Wednesday, May 20, 2015

लघु-पत्रिका आंदोलन : संरचना और सरोकार



जिस दौर में भारतीय साहित्य समाज की निष्क्रियता से क्षुब्ध मुक्तिबोध लिख रहे थे - ‘सब चुप, साहित्यिक चुप हैं और कविजन निर्वाक/ चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं.’ इस चुप की पहचान कर उसी दौर में भारतीय समाज का एक और क्षुब्ध वर्ग प्रयोगशील एवं प्रतिरोधी रुख अपना रहा था. सामाजिक व्यवस्था और साहित्यिक जगत से असंतुष्ट यह पीढी वैचारिक रूप से व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्षरत थी, इन्हें सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाएं अपने यहाँ बहुत महत्व नहीं देती थीं. परिणामस्वरूप इन लोगों ने अपनी अभिव्यक्ति को स्वर देने के लिए अपने स्तर पर पत्रिकाएं निकालनी प्रारम्भ की. यहीं से लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई. इस लघु पत्रिका आन्दोलन की विकास यात्रा को समझने के लिए लेखक राजीव रंजन गिरि का प्रचुर परिश्रम से लिखा गया शोध-आलेख ‘लघु-पत्रिका आंदोलन : संरचना और सरोकार’ बेहद उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक लेख है. यह लेख सौ से अधिक सन्दर्भों-तथ्यों की मदद से बेहद तार्किक एवं विश्लेषणात्मक ढंग से लिखा गया है. चूँकि हिंदी साहित्य की वैचारिक और सामाजिक सरोकारों वाली उद्देश्यपूर्ण रचनात्मकता के संरक्षण, संव‌र्द्धन और पोषण में लघु पत्रिकाओं की ऐतिहासिक भूमिका रही है. ये पत्रिकाएं एक मुहीम के तौर पर निकाली गई जिसकी एक लम्बी परम्परा बीसवीं सदी के उतरार्द्ध से प्रारम्भ होकर आज तक की यात्रा तय कर रही है. लेखक का मानना भी है कि “हिंदी साहित्य के अतीत और वर्तमान को पहचानने और विश्लेषित करने की कोई भी कोशिश, लघु-पत्रिकाओं की दुनिया पर नजर डाले बिना, पूरी नहीं हो सकती.” राजीव रंजन गिरि का यह लेख विचारधारा, प्रतिबद्धता, प्रतिरोध, समाज-रचना, व्यावसायिकता और रचनाशीलता जैसे प्रत्ययों में संशोधन की माँग के बीच में लघु पत्रिका संप्रत्यय तथा इसके सरोकारों से जुड़े सवालों की ज़रूरी पड़ताल करता है. लेखक ने प्रचलित धारणाओं पर विचार-विश्लेषण करते हुए इस आन्दोलन की वर्तमान स्थिति का जायज़ा भी लिया है. यह शोध-पत्र पाँच भागों परिभाषा का प्रश्न, आन्दोलन का निर्माण, संगठन और उसका दायित्व, आन्दोलन का आधार तथा स्वायत्तता के साथ सहयात्रा में बिखराव में विभक्त है जिनमें बारी-बारी से भले ही इस आन्दोलन की ज़रूरत पर विचार किया गया हो किन्तु चिन्तन के केंद्र में मूलतः इससे जुड़े दायित्व एवं प्रतिबद्धताएँ ही हैं.



