Saturday, April 25, 2015

केदारनाथ सिंह की कविताओं का वैविध्य संसार



जिस समय इराक के बगदाद में भीषण नरसंहार चल रहा हो उस समय एक भारतीय पुरबिहा कवि ‘एक पुरबिहा का आत्मकथ्य’ नाम से कविता लिख रहा है- "इस समय यहां हूं/ पर ठीक इसी समय/ बगदाद में जिस दिल को/ चीर गई गोली/ वहां भी हूं/ हर गिरा ख़ून/ अपने अंगोछे से पोंछता/ मैं वही पुरबिहा हूं/ जहां भी हूं’‘ केदारनाथ सिंह अपने समय के एक ऐसे ही संवेदनशील कवि है जो कविता में सारे संसार की परिक्रमा कर आते हैं. इनका असली संसार यह पुरबिया दुनिया ही है जो उनकी आत्मा में बसी है. हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह अस्सी वर्ष की आयु में पिछले साठ वर्षों से लिख रहे हैं. साठ वर्षों से अधिक की इस लंबी काव्य यात्रा में इनके आठ कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनकी कविताओं से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे हम चुने हुए शब्दों से बनी भावों की ऐसी दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं जो यथार्थ की दुनिया से बिलकुल भिन्न न हो। 1960 में आए काव्य संग्रह ‘अभी बिल्कुल अभी' से लेकर उनके हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ तक की कविताओं में हमें उनकी ऐसी ही यथार्थपूर्ण कोमल कविताई देखने को मिलती है जो कई बार कोमलकांत होते हुए भी नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सी लगती है. जिसमें कम से कम व सरल शब्दों में, जीवन का यथार्थ, समाज की सच्चाई, राजनीति का कड़वापन, सभी कुछ, बड़े ही सटीक बिम्बों के सहारे, मन को सीधा उद्वेलित करते हुए, सपाटबानी से सायास एकदम दूर रहते हुए तथा काव्य - शिल्प के नए मानदंड गढ़ते हुए, कुछ यूँ कह दिया जाता है, जो लम्बे समय के लिए हमारे मानस पर अपनी छाप छोड़ जाता है. उनकी काव्य - पंक्तियाँ प्राय: अँधेरे को कोमलता से चीरते हुए प्रकाश ओर जाती हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि इस उम्र में भी उनके भीतर का कवि कहीं से भी थका हुआ नहीं लगता और वे आज भी निरन्तर काव्य - रचना में संलग्न हैं, वह भी वर्तमान समय के यथार्थ - बोध, सामाजिक व राजनीतिक सरोकारों, भाषायी विकास, शिल्प की विशिष्टताओं आदि को अपनी कविताओं में पूरी ताक़त के साथ समेटते हुए। उनकी कविताओं में आधुनिकता और परंपरा दोनों को एक साथ अपने में समेट लेने की विशिष्टता एवं वैचारिक सान्द्रता मौज़ूद होती है.


केदारनाथ सिंह की कविताएँ वैविध्य से भरी हुई हैं, उनकी कविता समाज के तमाम सरोकारों को खुद में समेटे हुए है. यदि कविता में केंद्रीकरण की धारणा को अपदस्थ न माना जाए तो उनकी कविताएं मूलत: ‘दानों’ के महत्व, ‘रोटी’ की चिन्ता, और ‘मानवीय संवेदनाओं’ की महक को केंद्र में रखती और रेखांकित करती कविताएँ हैं. बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों में जब मुक्तिबोध, धूमिल, नागार्जुन व त्रिलोचन जैसे बड़े कवियों की परम्परा में रघुवीर सहाय व कुँवर नारायण जैसे समकालीन कवि जुड़ रहे थे, ऐसे में इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए उनके बरक्स उन्होंने मुख्यत: इन्हीं तीन बातों से जुड़कर हिन्दी काव्य - साहित्य को एक नया आयाम दिया। हालांकि उन्होंने इन विषयों से इतर भी कविताएँ रची हैं किन्तु जहाँ भी उनकी कविताओं में दानों का उल्लेख आया है, वहाँ वे परम्परा की ओर जाते हुए, मनुष्य और उसके अस्तित्व के उद्गम की ओर बढ़ते हुए, किसी प्रवृत्ति के मूल की ओर जाने का प्रयास करते हुए दिखते हैं. उनकी कविता 'आवाज़' में- "पकते हुए दानों के भीतर / शब्द के होने की पूरी संभावना थी/ मुझे लगा मुझे एक दाने के अन्दर/ घुस जाना चाहिए/ पिसने से पहले मुझे पहुँच जाना चाहिए/ आटे के शुरू में"

