Wednesday, February 6, 2019

परस्पर भाषा-साहित्य-आंदोलन



परस्पर
भाषा-साहित्य-आंदोलन


हाल ही के वर्षों से रजा फाउंडेशन ने प्रसिद्ध चित्रकार एवं कलाकार सैयद हैदर रजा की कला एवं हिंदी साहित्य में रुचि एवं साहित्य- समाज के प्रति चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, उन चिंताओं एवं विचारों को दिशा देते हुए हिंदी में कुछ नए किस्म की पुस्तकें प्रकाशित करने की पहल की है । इसे ‘रजा पुस्तक माला’ के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । इसके अंतर्गत गांधी, संस्कृति चिंतन, संवाद, भारतीय भाषाओं से विशेषतः कला चिंतन के हिंदी अनुवाद,कविता आदि की पुस्तकें शामिल की जा रही है । इसी श्रृंखला के प्रकाशन के दौरान पिछले दिनों युवा आलोचक राजीव रंजन गिरि की राजकमल प्रकाशन के माध्यम से ‘परस्पर – भाषा-साहित्य-आंदोलन’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ जोकि हिंदी साहित्य की प्रचुर लंबी यात्रा के दौरान हुए भाषा-साहित्य-आंदोलन के ‘बिटवीन द लाइंस’ को खोलने का प्रयास करती हैं । यह महज़ पुस्तक भर नहीं बल्कि तमाम शोधों एवं संदर्भों से लैस एक ऐसी पुस्तक है जो भरपूर खोजबीन एवं अनुसंधान प्रवृत्ति के साथ लिखी गई है ।


इस शोध एवं तथ्यात्मक प्रवृति का बीते कुछ समय से साहित्य में अभाव सा रहा है । यह पुस्तक भारतीय समाज के भाषा आंदोलन से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल करती है । इसकी भूमिका में अशोक वाजपेयी जी ने लिखा है कि “हिंदी भाषा का विमर्श और संघर्ष लंबा है, लेकिन अभाग्यवश हमारा निपट वर्तमान पर आग्रह इतना इकहरा हो गया है कि उसकी परंपरा को भूल ही जाते हैं । युवा चिंतनशील आलोचक ने विस्तार से इस विमर्श और संघर्ष के कई पहलू उजागर करने की कोशिश की है और कई विवादों का विवरण भी सटीक ढंग से किया है ।”


देखा जाए तो हम एक बहुभाषी समाज का हिस्सा है इसे गत समय में एक समस्या के रूप में देखा जाने लगा था,जिसके चलते साहित्य में भाषा सम्बन्धी बहस का एक पूरा बड़ा मुद्दा आन्दोलन के रूप में उठ खड़ा हुआ, किन्तु बहुभाषीय विविधता को भारतीय समाज की एक समस्या नहीं बल्कि एक समाधान के रूप में देखे जाने की ज़रूरत थी । इस पुस्तक में संकलित शोध निबंध इसी बात की स्थापना करते हैं कि किस प्रकार भाषाई अस्मिता समाज को प्रभावित करती है तथा आधुनिकता की ज़मीन तैयार करती है । इस पुस्तक में तीन शोध निबंध हैं - ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद’ , राष्ट्र निर्माण, संविधान सभा और भाषा विमर्श तथा ‘बीच बहस में लघु पत्रिकाएं: आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ । ये तीनों शोध निबंध बड़े फलक पर भाषा संबंधी बहसों को उठाते एवं उनका विश्लेषण करते हैं ।


इस पुस्तक में शामिल तीनों शोध निबंध अंतराल पर लिखे गए निबंध हैं । ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद’ तद्भव पत्रिका में वर्ष 2006 में, राष्ट्र निर्माण, संविधान सभा और भाषा विमर्श वाक् पत्रिका में 2014 में तथा ‘बीच बहस में लघु पत्रिकाएं: आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ प्रतिमान के 2013 के अंक में प्रकाशित हुए । इस लंबे अंतराल के बावजूद आलोचक राजीव रंजन गिरि के ये लेख एकसूत्रता में कालक्रम की निरंतरता में उठी भाषा बहसों को चिह्नित करते चलते हैं । 


