व्याख्या करने, बनाने, संवाद करने और गणना करने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया है । साक्षरता के अंतर्गत व्यक्ति को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने, अपने ज्ञान तथा क्षमता को विकसित करने एवं अपने समुदाय तथा व्यापक समाज में पूर्ण प्रतिभागिता में सक्षम बनाने के लिए सीखने की निरंतरता शामिल है । संवाद साक्षरता, मेरे अनुसार संवाद के गहरे और महत्वपूर्ण ज्ञान की आवश्यकता पर बल देती है । इसमें संवाद की जटिल समझ भी शामिल होती है कि हम कैसे संवाद करते हैं, तथा किस प्रकार हम संवाद करते समय स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं । इसमें संवाद के शाब्दिक एवं गैर-शाब्दिक दोनों रूप शामिल हैं । इसमें गलत और सही के बीच के अंतर को समझने की क्षमता भी है । हम किस संदेश का उपयोग कर रहे हैं, इस बारे में आत्म-जागरूक होना भी संवाद साक्षरता का एक भाग है ।


मेरे लिए अहिंसक संवाद साक्षरता का अर्थ यह होगा कि कैसे हमारे संवाद के प्रयास अहिंसक हों; हमारी अपने साथ संवाद करने की क्षमता और योग्यता ही नहीं , बल्कि सभी पक्षों में अपने परिवार और समाज के प्रति अहिंसक होने की भी होनी चाहिए और समग्र रूप से संवाद की पूरी प्रक्रिया कैसे व्यक्तियों, समूहों, समुदायों और दुनिया के बीच स्वभाव में अहिंसक होनी चाहिए । यह अहिंसा की मानविकी एवं विज्ञान की गहरी समझ तथा हमारे सभी दैनिक कार्यों में इसकी केंद्रीयता की आवश्यकता पर जोर देता है । इसमें केवल शाब्दिक और गैर-शाब्दिक संवाद नहीं है, बल्कि अहिंसक संवाद साक्षरता में हमारे विचार अहिंसक हैं या नहीं, भी शामिल होगा । इसका अर्थ यह भी होगा कि हम उन व्यक्तियों या समूहों के बारे में अपने पूर्वाग्रहों से कैसे छुटकारा पा सकते हैं जिनके साथ हम संवाद करना चाहते हैं तथा साथ ही अपने विचारों के अनुरूप उनका मूल्यांकन करना बंद करना चाहते हैं । प्रायः हम नैतिकतावादी निर्णयों के संदर्भ में सोचने के लिए प्रतिबद्ध होते चले जाते हैं जो हमारी स्वयं की निर्मित्ति भी हो सकती हैं । अहिंसा की मानविकी एवं विज्ञान की गहरी समझ विकसित करके तथा हमारी संवाद प्रथाओं में इसे एकीकृत करने से प्राप्त निर्णय पक्षपातपूर्ण और नैतिकतावादी भी हो सकते हैं; यह इसके बनिस्पत भावनात्मक संबंध बनाने में योगदान दे सकता है ।


अहिंसक संवाद साक्षर होने के कारण, एक व्यक्ति/समूह/समुदाय स्वयं आत्मनिरीक्षण करने में सक्षम होगा कि वह जो संदेश साझा करना चाहते हैं, उसमें हिंसा के तत्व तो नहीं हैं और क्या ऐसा संदेश दूसरों की भावनाओं को आहत कर सकता है । अहिंसक संवाद साक्षरता स्वतः ही संबंधों को मजबूत और गहन बनाने में मदद करेगी । जब हम भावनात्मक रूप से दूसरों के साथ संबंधों का निर्माण करने में सक्षम होते हैं तभी हम उनके विचारों के साथ स्वानुभूत कर पाएंगे ।


अहिंसक संवाद साक्षरता में सुनने की कला में निपुणता हासिल करने को भी शामिल किया गया है । परम पावन दलाई लामा ने सही कहा है, "जब आप बात करते हैं तो आप केवल वही दोहरा रहे होते हैं जो आप पहले से जानते हैं; लेकिन जब आप सुनते हैं तो आप कुछ नया सीख सकते हैं ।" अनिवार्य रूप से हमें समझने, खुलेपन के साथ और ध्यानपूर्वक एक ईमानदार इच्छाशक्ति से सुनना सीखना चाहिए कि आखिर दूसरा व्यक्ति क्या कहने की कोशिश कर रहा है ।