या फिर उनकी 'दाने' शीर्षक कविता में – "नहीं/ हम मंडी नहीं जाएँगे/ खलिहान से उठते हुए/ कहते हैं दाने/ जाएँगे तो फिर नहीं आएँगे/ जाते-जाते/ कहते जाते हैं दाने/ अगर आए भी/ तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे/ अपनी अंतिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने". जहाँ भी रोटी, अनाज, दानों की बात आती है तो उनका संकेत भूख की ओर, आर्थिक विषमता की ओर, संघर्ष की ओर होता है, जैसे उनकी 'रोटी' कविता में – "वह पक रही है और आप देखेंगे/ यह भूख के बारे में आग का बयान है/ जो दीवारों पर लिखा जा रहा है" साथ ही अपनी एक और कविता में वह कहते है- ‘रात को रोटी जब भी तोड़ना/ तो पहले सिर झुकाकर/ गेहूँ के पौधे को याद कर लेना’. ये कविताएं भले ही मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हों किन्तु जिस तरलता के साथ केदारनाथ सिंह की कविताओं में इन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति होती है और उसके लिए वे जैसे बिम्ब गढ़ते हैं, उसका आधुनिक हिन्दी साहित्य में कहीं कोई सानी नहीं। जैसे "यह मां की आवाज़ है - मैंने कहा/ चक्की के अन्दर माँ थी" अथवा 'हाथ' कविता में "उसका हाथ/ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को/ हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए." 

केदारनाथ सिंह की ज्यादातर कविताओं में बिम्ब प्राय: प्रकृति पर आधारित हैं जिनका उद्देश्य मानवीय संवेदना के साथ साथ विचारों का गहराई तक संचार करना है। ‘बाघ’ कविता में बाह्य जगत की भयावहता, बिम्ब के साथ ही जुड़ी है, अत: वह हमें एक अलग ढंग से सोचने पर मजबूर करती है और संवेदना से कहीं ज्यादा, विचारों को उद्वेलित करने का काम करती है. 'बाघ' कवि केदारनाथ सिंह की एक लम्बी एवं प्रसिद्ध कविता-श्रृंखला है, जिसमें छोटे-बड़े इक्कीस खंड हैं। 'प्रतिनिधि कविताएँ' के अन्तर्गत बाघ-श्रृंखला में छोटे-बड़े सोलह खंड हैं। 'बाघ' को लिखने की प्रेरणा कवि को हंगरी भाषा के रचनाकार यानोश पिलिंस्की की एक कविता पढ़ने के बाद मिली थी। यानोश पिलिंस्की की उस कविता में कवि को अभिव्यक्ति की एक नई संभावना दिखी थी। वह कविता 'पशुलोक' से संबंधित थी. 'बाघ' पर बातचीत के पहले हम, केदारनाथ सिंह का पशु-जगत् के साथ काव्य-बर्ताव कैसा रहा है यह देख लें। साहित्य में और आम-जीवन में भी बन्दरों की जो छवि चित्रित है वह चंचल,उछल-कूद करने वाले, दूसरे के हाथों से कुछ छीना-झपटी करने वाली छवियाँ ही चित्रित हैं लेकिन यह कवि केदारनाथ सिंह की आखें हैं जो, ''सीढ़ियों पर बैठे बन्दरों की आँखों'' की 'एक अजीब-सी नमी'' को लक्षित कर ले जाती है। इसी तरह 'बैल' कविता में वह 'बैल' के बारे में लिखते हैं, -''वह एक ऐसा जानवर है जो दिनभर / भूसे के बारे में सोचता है / रात भर / ईश्वर के बारे में'' 'बाघ' कविता में भी जब बाघ का सामना बुद्ध से होता है वहाँ कवि लिखता है, ''जहाँ एक ओर भूख ही भूख थी / दूसरी ओर करुणा ही करुणा।'' बाघ कवि के लिए 'भूख ही भूख' है। कहने का आशय यह है कि पशु-जगत् के साथ केदारनाथ सिंह बड़ी कोमल एवम् कारुणिक बर्ताव करते हैं। दूसरी चीज यह कि ये सभी पशु उनकी कविता में अपनी 'प्राकृतिक सत्ता' नहीं खोते। वे बिम्ब, प्रतीक, मिथक बाद में है, उनका प्राकृतिक अस्तित्व पहले है। 'बाघ के बारे में' केदारनाथ लिखते हैं- ''बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है।'' 'बाघ' पढ़ते समय सबसे पहली उत्सुकता यह होती है कि 'बाघ' है क्या? बाघ की कई-एक छवियाँ इस कविता में हैं। कभी हिंसा बाघ के रूप में तो कभी अपने स्वभाव के विपरीत समस्त करुणा से युक्त बाघ. 

