Sunday, September 27, 2015

उड़ान की अकुलाहट



प्रेमचंद ने वर्षों पहले कहा था कि कोई भी समाज तब तक विकास या प्रगति नहीं कर सकता जब तक उस समाज के किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की दशा नहीं सुधरती। उन्हें मनुष्य नहीं माना जाता, प्रेमचंद के इस कहन की जबकि हम हीरक जयंती मना चुके हैं तब भी स्थिति यह है कि हाशिए की पट्टी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है. मुक्ति की चाह लिए हुए समाज का यह हिस्सा आज भी शोषण-अन्याय से पीड़ित है. जब पंछी धरती के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध अपनी पहली उड़ान भरता है तब जिस ऊर्जा से वह संचालित होता है, वह होती है - मुक्ति की चाह और उड़ान की अकुलाहट. समाज के इस हिस्से की आँखों में आज भी मुक्ति का स्वप्न और उन्मुक्त आकाश में उड़ पाने की अकुलाहट बनी हुई है. आलोचक राजीव रंजन गिरी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘अथ साहित्य पाठ और प्रसंग’ पढ़ी जिसका छठा खंड है- ‘उड़ान की अकुलाहट’ यह मुख्यतः स्त्री-दलित विमर्श पर केंद्रित खंड है। जिसमें आठ लेखों के माध्यम से पितृसत्तात्मक संरचना के बीच में गढ़ती नई स्त्री छवि का बारीक़ी से विश्लेषण करने के साथ-साथ दलित अस्मिताओं पर भी विचार किया गया है. महादेवी वर्मा, पंचतंत्र, बेबी हालदार पर आधारित आलेखों के अलावा अरूण कमल की कविता पर आधारित आलेख लेखक की स्त्री विमर्श पर गहरी पकड़ को दर्शाते हैं. 'मुक्ति-आकांक्षा की रचनाकार' लेख जिसमें महादेवी वर्मा की रचनाओं की बाबत कई अनसुलझे सवालों पर गौर किया गया है. एक लम्बे इतिहास की पैठ में महादेवी को जिस स्टीरियो में क़ैद कर दिया गया तथा "मैं नीर भरी दुःख की बदली" तक ही सीमित कर दिया गया, जबकि वे अपने विचारों में स्त्री पराधीनता को, उनके मुक्ति के स्वप्न को चरम पर रखती हैं. ऐसे में महादेवी को पढ़ने की एक नई दृष्टि प्रस्तावित करना काबिलेगौर है. महादेवी को स्त्री अधिकारों के पक्षधर के रूप में इस आलोक में देखने की कोशिश करना कि जिस समय वे 'श्रृंखला की कड़ियाँ' लिख रही थीं उस समय कालांतर में स्त्री मुक्ति का बिगुल बजाने वाली सिमोन द बोउवार महज़ बच्ची थीं, भी महादेवी के विचारों के विश्लेषण, अंतर्विरोधों एवं सीमाओं को जानने-समझने का प्रस्थान बिंदु हो सकता है. लेखक अपने इन लेखों में उन सभी पशोपेशों से गुज़रता नज़र आता है जिनसे होकर एक स्त्रीत्व गुज़रता है. 'सौंदर्य का मिथक निर्माण' लेख में स्त्री छवि से लेकर सेक्स और जेंडर की तमाम तरह की बहसें समाहित हैं जो स्त्री को कभी बायोलॉजिकल कन्स्ट्रक्ट मानती है तो कभी सोशियोलॉजिकल. ग़ौर करने पर दिखता है कि पितृसत्ता ने जेंडर को भी प्राकृतिक, स्वाभाविक गुण के रूप में प्रचारित किया है असल मायने में स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी चुनौती स्त्री मुक्ति के लिए इसी 'जेंडर' से मुक्ति है. 