अहिंसक संवाद साक्षरता का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि लेखन एवं बातचीत के दौरान हम भाषा और शब्दों का उपयोग कैसे करते हैं । हमने ऊपर चर्चा की थी, संवाद के गांधीवादी दृष्टिकोण ने संयम के महत्व पर स्पष्ट रूप से जोर दिया है कि जिससे उत्तेजना उत्पन्न ना हो पाए । उनका दृष्टिकोण लघुता के महत्व और बोलने से पहले सोचने की आवश्यकता पर जोर देता है । उन्होंने कहा था, "भाषण में मेरी हिचकिचाहट, जिसने मुझे एक बार परेशान किया, वह अब मुझे खुशी देती है । इसका सबसे बड़ा लाभ यह रहा है कि उसने मुझे शब्दों की मितव्य्यता सिखाई है । मैंने स्वाभाविक रूप से अपने विचारों को रोकने की आदत बनाई है । और अब मैं स्वयं को प्रमाणपत्र दे सकता हूं कि एक विचारहीन शब्द शायद ही कभी मेरी जीभ या कलम से निकलता हो । मुझे अपने भाषण या लेखन में कभी भी किसी भी बात पर पश्चाताप नहीं करना पडा है । इस प्रकार मैंने कई दुर्घटनाओं को एवं समय को नष्ट होने से बचाया है । "(द माइंड ऑफ़ महात्मा गांधी)


इसलिए गांधी, किंग और मंडेला जैसे महान नेताओं के विचारों का गहराई से अध्ययन करके और अभ्यास करके हम अपने दैनिक जीवन में अहिंसक संवाद का उपयोग कर सकते हैं और अहिंसक संवाद साक्षर बनने का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं । महात्मा गांधी के अनुसार अहिंसा 'अनन्तता से महान तथा क्रूर बल से श्रेष्ठ' है । उन्होंने कहा था, "अहिंसा अपनी क्रिया में रेडियम की तरह है । जैसे रेडियम एक घातक विकास में अंतःस्थापित अपनी अतिसूक्ष्म मात्रा में लगातार, मौन और निरंतर तब तक कार्य करता है जब तक कि यह रोगग्रस्त ऊतक के पूरे द्रव्यमान को स्वस्थ में परिवर्तित नहीं कर देता है । इसी प्रकार एक सच्ची अहिंसा भी मौन, सूक्ष्म, अदृश्य रूप में कार्य करती है और पूरे समाज को उत्प्रेरित करती है । "इसलिए यदि हमारा संवाद पारिस्थितिकी तंत्र प्रकृति में अहिंसक है, तो यह कई विवादित मुद्दों के समाधान में योगदान देने वाले रेडियम की तरह कार्य करेगा ।


मुझे मार्टिन लूथर किंग का यह शक्तिशाली विचार भी याद आता है, "अहिंसा का कहना है कि मानव स्वभाव में भलाई की अद्भुत संभावनाएं हैं ...। मुझे लगता है कि हम सभी को यह समझना चाहिए कि मानव प्रकृति के भीतर एक तरह का द्वैतवाद है, हम सभी के भीतर कुछ ऐसा है जो प्लेटो की इस बात को तर्कसंगत ठहराता है कि मानव व्यक्तित्व दो मजबूत घोड़ों के साथ एक रथ की तरह है जिसमें प्रत्येक घोड़ा अलग-अलग दिशाओं में जाना चाहता है ...। यह तनाव और मानव प्रकृति के भीतर का यह संघर्ष उच्च और निम्न के बीच है ...। हमें यह समझना चाहिए कि जैसे बुराई की क्षमता है, उसी प्रकार भलाई की भी क्षमता है । एक हिटलर जैसा व्यक्ति, मनुष्य को सबसे अंधेरे और सबसे कम गहराई तक ले जा सकता है, तो गांधी जैसा व्यक्तित्व भी नेतृत्व कर सकता है, जो मनुष्य को अहिंसा और भलाई की उच्चतम ऊंचाई तक ले जा सकता है । हमें हमेशा मानव प्रकृति के भीतर इन संभावनाओं को देखना चाहिए; अहिंसक अनुशासन इस धारणा के साथ चलता है कि सबसे कठिनतम व्यक्ति, जो अपनी सभी शक्तियों के साथ पुराने आदेश के प्रति प्रतिबद्ध है, का भी हृदय परिवर्तित किया जा सकता है ...... ।"