यह एक विडंबना ही है कि शहर और बाजार - जिसको मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए रचाया-बसाया है वह आज मनुष्य और मनुष्यता को लील लेने के स्थल में परिवर्तित होता जा रहा है। केदारनाथ सिंह अपनी कविता में निरंतर शेष होती उन चीजों को बचा लेना चाहते हैं जो शहरीकरण और बाजारीकरण की प्रक्रिया में उसके ग्रास बनते जा रहे हैं। 'बाघ' में कवि 'बुनते हुए हाथ' और 'चलते हुए पैर' को बचा लेना चाहता है। कवि की पूर्व उल्लिखित कविता 'दाने' में दानों का मंडी जाने से इंकार की अनुगूँज 'बाघ' में भी सुनाई पड़ती है। इस एक बड़ी कविता में पूर्ववर्ती कई कविताओं की अनुगूंजे साफ सुनी जा सकती हैं। 'बाघ' पढ़ते समय कवि की ही 'दाने' के अलावा, 'यह पृथ्वी रहेगी', 'जो एक स्त्री को जानता है', 'टूटा हुआ ट्रक', 'बीमारी के बाद', 'महानगर में कवि' और 'पड़रौना उर्फ शहर बदल' की याद ताजा हो जाती है. 'बाघ' कविता के तेरहवें खंड में बाघ बैलगाड़ियों को देखता है। बैलगाड़ियाँ हमेशा की तरह इस बार भी, ''बस्ती से शहर की ओर / कुछ-न-कुछ ढोती हुई / और अपने हिस्से की जमीन / लगातार-लगातार खोती हुई।'' चली जा रही हैं। 'बाघ' कविता में 'बस्ती' से 'शहर' की यात्रा सदैव कुछ गँवाने और लुटाने की यात्रा लगती है। इसलिए इस कविता में शहर के बारे में बाघ के विचार अच्छे नहीं हैं। वह पहली बार जब 'शहर' आता है तो 'शहर' को 'गहरे तिरस्कार' और 'घृणा' से देखकर उससे बाहर चला जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि केदारनाथ सिंह अपनी कविता में निरंतर रीतते लोक-जनपदीय जीवन और लोक-संस्कृति को बचा लेना चाहते हैं, यहाँ बैलगाड़ियों को शहर की ओर जाते देख बाघ का यह कहना कि, ''मुझे कुछ करना चाहिए / कुछ करना चाहिए।' स्वयं कवि का कथन लगता है। 'बाघ' कविता का बाघ कई जगहों पर अपने रचयिता कवि से एकाकार हो गया है।