बकौल लेखक ‘‘पितृसत्तात्मक संरचना अपने को नये रूप में ढ़ालकर स्त्री-देह का वस्तुकरण कर रही है। संभव है इसके पक्ष में ऊ परी तौर पर स्त्री की मर्जी भी दिखे। पर सोचने की बात है कि इस ‘मर्जी’ को कौन सी सत्ता परिचालित कर रही है, नियंत्रित कर रही है? लिहाजा पितृसत्ता की दहलीज को खुद लॉंघने के बावजूद स्त्री-देह किसके नियंत्रण में है, कौन सी ताकत इस दिशा में ठेल रही है, यह पहलू नजरअंदाज करके स्त्री-मुक्ति का न तो यथार्थ समझा जा सकता है और न ही यूटोपिया की रचना हो सकती है’’ स्त्री मुक्ति पर ही लिखा हुआ लेख ‘स्वप्न भी एक शुरुआत है’ भी अरुण कमल की कविता ‘स्वप्न’ को आधार बनाकर कविता जगत में स्त्रीवादी दृष्टिकोण एवं स्त्री मुक्ति के विषय पर हस्तक्षेप करता एवं साथ ही ‘सेक्स’ और ‘जेंडर’ की धारणाओं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रकट करता लेख है. जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के बीच स्त्री की जद्दोजेहद प्रकट होती है. अरुण कमल की कविता में एक स्त्री है जो बार-बार ससुराल से मार खाकर भागती है और फिर अँधेरा होने पर उसी जगह लौट आती है और फिर मार खाती है. इस लेख में मुक्ति का स्वप्न है, जिसमें स्त्री जीवन से मृत्यु की ओर नहीं अपितु मृत्यु से जीवन की ओर भाग रही है. इसकी पंक्तियाँ भी हैं- "मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न और बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न." इस कविता में स्त्री के पास कहीं कोई रास्ता नहीं है और कहीं कोई अंतिम विकल्प के रूप में आसरा भी नही. ज़ाहिर है उसे अपना रास्ता खुद बनाना होगा, विकल्पहीनता में खुद विकल्प बनकर उभरना होगा. भले ही आज वह यूटोपिया लगे पर इस उम्मीद के साथ कि कल यह हकीक़त होगा. इस लेख के अंत में वेणु गोपाल की एक कविता उदधृत है- “न हो कुछ भी/ सिर्फ सपना हो/ तो भी हो सकती है शुरुआत/ और यह एक शुरुआत ही तो है/ कि वहां एक सपना है.”


‘उड़ान की अकुलाहट’ में स्त्री विषयक एवं दलित विमर्श से जुड़े लेख हैं ‘अबकी जाना बहुरि नहीं आना’ शीर्षक अध्याय दलित और स्त्री आत्मकथाओं पर केंद्रित है जिसमें बेबी हालदार के रोज़नामचे के रूप में लिखी आत्मकथा के बहाने परिवार के भीतर पनपने वाली उपनिवेशवादी मानसिकता को बेबाक़ी से उघाड़ा गया है. 'यातना का यथार्थ और मुक्ति का स्वप्न'लेख भी दलित आत्मकथाओं पर केंद्रित लेख है. कुल मिलाकर राजीव रंजन गिरी के लिखे ये सभी स्त्री एवं दलित विषयक लेख यातना और दंश के कटु यथार्थ और इससे मुक्ति के स्वप्न को चित्रित करते हैं. ये लेख जिस उम्मीद से लिखे गए हैं वो है इन्सान को इन्सान समझे जाने की उम्मीद, शोषण से मुक्त समाज का स्वप्न लिए हुए जहाँ सभी के लिए समान रूप से उड़ान के लिए अथाह एवं उन्मुक्त आकाश हो, हाशिया बनाने के लिए जगह न हो.

2014

आज तुम बड़े याद आए
कुछ किताबों में बसी
तुम्हारी खुशबू की मानिंद....!!

2013

तमाम अनिश्चिंतताओं निराशाओं में
नफ़रत से रिसते मवाद में
जीने को अभिशप्त हो चुके हैं
पर
नाउम्मीदी के इस अंधड़ में भी
ज़िंदा रखी है उम्मीद की लौ..!

2013



चलते चलते थक चुके हैं
चुभती धूप
गर्म हवा के थपेड़े
दूर दूर तक कोई दरख़्त नहीं
छाँव का निशाँ नहीं
ज़मीन से निकलते भभके से तलवे जल रहे हैं
फिर भी चले जा रहे हैं
जाने किस मृग मरीचिका के सहारे..!

2012

उसे जीना था
इसीलिए मर गया
और मरकर भी जी गया /
मैंने चुना तिल तिल मरना
इसलिए जी रही हूँ..!

2012

जब मिलन का क्षितिज हो जाता है आँखों से ओझल
तब जीवन जीना भी बन जाता है खुद पर बोझल
तुम क्या जानो क्या होता है
जब जीवन की हर आस मिट जाती है
हर इच्छा के पूरी होने से पहले ही साध चुक जाती है
तुमने जब तक चाहा घूमें आँखों के इन गलियारों में
जब मन भर गया दुनिया बसा ली कहीं और ही के चाँद सितारों में..!