लेखक ने ‘परिभाषा का प्रश्न’ भाग में इस आन्दोलन के भारतीय साहित्य तक पहुँचने से पहले के इसके अंतर्राष्ट्रीय फलक एवं परिदृश्य को सामने रखा है कि हिंदी साहित्य से पूर्व खुद को लघु-पत्रिका या लिटिल मैगजीन कहने वाले प्रकाशनों की शुरुआत द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान फ्रांस के रजिस्टेंस समूह से मानी जाती है जिससे आगे चलकर सार्त्र भी जुड़े. रजिस्टेंस समूह की पत्रिका का तेवर सत्ता के खिलाफ था इसलिए उसे प्रतिरोध की आवाज होने की पहचान मिली. हिंदी में लघु-पत्रिका का मतलब लघु आकार, प्रसार का लघु दायरा और प्रकाशन की लघु संरचना तो है ही, खास तरह की चेतना से लैस प्रतिरोध की जमीन तैयार करने का सांस्कृतिक-राजनीतिक मर्म भी, इन पत्रिकाओं को, व्यावसायिक पत्रिकाओं से अलग करता है. इन तथ्यों की पुष्टि के लिए लेखक राजीव रंजन गिरि ने रामकृष्ण पाण्डेय एवं प्रियंवद के उद्धरणों को उदधृत किया है जिसमें प्रियंवद की दी परिभाषा लघु-पत्रिका की सूरत और सीरत स्पष्ट करती है- “विचारशीलता और प्रतिरोध लघु-पत्रिका के मूल स्वर हैं. विचारशीलता से आशय है, अपने समाज और समय के द्वंद्वों को गहराई से संबोधित करना. प्रतिरोध से आशय है मनुष्य विरोधी संरचनाओं को चिह्नित करके उनकी मुखालफत करना, इसमें भी मुख्यतः राजनीतिक वर्चस्ववादी सत्ता का. इसके अतिरिक्त लघु-पत्रिका के स्वरूप व उसकी भूमिका को लेकर हमारे पास पहले की कुछ प्रचलित अवधारणाएँ भी हैं. ये हमारी मदद करती हैं. जैसे कि लघु-पत्रिका अनियतकालीन हो, लघु आकार की हो, साधारण कागज पर साधारण रूप से छपी हो, कम संख्या में प्रकाशित और साथियों के सहयोग से वितरित हो, उसके पीछे कोई बड़ी पूँजी, प्रतिष्ठान, या सुव्यवस्थित बुनियादी ढाँचा न हो, व्यक्तिगत संसाधनों से निकलती हो, उसका ध्येय आर्थिक उपार्जन न हो, वह किसी विशेष विचारधारा और सत्ता-व्यवस्था का सक्रिय प्रतिरोध हो तथा वह बड़ी पूँजीवादी पत्रिकाओं के आतंक व वर्चस्व को चुनौती देती हो!”