कवि की ये कविताएँ समय की दृष्टि से भले ही कोई साम्य न रखती हो किन्तु उनकी हर कविता बिम्बों की तलाश तथा उनकी प्रयुक्ति में एक विस्मित कर देने वाला ऐक्य पाया जा सकता है. जब वे अपनी ‘चींटियों की रुलाई’ कविता में - ‘मैं तो बस इस शहर की/ लाखोंलाख चींटियों की मूक रुलाई का/ हिन्दी में अनुवाद करना चाहता हूँ/ सुनो,क्या तुम सुन रहे हो उसे?’ अथवा ‘पानी की प्रार्थना’ कविता में - ‘समय ही कुछ ऐसा है / पानी नदी में हो/ या किसी चेहरे पर/ झाँककर देखो तो तल में कचरा/ कहीं दिख ही जाता है’, या फिर ‘पानी था मैं’ कविता में – ‘कभी पानी था मैं/ बस इतना याद है/ कि एक दिन एक कटोरे से गिरा/ और ज़मीन ने मुझे पी लिया/ जबकि एक बकरी उदास ताकती रही मुझे’ कहते हैं, तब वे अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए ऐसे अनूठे बिम्बों का इस्तेमाल कर रहे होते हैं, जो हमें अन्यत्र कहीं नहीं दिखते। केदारनाथ सिंह का यह अनूठा बिम्ब - विधान ही उन्हें श्रेष्ठ एवं मानवीय संवेदनाओं का बेजोड़ कवि बना देता है। मुक्तिबोध, शमशेर , केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन के बाद जिन कवियों ने हिन्‍दी में नयी जमीन तोडी है उनमें रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और कुँवर नारायण प्रमुख हैं. इनमें रघुवीर सहाय जहां इस जनतंत्र में तंत्र की भूमिका को आलोचनात्‍मक ढंग से अपनी कविता के केन्‍द्र में रखते हैं वहीं केदारनाथ सिंह इस लोकतंत्र में लोक की चेतना को उसकी सादगी, स्‍फूर्ति और उसके विस्‍मयबोध के साथ प्रस्तुत करते हैं.

केदार जी भोजपुरी भाषी हैं और उनकी भोजपुरी बलिया, छपरा की मीठी भोजपुरी है. यह मिठास केदार जी के व्‍यक्तित्‍व का भी एक हिस्‍सा है. एक सरल सी आत्‍मीयता जो उनकी कविताओं में अमूमन मिलती है आपको धीरे धीरे अपने साथ लेती चलती है और फिर जीवन जगत के अपने अनुभवों को हमसे साझा करती है. अपनी एक कविता ‘भोजपुरी’ में केदार जी लोकभाषा भोजपुरी के सकारात्‍मक पक्ष को जिस संवेदनशीलता के साथ सामने रखते हैं वह अनोखा है – "लोकतन्‍त्र के जन्‍म से बहुत पहले का/ एक जिन्‍दा ध्‍वनि लोकतंत्र है यह/ जिसके एक छोटे से ‘हम ’ में/ तुम सुन सकते हो करोडों/ ‘मैं ’ की घडकनें". लोक की और लोकभाषा की, जिसे अक्‍सर बोली कहकर हम सीमित करने की कोशिशें करते हैं, ताकत और व्‍यापकता को यहां जिस तरह से केदार जी ने सामने रखा है वह महत्‍वपूर्ण है. यह कविता मात्र भोजपुरी की ही बात नहीं करती. यह तमाम लोकभाषाओं की जरूरत की भी पैरवी करती है जिसकी अंग्रेजी से लडने के तर्क से हम उपेक्षा करते हैं और भूल जाते हैं कि हिन्‍दी की सारी थाती इन्‍हीं लोकभाषाओं की देन है जिस लोक की ताकत से यह तंत्र चलता है वह इन्‍हीं लोकभाषाओं और उसके धारकों की जबान से अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करता है साथ ही यह कविता . इस लोकजन की व्‍यापकता का भी बोध कराती हैदेखा जाए तो केदारनाथ सिंह की तमाम कविताएं इन्‍हीं लोकभाषी जन की बातें करती हैं. ‘कपास के फूल’ 'कवि कुम्‍भनदास के प्रति’, ’हिन्‍दी’ आदि कविताएं इसी लोकजन की ताकत और मिजाज को कई तरह से अभिव्‍यक्‍त करती हैं- "वह जो आपकी कमीज है/ किसी खेत में खिला/ एक कपास का फूल है" केदार जी की कविता लोक के जीवट को तमाम तरह से अभिव्‍यक्‍त करती है. लोक की संवेदना को प्रकट करते हुए ‘घास’ कविता में घास लोक जनों का ही प्रतीक है.आम जन की इस जिद और ताकत को घास के माध्यम से ही उन्होंने अभिव्‍यक्‍त किया है - "कभी भी/ कहीं से भी उग आने की/ एक जिद है वह"