सिर्फ़ एक आवाज़

प्रेमचन्द 
वैचारिकी के स्तर पर देखा जाए तो आज की पैर तले की ज़मीन, जिस पर हम खड़े हैं, उसकी उर्वरा को मापने के लिए पीछे मुड़कर झाँकना ज़रूरी हो जाता है कि हमने अपनी यात्रा कहाँ से शुरू की थी, क्या उसकी बंज़र और उर्वरा के प्रतिशत में कुछ घटा-बढ़ा है। पिछले दिनों आलोचक राजीव रंजन गिरी के सम्पादन में आया कहानी संकलन 'सिर्फ़ एक आवाज़: प्रेमचंद रचित दलित जीवन की कहानियाँ' भी आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा ही प्रयास करता संकलन है. एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं। साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है। बीसवीं शताब्दी के साहित्य का विशेष महत्व इसलिए भी है कि कुलीनता और अभिजात्य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य की पीड़ा-दर्द को समझने की चेष्टा की , साथ ही अस्मिताओं के लिए किए गए संघर्ष को भी अपने साहित्य का प्रतिपाद्य बनाया। प्रेमचंद ने वर्षों पहले कहा था कि कोई भी समाज तब तक विकास या प्रगति नहीं कर सकता जब तक उस समाज के किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की दशा नहीं सुधरती। उन्हें मनुष्य नहीं माना जाता, प्रेमचंद के इस कहन के अरसे बाद भी स्थिति यह है कि हाशिए की पट्टी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है. मुक्ति की चाह लिए हुए समाज का यह हिस्सा आज भी शोषण-अन्याय से पीड़ित है. 


राजीव रंजन गिरी ने इस पुस्तक में प्रेमचंद रचित दलित जीवन से जुडी सोलह कहानियों का संकलन किया है जिसमें प्रेमचंद की दलित जीवन से जुडी पहली कहानी  'दोनों तरफ से' से लेकर अंतिम कहानी 'जुरमाना' तक सम्मिलित की गयी है। इन कहानियों को प्रकाशन वर्ष के क्रम में ही रखा गया है. संपादक का यह प्रयास इसलिए भी सराहनीय है चूँकि इससे प्रेमचंद की दलित दृष्टि के  विकास का भी पता चलता है। ये कहानियाँ कई नए आयाम भी खोलती चलती है जो कहानी  एवं इसके पात्रों को सामाजिक एवं राजनीतिक संरचना के बीच रख कर देखती है. ये कहानियाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की दिशा में भी एक सराहनीय प्रयास है.  इस संकलन की प्रस्तावना लिखते हुए राजीव रंजन गिरि ने प्रेमचंद के दौर की स्थितियों को राजनीतिक स्तर पर विश्लेषित किया है. एक ओर जहाँ भारतीय समाज औपनिवेशिक गुलामी से त्रस्त था वहीं दूसरी ओर भारतीय शोषणमूलक संरचना जाति-व्यवस्था और उसके भीतर दलितों की पराधीनता भारतीय समाज को आतंरिक रूप से गुलाम बना रही थी. आलोचक राजीव रंजन गिरी ने इन कहानियों में प्रेमचंद की दलित जीवन को देखने की दृष्टि के विकास को उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में गांधी एवं डॉ अम्बेडकर की दलित शोषण एवं जाति व्यवस्था के विरुद्ध सक्रियता के सापेक्ष रखकर देखने का प्रयास किया है. इस पुस्तक के संपादक ने कहा भी है कि- "प्रेमचंद के ज्यादातर दलित सवाल और दलित जीवन से जुड़ी हुई रचनाएँ डॉ अम्बेडकर की अपेक्षा गाँधीजी  के विचारों के करीब हैं." भले ही संपादक ने अध्ययन-विश्लेषण करते हुए प्रेमचंद को अम्बेडकर के बरअक्स गांधी से अधिक निकट एवं प्रभावित पाया हो किन्तु उसने साथ ही यह भी कहा है कि "डॉ अम्बेडकर ने पहली बार जाति-प्रथा को छुआछूत से जोड़ा। इन्होने  छुआछूत के सवाल को दलितों का राजनीतिक सवाल बनाया।." गौरतलब है कि भारत में जाति-व्यवस्था के विरुद्ध दलितों के जागरण के लिए विचार और आंदोलन के स्तर पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयत्न  डॉ अम्बेडकर ने किया था। प्रेमचंद की नज़र आंबेडकर के आंदोलन पर भी थी।  1927 में अम्बेडकर ने जातिवादी भेदभाव के विरुद्ध पहला जन-आंदोलन खड़ा किया था, ध्यातव्य हो कि प्रेमचंद के 1927 के बाद के  कथा-साहित्य में दलित समस्या की उपस्थिति बराबर बनी रही और निरन्तर बढ़ती गई। 