किंग ने यह भी कहा था, "अहिंसा हमारे समय के महत्वपूर्ण राजनीतिक और नैतिक प्रश्नों का उत्तर है; मनुष्य की आवश्यकता है कि वह उत्पीड़न और हिंसा का उपयोग किए बिना उत्पीड़न और हिंसा को दूर कर उस पर काबू पाए । मानव जाति को सभी मानव संघर्षों के लिए एक विधि की उत्पत्ति करनी चाहिए जो बदले, आक्रामकता और प्रतिशोध की भावना को खारिज कर देती हो ।"


इसलिए मैं दृढ़ता से मानता हूं कि अहिंसक संवाद का अभ्यास करके, दुनिया में संघर्षों से जूझ रही अच्छाई को बढ़ावा देने के अद्भुत अवसर हो सकते हैं । यह न केवल हमारे घरों में बल्कि पूरी दुनिया में शांति और अहिंसा की संस्कृति विकसित करने के प्रयासों का एक अनिवार्य हिस्सा है । यह प्रतिशोध, आक्रामकता और प्रतिकार के सभी कृत्यों के लिए एक मारक भी है क्योंकि यह संवाद में अवरोध उत्पन्न होने से अथवा संवाद में हिंसा में हमारी आस्था होने से उत्पन्न होता है ।


कुल मिलाकर, मैं दृढ़ता से मानता हूं कि अहिंसक संवाद साक्षरता से संवाद और मेल-मिलाप, परस्पर सम्मान और सहिष्णुता के लिए नई जगहें खुलती हैं । यह निश्चित रूप से एक मानवतावादी समाज बनने की दिशा में योगदान देगा ।


वेदाभ्यास : हमें निश्चित रूप से महात्मा गाँधी, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, डेसाकू इकेडा एवं ऐसे अन्य शांतिदूतों से बहुत कुछ सीखना है । मार्टिन लूथर किंग ने हमेशा अपने लेखन और भाषणों में सकारात्मक भाषा का प्रयोग किया । सकारात्मक भाषा का उपयोग करके और नकारात्मकता से बचकर, हम अपने संवाद के स्तर को ऊँचा उठा सकते हैं । उदाहरण के लिए यदि हम मार्टिन लूथर किंग के इस शक्तिशाली उद्धरण का विश्लेषण करते हैं, "अगर आप उड़ नहीं सकते तो दौड़ें, अगर आप दौड़ नहीं सकते तो पैदल चलें, अगर आप पैदल नहीं चल सकते हैं तो रेंगना शुरू करें, लेकिन आप जो भी करें, आगे बढ़ते रहें," यह उद्धरण बहुत सकारात्मकता उत्पन्न करता है । इसी प्रकार मार्टिन लूथर किंग के अन्य सभी संवाद और भाषण सकारात्मक भाषा के उपयोग को रेखांकित करते हैं । अहिंसक संवाद साक्षरता इस बात पर भी बल देती है कि हम कैसे उन सभी लोगों से जुड़ने के लिए ह्रदय से और अपनी महत्वपूर्ण क्षमताओं से बात कर सकते हैं जिनके साथ हम संवाद कर रहे हैं । यदि हम सच्चे, ईमानदार, गंभीर और प्रामाणिक हैं तो हमारे लिए दूसरों के साथ संवाद करना कठिन नहीं होगा । वैमनस्यों को रोकने और हल करने के लिए ये एक शक्तिशाली रणनीति भी हो सकती है । एक अहिंसक संवाददाता बनने के लिए गांधी, किंग और मंडेला के जीवन एवं उनके संवाद दृष्टिकोणों को निश्चित रूप से गहराई से समझने की आवश्यकता है ।