पहला शोध निबंध ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद पर केंद्रित है । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भाषाओं के बीच तनाव भरा रिश्ता हो चला था । हिंदी-उर्दू और ब्रजभाषा-हिंदी के बीच एक अंतर्विरोधी संबंध बन गया था जिसमें ब्रजभाषा को ‘भाषा’ तथा हिंदी जिसे ‘खड़ी बोली’ कहते थे उसे ‘बोली’ के चश्मे से देखा जाने लगा । इन दोनों के बीच बहस-मुबाहिसे और बदलती परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि खड़ी बोली हिंदी साहित्य की ‘भाषा’ बन गई और ब्रजभाषा मात्र एक बोली के रूप में तब्दील होकर रह गई । स्मरण रखना होगा कि साहित्य भी एक तरह की सत्ता संरचना का निर्माण करता है । कोई भी भाषा यदि केंद्रीय भाषा बनती है तो वह अपने समय के तमाम अंतर्विरोध को अपने में समाहित किए हुए होती है । भाषा को ‘बोली’ और बोली को ‘भाषा’ में रूपांतरित करने का कारक बोली अथवा भाषा का आंतरिक चरित्र नहीं होता, बल्कि इसे बाह्य परिस्थितियां निर्धारित करती हैं । बदलते भू राजनीतिक आर्थिक माहौल के माकूल खड़ी बोली ने स्वयं को सिद्ध किया था । बोली के रूप में खड़ीबोली भले ही पहले से मौजूद थी किन्तु उसी दौर में वह स्वयं को भाषा के रूप में आधुनिकता के साथ विकसित करते हुए हिंदी की नई परिस्थितियों का सामना करने के साथ-साथ खुद को उस बदले माहौल के मुताबिक अनुकूलित भी कर रही थी । इसलिए भी उसकी सामर्थ्य में इजाफा हो रहा था । यही वजह है कि तत्कालीन साहित्यकार- पत्रकार नई चुनौतियों के सहयोग से उत्पन्न परिस्थितियों में अपने विचार की अभिव्यक्ति इसी भाषा में कर रहे थे । एक ओर यह नई दिशा में बढ़ता कदम था । ब्रज भाषा में काव्य-रचना की परंपरा भी साथ-साथ चल रही थी । धीरे-धीरे जहां हिंदी की व्याप्ति बढ़कर राष्ट्रीय फलक तक पहुंच गई थी, वहीं ब्रजभाषा जनपद तक सिमट गई । आलोचक राजीव रंजन गिरि ने इन सभी तात्कालिक अंतर्विरोधों का भरपूर विश्लेषण किया है । उन्होंने अयोध्या प्रसाद खत्री के भाषा आन्दोलन से इस यात्रा को शुरू कर राधाचरण गोस्वामी, राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र-भारतेंदु के भाषा आन्दोलन का विश्लेषण किया है । 


दूसरा शोध निबंध ‘राष्ट्र-निर्माण, संविधान सभा और भाषा विमर्श में आलोचक राजीव रंजन गिरि ने संवैधानिक भाषाई स्थितियों का ब्यौरा देते हुए जनपदीय भाषाओं की अस्मिता बचाने और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए होने वाले प्रयासों का विश्लेषण किया है । हिंदी और इसकी जनपदीय भाषाओं के बीच संबंधों की समस्या ‘राजभाषा’ के रूप में मान्यता मिलने के बाद दिखनी शुरू होती है । इस निबंध में किए गए अध्ययन जनपदीय भाषाओं के ऊपर आए संकटों को बताते हैं । ऐसे में अन्तःकलह होना स्वाभाविक है साथ ही अपनी अस्मिता को बचाने के लिए इन जनपदीय भाषाओं द्वारा हिंदी के बरअक्स अपने को स्थापित करने की जद्दोजहद होना भी स्वाभाविक ही है । इन जनपदीय भाषाओं की अस्मिता बचाने और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए जब-तब कुछ भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग होती रहती है । इसी क्रम में संविधान की आठवीं अनुसूची में समय-समय पर कुछ भाषाओं को जोड़ा जाता रहा है । जिस दौरान भारत का संविधान बन रहा था, संविधान की आठवीं अनुसूची के मूल प्रस्ताव में सिर्फ 12 भाषाओं को जगह दी गई थी - हिंदी, बांग्ला, पंजाबी, तमिल, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, उड़िया, असमी, कश्मीरी, मराठी और गुजराती । संविधान सभा की भाषा-बहसों के दौरान पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहल पर इसमें उर्दू को भी शामिल किया गया तथा के एम मुंशी जी के आग्रह पर संस्कृत को शामिल किया गया । स्मरणीय तथ्य यह भी है कि संविधान सभा की बहसों के दौरान इसके एक सदस्य जयपाल सिंह के जोर देने के बावजूद किसी भी आदिवासी भाषा को अनुसूची में शामिल नहीं किया गया जबकि उन्होंने 176 आदिवासी भाषाओं में से केवल तीन को ही अनुसूची में शामिल करने की मांग की थी । यह उस दौर के भाषाई तनाव का ही नतीज़ा था ।