प्रेमचंद ने कहीं न कहीं अम्बेडकर के आंदोलन से प्रेरणा लेकर 'ठाकुर का कुआँ' नाम की महत्वपूर्ण कहानी लिखी। इसके साथ ही 'सद्गति' और 'दूध का दाम' जैसी कहानियों में दलितों के दारुण शोषण और दमन का बखूबी चित्रण किया।  प्रेमचंद की दलित जीवन और सवालों से जुड़ी जिन कहानियों को शिद्दत से याद किया जाता है, वे सभी भारतीय राजनीति में डॉ अम्बेडकर की सक्रियता के बाद की हैं. दलित सवालों पर केंद्रित प्रेमचंद की चार बेहद  महत्वपूर्ण कहानियाँ मन्दिर, सद्गति, ठाकुर का कुआँ, और दूध का दाम हैं. दलित जीवन से संबंधित प्रेमचंद की इन सभी रचनाओं में दो बातें समान हैं- दलित पात्रों की आर्थिक और सामाजिक बदहाली। बकौल संपादक इनकी आर्थिक बदहाली इस सामाजिक व्यवस्था की अनिवार्य परिणति  है।  आर्थिक और सामाजिक बदहाली का अनिवार्य रिश्ता है।  प्रेमचंद के पात्र इन दोनों शोषण के शिकार हैं।  दोनों से निकले बिना इनकी हालत में सुधार सम्भव नहीं है। 

राजीव रंजन गिरि 
संपादक राजीव रंजन गिरि ने इसी क्रम में यह भी कहा है कि "प्रेमचंद के दलित पात्रों का वैचारिक विकास हुआ है।" यदि देखा जाए तो प्रेमचंद की शुरूआती कहानियों में दलित जीवन को एक समस्या या मुद्दे के रूप में उठाया गया है जो कहीं न कहीं रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य की कड़ी में जुड़ता आर्य समाज सुधार से पोषित नज़र आता है परन्तु धीरे-धीरे प्रेमचंद के पात्र अपने साथ हो रहे अन्याय और शोषण की शिनाख़्त करते हैं और अंत तक आते आते प्रतिरोध दर्ज़ कराना सीख जाते हैं. विकास का यही क्रम होता है कि कोई भी व्यक्ति अन्याय एवं शोषण केवल तभी तक सहन कर सकता है जब तक उसकी चेतना इसकी पहचान और संज्ञान न कर ले। जहाँ प्रेमचंद की शुरूआती कहानी 'सिर्फ एक आवाज़', जो पुस्तक का शीर्षक भी है, में संन्यासी गैर दलित समाज से अपील करता है- "जिन लोगों की छाया से हम बचते आये हैं, जिन्हे हमने जानवरों से भी ज़लील समझ रखा है.. क्या यह मुमकिन नहीं कि आप उनके साथ सामान्य सहानुभूति. सामान्य मनुष्यता, सामान्य सदाचार से पेश आएं। " संन्यासी का यह बोलना सवर्ण समाज से सहमति नहीं पा पाता। इसी प्रकार 'सद्गति' कहानी में दुःखी का चरित्र इन शोषणमूलक मान्यताओं को स्वीकार कर चुका है कि वह अन्याय और शोषण सहने के लिए अभिशप्त ही है पर 'मन्दिर' की सुखिया मंदिर में घुसने के लिए चोरी-छुपे प्रतिरोध करती है। ये कहानियाँ गैर दलितों की अमानवीयता, क्रूरता एवं शोषण की अनवरत चली आ रही परम्परा को तो उघाड़ती ही हैं साथ ही दलितों के मन में मुक्ति की छटपटाहट को भी व्यक्त करती हैं। इस कहानी को आज के इन सन्दर्भों में भी देखा जाना चाहिए कि दशकों बाद आज भी किसी दलित के मंदिर में प्रवेश के बाद मंदिर को धोने की घटनाएं सामने आती है, दलितों पर अत्याचार के कई उदाहरण पिछले वर्षों में सामने आये हैं. ऐसे में यह सोचना ज़रूरी हो जाता है कि क्या हम इतने सालों बाद भी उसी दरकी हुई ज़मीन पर ही नहीं खड़े हैं, धर्म के नाम पर यह ढोंग और शोषण कब तक चलता रहेगा। 