नटवर ठक्कर: मेरा मानना है कि जब हम अहिंसक संवाद साक्षरता को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं, तो हम सच्चाई, ईमानदारी, वास्तविकता और स्वानुभूति के आधार पर संबंधों को सुगम बनाने की कोशिश कर रहे हैं । अहिंसक संवाद भी कृतज्ञता और क्षमा के तत्वों की ज़रूरत पर जोर देता है । ये सभी विचार मनुष्यों के बीच प्यार और शांति को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण कारक हैं । गांधी जी के लिए, सच्चाई बहुत महत्वपूर्ण थी, उन्होंने कहा था, "मेरे लेखों में असत्य के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है, क्योंकि यह मेरा अटल विश्वास है कि सच्चाई के इतर कोई धर्म नहीं है और इसलिए मैं सत्य की कीमत पर प्राप्त हुआ कुछ भी अस्वीकार करने में सक्षम हूं ।"


हमारे संवाद के दौरान प्रेम के तत्व पर, उन्होंने आगे कहा था, "दैनिक जीवन में लाखों परिवारों के छोटे झगड़े बल प्रयोग करने से पहले ही गायब हो जाते हैं ... दो भाई झगड़े; उनमें से एक पश्चाताप करता है और उस प्रेम को पुन: जागृत करता है जो उसके भीतर सो गया था; दोनों फिर से शांति से रहना शुरू करते हैं ।" मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि विवादों को हल करने और सुलह में मदद करने के लिए अहिंसक संवाद एक महत्वपूर्ण साधन है । महात्मा गांधी ने ठीक कहा था, "यह अहिंसा का एसिड परीक्षण है कि एक अहिंसक संघर्ष में घृणा को पीछे छोड़ दिया जाता है, और अंत में शत्रु मित्रों में तब्दील हो जाते है ।" अहिंसक संवाद में विरोधी विचारों के लोगों को बदलने की तथा टकराव की स्थिति में मित्र में परिवर्तित करने की क्षमता होती है ।

इसी प्रकार परम पावन दलाई लामा ने ठीक प्रकार से व्यक्त किया है, "प्रेम एवं करुणा आवश्यकताएं हैं, विलासिता नहीं । उनके बिना मानवता जीवित नहीं रह सकती है । "

गांधीवादी अहिंसक संवाद का एक और महत्वपूर्ण पहलू कृतज्ञता की शक्ति है । बुद्ध का यह उद्धरण कृतज्ञता के महत्व को दर्शाता है तथा यह बताता है कि हमें क्यों आभारी होना चाहिए, "आओ जागें और आभारी रहें, क्योंकि यदि हमने आज बहुत कुछ नहीं भी सीखा, तो कम से कम हमने कुछ तो सीखा, और अगर हमने थोड़ा नहीं भी सीखा, तो कम से कम हम बीमार नहीं हुए, और यदि हम बीमार हो गए, तो कम से कम हम मरे नहीं; इसलिए, हम सभी आभारी रहें । "महात्मा गांधी के लिए, प्रशंसा उनके अहिंसा विचार का एक महत्वपूर्ण तत्व था । महात्मा गांधी के पोते अरुण गांधी ने अपनी पुस्तक, द गिफ्ट ऑफ एंगर में कहा है, "बापूजी उनके चारों ओर की दुनिया की सराहना करने मे कुशल थे । उन्होंने सभी में अच्छाई की तलाश की ।" यह अहिंसक संवाद का मूलतत्व है जो सभी में अच्छाई की तलाश करता है और तदनुसार प्रतिक्रिया देता है ।


इसलिए अहिंसक संवाद साक्षरता मेरे लिए अनिवार्य रूप से करुणा, प्रेम, स्वानुभूति के सुषुप्त मूल्यों को पुन: जागृत करने और हमारे प्रामाणिक आत्म को फिर से खोजना है । कृतज्ञता और प्रशंसा को पोषित करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण साधन है । इसका अभ्यास करके हम दूसरों को क्षमा करना सीख सकते हैं । यह संघर्ष के समाधान के लिए एक माध्यम भी है, जो सहिष्णुता को बढ़ाता है और मेल-मिलाप को बढ़ावा देता है ।


निष्कर्ष के रूप में, मैं बुद्ध के इन खूबसूरत विचारों को साझा करना चाहता हूं जो कि हमारी इस बातचीत का मुख्य उद्देश्य है, "शब्दों में नष्ट करने की एवं सही करने की दोनों शक्तियां हैं । जब शब्द सच्चे और दयालु दोनों होते हैं, तो वे हमारी दुनिया बदल सकते हैं । "