आलोचक राजीव रंजन गिरि ने विस्तार से राष्ट्र-निर्माण तथा राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता की पूर्वपीठिका को विश्लेषित करते हुए आठवीं अनुसूची में ली गई भाषाएं एवं उसमें शामिल होने के लिए जद्दोज़हद कर रही भाषाओं की अकुलाहट को व्यक्त किया है । उन्होंने हिंदी और जनपदीय भाषाओं के अंतर्संबंध की समस्याओं के आरंभिक बिंदुओं की भी भली-भांति विवेचना की है । लेखक ने जनपदीय भाषाओं के विकास की विवेचना करते हुए यह तर्क भी स्थापित किया है कि एक लोकतांत्रिक समाज के बीच हिंदी की जनपदीय भाषाओं की अस्मिताओं को दबाना लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना है । इतिहास में दर्ज़ भी है कि जब-जब अस्मिताओं को दबाया गया है, तब-तब वे लंबी अकुलाहट एवं दमन के बाद विस्फोट के रूप में सामने आई हैं । भले से अभी के लिए यह तर्क गढ़ लिए जाए कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए अकुलाई ये बोलियां अभी अपनी अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है किंतु इतिहास इस बात का भी गवाह है कि अंग्रेजी भाषी राज में हिंदी की भी यही स्थिति हो गई थी, इससे कुछ कमतर नहीं ।


इस पुस्तक की एक बड़ी उपलब्धि इसका तीसरा शोध निबंध है । जिस दौर में भारतीय साहित्य समाज की निष्क्रियता से क्षुब्ध मुक्तिबोध लिख रहे थे - ‘सब चुप, साहित्यिक चुप हैं और कविजन निर्वाक/ चिंतक, शिल्पकार,नर्तक चुप हैं’ - इस चुप की पहचान कर उसी दौर में भारतीय समाज का एक और क्षुब्ध वर्ग प्रयोगशील एवं प्रतिरोधी रुख अपना रहा था । सामाजिक व्यवस्था और साहित्यिक जगत से असंतुष्ट यह पीढी वैचारिक रूप से व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्षरत थी, इन्हें सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाएं अपने यहाँ बहुत महत्व नहीं देती थीं । परिणामस्वरूप इन लोगों ने अपनी अभिव्यक्ति को स्वर देने के लिए अपने स्तर पर पत्रिकाएं निकालनी प्रारम्भ की । यहीं से लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हुई. इस लघु पत्रिका आन्दोलन की विकास यात्रा को समझने के लिए लेखक राजीव रंजन गिरि का प्रचुर परिश्रम से लिखा गया यह शोध-निबंध ‘लघु-पत्रिकाएं : आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ बेहद उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक लेख है. यह लेख सौ से अधिक सन्दर्भों-तथ्यों की मदद से बेहद तार्किक एवं विश्लेषणात्मक ढंग से लिखा गया है । चूँकि हिंदी साहित्य की वैचारिक और सामाजिक सरोकारों वाली उद्देश्यपूर्ण रचनात्मकता के संरक्षण, संव‌र्द्धन और पोषण में लघु पत्रिकाओं की ऐतिहासिक भूमिका रही है । ये पत्रिकाएं एक मुहिम के तौर पर निकाली गई जिसकी एक लम्बी परम्परा बीसवीं सदी के उतरार्द्ध से प्रारम्भ होकर आज तक की यात्रा तय कर रही है । लेखक का मानना भी है कि “हिंदी साहित्य के अतीत और वर्तमान को पहचानने और विश्लेषित करने की कोई भी कोशिश, लघु-पत्रिकाओं की दुनिया पर नजर डाले बिना, पूरी नहीं हो सकती.” राजीव रंजन गिरि का यह लेख विचारधारा, प्रतिबद्धता, प्रतिरोध, समाज-रचना, व्यावसायिकता और रचनाशीलता जैसे प्रत्ययों में संशोधन की माँग के बीच में लघु पत्रिका संप्रत्यय तथा इसके सरोकारों से जुड़े सवालों की ज़रूरी पड़ताल करता है । 


