सपने हैं, सपने देखने वाली आँखें हैं और उन स्वप्निल आँखों में है- स्वप्न में जीवन या जीवन में स्वप्न की उधेड़बुन। बस इसी उधेड़बुन से लड़ती और जूझती हुई ...
Sunday, June 16, 2013
तलाश
निकली हूँ एक नई खोज में
नए सृजन में
नए निर्माण में
एक नई भाषा की तलाश में
जो निर्मित होगी मुझसे
पहुंचेगी केवल तुम तक
जिसमें होंगे
हमारे बोल, हमारे शब्द
हमारे भाव और हमारे अर्थ
उस नियामकता के
केवल दो सिरे होंगे
जो एक ऐसी भाषा तलाशेंगे
जिसमे ताजगी हो
स्फूर्ति हो
समर्थता हो
सक्षमता हो
संवेदना हो
शब्दों की थकान न हो
भाषा का बोझ न हो
दो अर्थ का भय न हो
खोये अक्षरों की ढूंढ न हो
बस विनिमय हो
उत्ताल तरंगों-सा।
*दो अर्थ का भय न हो
( रघुवीर सहाय जी से साभार )
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