एक आंदोलन के रूप में लघु पत्रिकाओं की शुरुआत मूल रूप से सातवें दशक से होती है. उस समय इनकी सीधी लडाई सरकारी और व्यावसायिक घरानों की पत्रिकाओं से थी. साहित्य में यह मोहभंग का दौर था. नेहरू के समाजवाद का तिलिस्म टूट चुका था, इसी दौरान नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत हुई, इसी के बाद साहित्य में व्यवस्था परिवर्तन की बात शिद्दत से उठने लगी. उस दौर में यह विचारना जरूरी हो गया था कि रचित साहित्य सामाजिक परिवर्तन का पक्षधर है या नहीं. इस लेख का दूसरा भाग ‘आन्दोलन का निर्माण’ भी इसी की शिनाख्त करता चलता है इस आन्दोलन के प्रारम्भ को लेकर भरपूर विवाद है कि कोई साठवें तो कोई सत्तर के दशक को इसके सूत्रपात के रूप में देखता है. वीर भारत तलवार ने इस परिघटना को साठ के दशक से माना है. यह स्पष्ट भी होता चलता है कि साठ-सत्तर के दशक में भले ही सचेत आंदोलन न चला हो, और पत्रिकाओं का संगठन भी न बना हो, पर वह अपने आप में एक आंदोलन जैसा ही था। वस्तुतः वह नक्सली आंदोलन द्वारा बनाए वातावरण का प्रतिफल था। लेखक का यह शोध आलेख यह भी स्पष्ट करता चलता है कि लघु पत्रिका आन्दोलन के तीन दौर हिंदी साहित्य की धारा में चिह्नित किए जाते हैं. पहला दौर साठ से सत्तर के दशक का वह असचेत आन्दोलन का दौर था जो साहित्यिक से अधिक सामाजिक था. दूसरा दौर जिसमें औपचारिक तौर से लघु-पत्रिकाओं के संगठन और सचेत आंदोलन का आरंभ 29-30 अगस्त, 1992 को कोलकाता में लघु-पत्रिकाओं के संपादकों की राष्ट्रीय संगोष्ठी से माना जाता है. कथाकार ज्ञानरंजन और आलोचक शंभुनाथ की पहल पर, निजी स्तर और छोटे समूहों के सहयोग से, पत्रिका निकालने वाले संपादकों-लेखकों की राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी जिसमें हिंदी के कई संपादकों-लेखकों ने हिस्सा भी लिया. तीसरा दौर वह माना गया जिसमें लघु-पत्रिका की अवधारणा का सरलीकरण हुआ और पाठक वर्ग घटने लगा. इस दौर में विकसित मीडिया ने व्यावसायिक पत्रिकाओं को पतनोंमुख तो किया पर साथ ही जो भयावह लीला आरंभ की, वह थी सांस्कृतिक प्रदूषण की जिसमें लेखक प्रदूषित और रीढ़-विहीन पत्रकारिता द्वारा हड़पे जाने लगे, यही मुक्तिबोध के दुःस्वप्न थे जो सच होते प्रतीत हो रहे थे, जो साहित्यकार को क्रीतदास की तरह परोस रहे थे. समकालीन रचनाशीलता के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी हुई. लघु-पत्रिका आंदोलन ने इनसे टक्कर ली और समकालीन रचनाशीलता को नई ऊर्जा के साथ व्यक्त होने का मौका मिला. इसी मायने में लघु-पत्रिकाएँ आज हमारे लिए पहले से भी ज्यादा जरूरी हो गई हैं, इनसान की इनसानियत को बनाए एवं बचाए रखने के संघर्ष में इनकी एक अहम भूमिका निश्चित तौर पर बनी हुई है. अरुण कमल ने लघु-पत्रिकाओं के सरोकारों को और अधिक व्यापक बताते हुए आलोचनात्मक और साहित्यिक विवेक की रक्षा का दायित्व भी इन्हीं पर सौंपा है.



राजीव रंजन गिरि तीसरे भाग ‘संगठन और उसका दायित्व’ में तथ्यों के साथ अपनी बात रखते हुए इस आन्दोलन की प्रवृतियों और निर्माण की परिस्थितियों के साथ-साथ इससे जुडी प्रतिबद्धताओं को भी इंगित करते चलते हैं. समय-समय पर वैचारिक क्रान्ति को लघु-पत्रिकाओं ने आधार प्रदान किया जिसके लिए इनका यह संज्ञान बचा रहना ज़रूरी था कि इनकी साहित्य समाज में क्यों ज़रूरत पड़ी तथा क्या ये अपने उद्देश्यों का, दायित्वों का निर्वहन कर रही हैं. इसके लिए समय-समय पर संगोष्ठियों का आयोजन किया जाने लगा. राष्ट्रीय स्तर पर ‘लघु-पत्रिका समन्वय समिति’ नाम से एक संगठन की घोषणा की गई जिसका दायित्व लघु-पत्रिकाओं के बीच तालमेल और साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करना था ताकि मौजूदा साहित्य-विरोधी माहौल की चुनौतियों का मिलकर सामना किया जा सके और एक नए सांस्कृतिक जागरण की ओर बढ़ने में मदद मिले. ‘लघु-पत्रिका समन्वय समिति’ ने चुनौतियों के रूप में पश्चिमी साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, भाषिक पृथकतावाद, उपभोक्तावाद एवं सांस्कृतिक प्रदूषण का विरोध करते हुए साहित्यिक समाज को साथ लेकर इनके खिलाफ साझी लड़ाई का संकल्प भी लिया. इसी प्रकार ‘आन्दोलन का आधार’ भाग में भी लेखक ने लघु पत्रिकाओं के विकास-क्रम को व्याख्यायित करते हुए इस आन्दोलन को किस मिशन के तहत चलाया गया पर प्रकाश डाला है. लेखक ने वीर भारत तलवार और शम्भुनाथ के विचारों को स्पष्ट किया है. बकौल शंभुनाथ “हमारे मुख्य निशाने पर हैं बड़े संचार-माध्यम और इनके द्वारा फैलाया जा रहा सांस्कृतिक प्रदूषण.. लघु-पत्रिकाओं का ही यह काम है कि पढ़ने की संस्कृति के संरक्षण के लिए पाठक चेतना अभियान चलाएँ. वे सांस्कृतिक प्रदूषण का विरोध करें. इसके अलावा हमारे मुख्य निशाने पर हैं, सांप्रदायिक-जातिवादी पुनरुत्थान की ताकतें. हमें लड़ना है बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद और नए अंग्रेजीकरण से. लघु-पत्रिका आंदोलन के ये ही प्रमुख आधार हैं.”