संदर्भ:

हंटिंगटन, सैमुअल पी (1997) द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन एंड द रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर (सभ्यताओं का संघर्ष और विश्व व्यवस्था का पुनर्निर्माण); पेंगुइन बुक्स

इकेदा, डेसाकू (2007) सभ्यताओं के संवाद से मानवता की समृद्ध संस्कृति विकसित होती है; पालेर्मो विश्वविद्यालय, सिसिली, इटली में संवाद में मानद डॉक्टरेट का स्वीकृति भाषण ।

नंदा, बी आर (2002) गांधी, निबंध एवं प्रतिबिंब की खोज में; ऑक्सफोर्ड यूनिवरसिटी प्रेस; 2002



**श्री वेदाभ्यास कुंडू जी की नटवर ठक्कर जी से अंग्रेजी में हुई बातचीत का हिंदी अनुवाद

*अंतिम जन पत्रिका के जून-दिसम्बर अंक 2018 में प्रकाशित 

Thursday, November 2, 2017

पाण्डे सदन -इन्दिरा दाँगी



कहा जाता है कि साहित्य में वही रचना टिकेगी, जिसमें मनुष्य के माध्यम से यथार्थ की कसौटी पर जीवन में व्यक्त होने वाली सच्चाई मिलेंगी, इसी तर्ज़ पर देखा जाए तो नई कहानी में प्रकट हुए वैयक्तिक चित्रण के बाद यह संदेह होने लगा था कि कहानियों में सामाजिक परिप्रेक्ष्य लुप्तप्राय है किन्तु हिंदी कहानी की विकास यात्रा के क्रम में आए समकालीन कहानी के दौर में कहानियों में वैयक्तिक चित्रण के साथ-साथ सामाजिक परिप्रेक्ष्य एवं सामाजिक संघर्षशीलता भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है और वह कहीं से भी कहानी पर थोपी हुई नहीं, बल्कि जीवन प्रसंगो में संदर्भों के चित्रण के माध्यम से स्वाभाविक रूप से विकसित होती मालूम पड़ती है ।


साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित इंदिरा दांगी ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी कहानी में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । उनकी कहानी ‘पाण्डे सदन’, परिस्थितियों की जटिलताओं में मानव मन की संवेदना को संश्लिष्ट करते हुए मनुष्य को एक विभाजित व्यक्तित्व में तब्दील होते जाने की कहानी है, जहां मनुष्य एक साथ एक से अधिक स्तरों पर जीने के लिए विवश है । इंदिरा दाँगी की यह कहानी बिजली चली जाने से लेकर, बिजली के आ जाने तक के उन चार घंटों की कहानी है जिसमें गर्मी की उमस एवं ऊब के बीच चार बहनों के बीच पिता के देहांत के बाद छूटे हुए घर पाण्डे सदन को बेचने के लिए हुए विवाद एवं संवाद में पसरी हुई उनकी लाचारियाँ और अपनी व्यथाएं शामिल है ।


अपनी इस सीधी सपाट कहानी में भी इंदिरा दांगी बहुआयामी नजर आती है संपत्ति का विवाद जहां सदियों से पुत्रों के बीच होता आया है अब चूँकि आचार्य जी का कोई पुत्र नहीं है तो चारों पुत्रियों में से तीन पुत्रियाँ पिता के पीछे छूटे उस घर को बेच अपना अपना हिस्सा लेना चाहती हैं । कहानी की पृष्ठभूमि कुछ ऐसी है कि चार बहनों में से तीन बहने अपने ससुराल में अपने-अपने पति और बच्चों के साथ रहती हैं तथा संझली बेटी कनक वैधव्य की शिकार हो अपनी दोनों बेटियों को लेकर पिता के घर में रहती है । यह कहानी सदियों पुरानी उस पितृसत्तात्मक संरचना को भी कटघरे में ला खड़ा करती है, जिसमें स्त्री अपने पिता, पति, पुत्र के आदेशों से चलती है । यहां भी कनक की तीनो बहने अपने अपने पतियों एवं पुत्रों के आदेश पर ही घर बेचने का इरादा लेकर आई हैं । यहां भी इन स्त्रियों को ड्राइव करने वाला पुरुष ही है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि अपनी विधवा बहन के लिए उनके मन में कोई दया भाव एवं लगाव नहीं है किंतु अपनी विवशताओं में वे इस कदर घिरी हुई हैं कि अपने संवेदनात्मक पक्ष को नजरअंदाज करती हैं हालांकि रितु का अपना निजी स्वार्थ है इस घर को बेचकर पैसा लेने का, किन्तु वह निजी स्वार्थ भी कहीं ना कहीं इन्हीं शक्तियों से संचालित है ।


