Friday, May 23, 2014

सींखचों के पार..





जब से खुद को खुद से और खुद से दुनिया को देखने की एक नज़र पाई है, तब से आस-पास सबकुछ अव्यवस्थित-सा नज़र आता है आस-पास की आबोहवा इतनी जहरीली होती जाए कि सांस लेना दूभर हो जाए तो अपनी चेतना को बटोर कर बची-खुची सम्पूर्ण ताकत के साथ अंतिम प्रयास की ओर झोंक देना अंतिम विकल्प रह जाता है। आज़ाद भारत में नेतागीरी, समाजसेवा और आंदोलन करने वाले तो बहुत हैं. पर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध जताने के ‘जुर्म’ में इतना वक़्त क़ैद में किसी ने भी नहीं काटा है, जितना इरोम शर्मिला ने। इरोम के प्रति मैं भावनात्मक जुड़ाव महसूस करती हूँ संभव है कि इरोम पर बात करते हुए मैं अपने पूर्वग्रहों से मुक्त न रह सकूँ किन्तु अन्य भी इसे इसी रूप में ले ऐसा मैं दावा नहीं करती। किन्तु मेरे लिए इरोम चानू शर्मिला !! सिर्फ एक नाम नहीं !!! पिछले तेरह वर्षों से नाक में नली लगा हुआ एक शांत चेहरा, जिसे हम देखते आ रहे हैं, उस शांत चेहरे में भी इरोम का उत्कट आत्मविश्वास, अथक और बेमिसाल साहस और एक बेहद मानवीय आत्मा की पीड़ा को देखा-समझा जा सकता है, जिसने एक सामान्य तमाशबीन बनने से इनकार कर अन्याय के विरुद्ध शांतिपूर्ण ढंग से संघर्ष की ऐसी आवाज़ बुलंद की जो न केवल भारत में अपितु देश-विदेश तक में गूँजी। इरोम शर्मिला की भूख-हड़ताल संसार की सबसे लम्बी भूख-हड़ताल है. पर यह भारतीय लोकतंत्र के लिए गर्व की नहीं बेहिसाब शर्म की बात है। जो महात्मा गांधी का देश हो, जिनका आधार ही सत्याग्रह, अनशन, अहिंसा हो, वही देश इरोम के लिए इतना निर्दयी हो जाएगा यह समझ से परे है। यह मानवीय संवेदनाओं को टटोलने का समय है। 




इरोम ने जब भूख-हड़ताल की शुरुआत की थी, वे 28 साल की युवा थीं। कुछ लोगों को लगा था कि यह कदम एक युवा द्वारा भावुकता में उठाया गया है। लेकिन समय के साथ इरोम के इस संघर्ष की सच्चाई लोगों के सामने आती गई। आज वह एकतालीस साल की हो चुकी हैं। तमाम अवरोधों और मुश्किलों के बावजूद उनकी भूख-हड़ताल आज भी जारी है। भले ही इन वर्षों में इरोम का शरीर और अधिक जर्जर व कमजोर हुआ हो पर कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करने वाली उनकी आन्तरिक ताकत और इच्छाशक्ति बढ़ी है। इसीलिए इसे मात्र भावुकता नहीं कहा जा सकता है बल्कि यह पूर्वोत्तर भारत खासतौर से मणिपुर के ठोस यथार्थ की आँच में पका उनका विचार व दृढ इच्छा शक्ति है जिसके मूल में दमन और परतंत्रता के विरुद्ध दमितो, शोषितों,उत्पीडि़तों द्वारा स्वतंत्रता की दावेदारी है। इरोम शर्मिला के संघर्ष में हमें इसी दावेदारी की अभिव्यक्ति मिलती है। इसके अनन्तर में स्वतंत्रता की छटपटाहट और अदम्य साहस से लबरेज मृत्यु के आगे घुटने न टेकने वाली ताकत है। इसीलिए आज इरोम शर्मिला इस्पात की तरह न झुकने, न टूटने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ के रूप में जानी जाती हैं। 

