Tuesday, July 9, 2013





इन अनमनाते-से दिनों के धुंधलके में
अनमनाती-सी मैं
और वे भीनी-भीनी
अनमनी-सी यादें
एक-दूसरे का बारी-बारी
अनमना-अनमना कर साथ देती हैं।



विडंबना मेरे जीवन की एक यही है
मैंने प्रेम के सबसे मीठे और सबसे कडवे पल
एक ही प्रियतम से पाए है
और शायद यही
इस धरातल के तमाम प्रेमियों का
यथार्थ है।



औरत और नारी के बीच के
कशमकश को मिटा
मैं
स्त्री बनना चाहती हूँ
औरत अबला बनकर रह जाती है
नारी मूरत बन पूजी जाती है
पर स्त्री होना
एक छटपटाहट है
आगे बढ़ने की
एक अकुलाहट है
अपना रास्ता बनाने की
एक इच्छा है
अपना हक़ पाने की।