आजादी के बाद भाषा-विमर्श में साहित्यिक लघु पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है । छोटे स्तर पर किए गए व्यक्तिगत प्रयास एवं भले ही अनियमित रूप से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं ने सांस्कृतिक-बौद्धिक वातावरण को मजबूत बनाया है । चेतना व ज्ञान निर्माण में इन पत्रिकाओं की महती भूमिका रही है । सूचना क्रांति से पहले बौद्धिक संवाद-संचार का काम यही पत्रिकाएं करती थी । छोटे शहरों-कस्बों से प्रकाशित होने वाली इन पत्रिकाओं ने रचनाकारों की एक बड़ी ज़मात भी पैदा की है । आलोचक ने प्रचलित धारणाओं पर विचार-विश्लेषण करते हुए इस आन्दोलन की वर्तमान स्थिति का जायज़ा भी लिया है । यह शोध-पत्र पाँच भागों परिभाषा का प्रश्न, आन्दोलन का निर्माण, संगठन और उसका दायित्व, आन्दोलन का आधार तथा स्वायत्तता के साथ सहयात्रा में बिखराव में विभक्त है, जिनमें बारी-बारी से भले ही इस आन्दोलन की ज़रूरत पर विचार किया गया हो किन्तु चिन्तन के केंद्र में मूलतः इससे जुड़े दायित्व एवं प्रतिबद्धताएँ ही हैं ।


बहरहाल यह कहा जा सकता है कि लघु-पत्रिका आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा सांस्कृतिक प्रदूषण से बचने के लिए वैकल्पिक मीडिया के रूप में खुद को स्थापित करना है । लेखक राजीव रंजन गिरि का यह शोध पत्र बेहद संजीदगी एवं विश्लेषणात्मक ढंग से लघु पत्रिका आन्दोलन की संरचना को समझने एवं उसके सरोकारों को व्याख्यायित करने की दिशा में लिखा गया एक बेहद कारगर एवं ज्ञानवर्द्धक शोधपरक लेख है जिसके द्वारा प्रतिगामी मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध एक वैचारिक आन्दोलन की पृष्ठभूमि से वाकिफ़ होने में मदद मिलती है ।


राजीव रंजन गिरि की यह पुस्तक शोधपरक लेख लिखने की दिशा में प्रेरणा देती पुस्तक है । राजीव रंजन गिरि ने इतिहास की तह से प्रचुर शोध ग्रंथों से सामग्री इकट्ठी कर उनको प्रखर एवं संपन्न आलोचनात्मक दृष्टि से विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, यह एक तथ्यों की अपार सम्पदा से लैस एक बेहद महत्वपूर्ण एवं पठनीय पुस्तक है ।


पुस्तक - परस्पर भाषा-साहित्य आन्दोलन
लेखक - राजीव रंजन गिरि
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन
मूल्य - 595/- रूपए

**राष्ट्रीय सहारा 14 अप्रैल 2019 में प्रकाशित