बात दो नवम्बर 2000 की है। मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मिला एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई गईं। इसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये। यह सब इरोम शर्मिला को आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, दमन ढाया हो पर इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था। इस घटना के बाद इरोम को शान्ति रैली निकाल कर सत्‍ता की कार्रवाइयों का विरोध अपर्याप्त या अप्रासंगिक लगने लगा। लिहाजा उन्होंने ऐलान किया कि अब यह सब बर्दाश्त के बाहर है। यह तो निहत्थी जनता के विरुद्ध सत्‍ता का युद्ध है। उन्होंने माँग की कि मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्‍पा) हटाया जाए। इस एक माँग को लेकर उन्होंने नैतिक युद्ध छेड़ दिया। तीन नवम्बर की रात में आखिरी बार अन्न ग्रहण किया और चार नवम्बर की सुबह से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी। उन्होंने 4 नवंबर 2000 को अपना अनशन शुरू किया था, इस उम्मीद के साथ कि 1958 से अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, असम, नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में और 1990 से जम्मू-कश्मीर में लागू आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (एएफएसपीए) को हटाया जा सके। इस भूख हड़ताल के तीसरे दिन सरकार ने इरोम शर्मिला को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आत्महत्या करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। उन्हें नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जा रहा है। गौरतलब है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मिला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हें रिहा करने का नाटक किया जाता है। फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया जाता है और जीवन बचाने के नाम पर नाक से तरल पदार्थ देने का सिलसिला चलाया जाता है। यह हमारे लोकतंत्र की विडम्बना ही है कि एक तरफ इरोम शर्मिला की जान बचाने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर उनके नाक से तरल पदार्थ पहुँचाया जा रहा है, वहीं इरोम शर्मिला की माँग कि मणिपुर से अफस्‍पा को हटाया जाय, इस कानून की वजह से जो पीड़ित हैं, उन्हें न्याय दिया जाए तथा इसके लिए जिम्मेदार सैनिक अधिकारियों को दण्डित किया जाए जैसे मुद्दों पर विचार करने तक को सरकार तैयार नहीं है। इस कानून के प्रावधानों के तहत सेना को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके अन्तर्गत वह सन्देह के आधार पर बगैर वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। हमे इस क़ानून की पराकाष्ठा मणिपुर जैसे पूर्वोतर राज्यों में देखने को मिलती है जहाँ ‘आफस्‍पा’ शासन के 53 वर्षों में बीस हजार से ज्यादा नागरिकों को अपनी जानें गंवानी पड़ी है। इसी की देन एक तरफ अपमान, बलात्कार, गिरफ्तारी व हत्या है तो दूसरी तरफ तीव्र घृणा, आत्मदाह, आत्महत्या, असन्तोष व आक्रोश का विस्फोट है। इरोम का संघर्ष आज तक बदस्तूर जारी है। वह न थकी है न पीछे हटने को राज़ी है, इरोम प्रण पर है कि जब तक यह क़ानून बर्खास्त नहीं किया जाएगा वे पानी की एक बूँद तक नहीं लेंगी। 




वास्तविकता तो यह है कि इरोम शर्मिला का यह संघर्ष हमारे लोकतंत्र के खंडित चेहरे को सामने लाता है। यह राज्य-व्यवस्था से लेकर हमारी न्याय-व्यवस्था तक को कठघरे में खड़ा करता है। जहाँ गांधी को अनशन और आंदोलन की स्वतंत्रता मिली, जहाँ हाल ही में अन्ना हज़ारे को भ्रष्टाचार के विरुद्ध इतने विस्तृत पटल पर अनशन और आंदोलन की स्वतंत्रता मिली, वहां इरोम के साथ ऐसा भेदभाव क्यों। विडंबना है कि सरकार ,प्रशासन , मीडिया और समाज तक इरोम के प्रति उपेक्षित है। लगता है यह देश संवेदना की भाषा भूल चुका है। बहरहाल महत्वपूर्ण है इरोम की इच्छाशक्ति, जिसने घुटने नहीं टेके, इस अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध। इरोम कहती भी हैं - "मैं शांति और इंसाफ चाहती हूं। मेरा आंदोलन अहिंसात्मक है तथा आफ्सफा को खत्म करने के लिए है। आफ्सफा जैसे कानून को खत्म कर दिया जाय, मैं अपना आंदोलन समाप्त कर दूंगी।" इरोम अपनी इस भावना को अपनी कविता में भी अभिव्यक्त करती है: ‘कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो/मैं और किसी राह पर नहीं जाऊँगी/ काँटों की बेडि़याँ खोल दो/होने दो मुझे अंधियार का उजाला’।




( इस लेख को लिखने का उद्देश्य मैगज़ीन के लिए एक लेख लिखना भर नहीं रहा, यह इच्छा रही की सत्ता की आक्रान्ताओं के बीच नियमों की आड़ में हो रहे अन्याय की शिनाख्त के साथ-साथ पड़ताल भी आने वाली पीढ़ी कर सके, इरोम शर्मिला, मनोरमा, सोनी सौरी जैसे नामों से तथा इनके साथ होने वाले अत्याचारों के प्रति मीडिया की दूरी के विरुद्ध आप तक पहुँचने के एक विकल्प के रूप में इसका प्रयोग किया गया है। )




-- (इस लेख को लिखने में एक्टिविस्ट कौशल किशोर के इरोम शर्मिला पर लिखे तथ्यपरक लेख से सहायता ली गई है। ) 







अनुपमा शर्मा 

एम.ए हिंदी उत्तरार्द्ध