'स्वायत्तता के साथ सहयात्रा में बिखराव' भाग में समन्वय समिति के उद्देश्यों में आये बिखराव के स्पष्ट संकेत मिलते हैं. समिति के संयुक्त संयोजक शंभुनाथ ने सम्मेलन में कहा कि 'हमारे जमाने की एक बड़ी विडंबना है कि संवाद के अत्याधुनिक साधन जितने बढ़ते जा रहे हैं, समाज में संवादहीनता भी बढ़ती जा रही है और लघु-पत्रिकाओं के संपादकों-लेखकों के बीच तो यह चरम पर है. आज चुनौतियों और आंदोलन के मुद्दे जितने स्पष्ट हैं, दुर्भाग्यवश बिखराव उतना ही ज्यादा है.' शम्भु नाथ की इस बात के साथ एक बात ज़रूरी रूप से जो सामने आने लगी है वह यह भी है कि पहले पत्रिका निकालना एक मिशन था जो आज लगभग व्यवसाय हो गया है. लघु पत्रिका आंदोलन अपनी विरासत को पीछे छोड काफी आगे निकल चुका है. आज पत्रिका निकालकर अर्थ और सत्ता दोनों को एक साथ साधा जा सकता है. भले ही ये सवाल प्रच्छन्न रूप में हो किन्तु इन पर विचार करना आज के समय में अत्यंत आवश्यक हो गया है. यह दौर लघु पत्रिका आन्दोलन के लिए आत्ममंथन के साथ साथ स्वयं को वर्तमान चुनौतियों के लिए तैयार करने का भी है. शम्भुनाथ आन्दोलन संगोष्ठी में वक्तव्य देते हुए कहते भी हैं- 'यदि कहा जाए कि हमारे युग की चुनौतियाँ भारतेंदु, प्रेमचंद युग तथा साठ के दशक से अधिक व्यापक हैं तो हमें यह भी कहना चाहिए कि परंपराओं और संभावनाओं की भी हम ज्यादा उर्वर धरती पर खड़े हैं. आन्दोलन से जुडी राष्ट्रीय संगोष्ठी के सामने संभवतः मुख्य दायित्व यही है कि हम अपनी परंपराओं की उर्वर धरती को पहचानें और कठोर से कठोर आत्म समीक्षा से गुजरें”





बहरहाल यह कहा जा सकता है कि लघु-पत्रिका आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा सांस्कृतिक प्रदूषण से बचने के लिए वैकल्पिक मीडिया के रूप में खुद को स्थापित करना है. लेखक राजीव रंजन गिरि का यह शोध पत्र बेहद संजीदगी एवं विश्लेषणात्मक ढंग से लघु पत्रिका आन्दोलन की संरचना को समझने एवं उसके सरोकारों को व्याख्यायित करने की दिशा में लिखा गया एक बेहद कारगर एवं ज्ञानवर्द्धक शोधपरक लेख है जिसके द्वारा प्रतिगामी मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध एक वैचारिक आन्दोलन की पृष्ठभूमि से वाकिफ़ होने में मदद मिलती है.