इंदिरा दांगी की यह कहानी इस पितृसत्तात्मक समाज के साथ-साथ अपने समकालीन कहानीपन में महानगरीय जीवन बोध को भी इंगित करती हैं । आज का महानगरीय जीवन जिस ऊब, मोहभंग एवं एकाकीपन को जन्म दे रहा है वह भी एकदम से घटित नहीं हुआ है, अपितु यह ऊब महानगर की जीवन पद्धति, विभिन्न परिस्थितियों, इनसे उपजी समस्याओं एवं इन समस्याओं से लड़ते-जूझते मनुष्य की मानसिकता से जनित है, जो उसे एक खंडित व्यक्तित्व में ढाल देती है । जहां व्यक्ति जीवन को एक विशेष ढांचे में जीने के लिए विवश है, जिसमें वह संवेदना के स्तर पर शून्य होने लगता है तथा जिसका स्थान स्वार्थ लेने लगता है । कनक की तीनो बहने अपने-अपने जिस महानगरीय अवसाद एवं एकाकीपन से गुजर रही हैं, उसी का निमित्त यह कुंठा है जिसके चलते वे अपने-अपने इन दबावों में जानते-बूझते हुए भी कनक से घर बेचने की बात करते हैं ।


सभी अपने-अपने जीवन के दबाव से दबी हुई है, जिसमें संपन्नता का एक छद्म आवरण वे एक दूसरे को दिखाना चाहती हैं किन्तु भीतर ही भीतर एक दूसरे की एवं अपनी सच्चाई से रूबरू हैं । इस कहानी में एक स्थान पर वाक्य आता है – “कमरे की उमस में लौटना ही जैसे नियति है..!” इस वाक्य में इन बहनों की ही नहीं, आज के समाज की पूरी नियति सिमटी हुई है जिसमें जीवन की यह उमस भरी ऊब ही सबके जीवन का अंतिम सत्य बन गई है । मनुष्य विकल्प की तलाश में इधर से उधर दौड़ता ज़रूर है किन्तु लौटता अन्ततः उसी अकेलेपन में है ।


यह कहानी अपने कलेवर में कई अन्य मुद्दे भी शामिल किए हुए है जिसमें दहेज प्रथा, प्रेम-संबंध इत्यादि भी हैं । इस कहानी में इन्दिरा दाँगी भारतीय समाज के उस ताने-बाने को भी प्रतिबिंबित करती हैं जिसमें पति, पत्नी को मारता, मायके से संपत्ति लाने के लिए बाधित करता हुआ दिखाई देता है । इसके साथ ही इंदिरा दांगी की यह कहानी महानगरों की उन विडंबनाओं को भी प्रस्तुत करती है जिसमें कामकाजी माता पिता की संतान किस प्रकार मशीनी होने के लिए विवश है । संतान की देखभाल एवं पालन-पोषण के लिए उनके पास समय नहीं है, जीवन की आपाधापी के बीच संबंधों का होता जाता ह्रास सोचनीय है । भौतिक जीवन किस प्रकार अन्तर्मन को खोखला करता जाता है, यह इस कहानी में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।


भाषा के स्तर पर इंदिरा दांगी एक संपन्न कहानीकार हैं । उनकी कहानियों में एक बढ़िया किस्सागोई के अंदाज के साथ-साथ सुगठित भाषा भी है जिसमें संस्कृति की छाप है मुहावरेदार शब्दों का तथा उनकी संस्कृति के भदेस शब्दों की अच्छी-खासी तादाद है । कुल मिलाकर इंदिरा दांगी की यह कहानी कई आयामों पर खुलकर बात करती कहानी है । 



कहानी – पाण्डे सदन 
कहानीकार – इन्दिरा दाँगी 
*कथानक पत्रिका में प्रकाशित