संपादक ने यह भी दर्शाने का प्रयास किया है कि प्रेमचंद की दलित दृष्टि के विकास के क्रम में उनकी कहानियों की नई पीढ़ी के दलित पात्र शोषण को समझते हैं।  वे 'सद्गति' के दुखी की तर्ज़ पर इन मान्यताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।  'दूध का दाम' का मंगल हर बार घोडा बनने को तैयार नहीं है। वह तथाकथित कुलीन तंत्र के पाखण्ड और अवसरवाद को भली प्रकार समझता है। इनकी अन्य कहानियों में 'मन्त्र’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘लांछन’, 'सौभाग्य के कोड़े', घासवाली ऐसी ही कहानियाँ है जिनसे पता चलता है कि प्रेमचंद दलित आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान देते हैं। 'जुरमाना` में गरीब श्रमिक के रूप में दलितों के शोषण एवं वर्गीय शोषण से मुक्ति को दलित समस्या एवं सवाल के रूप में सामने लाते हैं। यहां दलितों का अपनी स्थिति में बदलाव के लिए किया गया प्रयास प्रेमचंद के लिए विशेष महत्व का विषय रहा।  वे इनके माध्यम से स्वतंत्रता  और सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार समाज के बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न बनाते हैं। संपादक का यह मत उचित है कि 'प्रेमचंद की इन कहानियों में जो दलित पात्र हैं, उनमें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ  ज्यादा साहसी एवं जुझारू हैं।` इसकी व्याख्या संपादक शोषण की सीमा और प्रतिरोध की चेतना के बीच सीधा संबंध मानकर करते हैं चूँकि स्त्रियाँ हर दिशा से शोषण की शिकार बनाई जा रही थी ऐसे में 'घासवाली' की मुलिया का प्रतिरोध एक सशक्त एवं चुनौतीपूर्ण ढंग़ से स्वतंत्र व सम्मानपूर्ण जीवन जीने की क़वायद में था। 

 प्रेमचंद की दलित दृष्टि 'कफ़न' कहानी में चरम पर दिखती है जिसमें घीसू और माधव के चरित्र एक अलग ही किस्म की चेतना से संचालित दिखाए गए हैं. इस कहानी के लिए आलोचकों ने  प्रेमचंद पर बियॉन्ड द टेक्स्ट जाकर आरोप-प्रत्यारोप भी किए। जबकि घीसू माधव की बुधिया के प्रति यह असंवेदनशीलता और अवहेलना प्रेमचंद की सामन्ती दृष्टि को नहीं बल्कि सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था के खोट को ही पुष्ट करती है जो वर्चस्व की इस राजनीति का विरोध करने की प्रक्रिया में कहीं न कहीं दलित स्त्री विमर्श की दृष्टि भी पैदा करती है। संपादक ने भी यह कहा है कि घीसू और माधव की स्थिति में कोई भी, किसी भी जाति का व्यक्ति होता, वह यही करता जो इन दोनों ने किया। यह अवहेलना दरअसल प्रतिरोध का ही एक रूप है जो पंडित, जमींदार, भगवान सबके नियंत्रण को अस्वीकार करते हुए चुनौती देते है तभी तो प्रेमचंद इन पात्रों से यह भी कहलवाते हैं- "कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते-जी तन ढाँकने को चिथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।"  


बहरहाल यह कहा जा सकता है कि संपादक राजीव रंजन गिरि  का यह प्रयास प्रेमचंद की दलित दृष्टि को समझने की दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। इस विडम्बनापूर्ण समय और समाज में प्रेमचंद की दलित जीवन से जुडी कहानियों की प्रासंगिकता बढ़ गई है। ये सभी कहानियाँ जिस उम्मीद और स्वप्न के साथ लिखी गई हैं वह है- इन्सान को इन्सान समझे जाने की उम्मीद और शोषण से मुक्त एक समतामूलक समाज के निर्माण का स्वप्न साकार होने की उम्मीद।


पुस्तक- सिर्फ़ एक आवाज़ (प्रेमचंद रचित दलित जीवन की कहानियां)
संपादक- राजीव रंजन गिरि 
गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति 

मूल्य- 100/-