केदारनाथ सिंह जी की कविताओं का दायरा बेहद व्यापक एवं विशद है. समाज की किसी भी चिंता एवं सरोकारों पर प्रकाश डालने में उनकी कलम चूकी नहीं है. किसानों की आत्‍महत्‍या को लेकर केदार जी की एक मार्मिक कविता है ‘ फसल' इसमें वे उनकी लगातार बिगडती हालत को बयां करते हैं. कवि की निगाह में आज भी किसान ‘सूर्योदय और सूर्यास्‍त के विशाल पहियों वाली‘ गाडी से चलता है पर विकास के इस मोड पर उसकी यह गाडी अटक जाती है और किंकर्तव्‍यविमूढ वह इस नई और अंधी सभ्‍यता के चक्‍कों तले कुचल दिया जाता है पर कवि यहां इस हत्‍यारी सभ्‍यता की परिभाषाओं से सहमत नहीं है इसलिए वह तय नहीं कर पाता कि यह ‘हत्‍या थी या आत्‍महत्‍या’ यह आप पर छोडता हूं. आज किसान का शोषण सर्वत्र हो रहा है। खेती घाटे का सौदा हो गई है, फिर भी छोटी से छोटी जोत का किसान भी इसी इरादे से खेती करता रहता है कि ज़मीन से उसे खाने के लिए कुछ तो मिलेगा ही। वह अपनी पुश्तैनी ज़मीन से बेदखल नहीं होना चाहता। उसकी ज़मीन छीनने को हज़ारों ताकतें लगी हुई हैं। जगह जगह भू माफिया उसकी ज़मीन पर नज़र गड़ाए बैठे हैं, व्यवस्था ज़मीन हड़पने वालों के साथ खड़ी दिखाई देती है। ऐसे में प्रतिरोध की चेतना और साहस कहाँ से पैदा हो? कविता में किसान के भीतर वह साहस एक साँप की चमकती हुई आँखों को देखकर पैदा होता है। ‘आज नरकट की पत्तियों में / उसने एक साँप की चमकती हुई/ आँखें देखीं/ उसने जोखिम में देखी/ एक अद्भुत सुन्दरता/ और कुछ पल अवाक/ देखता रहा उसे’ कहकर केदारनाथ सिंह इस साहस के पैदा होने का अद्भुत बिम्ब खींचते हैं। साहस के पैदा होते ही किसान विद्रोही हो जाता है, ‘वह कचहरी गया/ वहाँ उसके सामने रखा गया/ एक सादा काग़ज़/ कहा गया - 'यहाँ … यहाँ … / एक दस्तख़त करो' और यह विद्रोह उसे चेतन बना देता है, - ‘उसने इनकार किया/ और उसे लगा/ वह दस गुना/ बीस गुना/ सौ गुना और ज़िन्दा हो गया!’ प्रतिरोध की इस चेतना में ही उस क्रांति के बीज छिपे हैं, जो किसी मरे हुए समाज को ज़िन्दा कर सकती है।


केदारनाथ सिंह की कविताओं में परम्परा की महत्ता तथा उसकी ताक़त का अहसास कराए जाने के साथ साथ आधुनिकता की आहट और परम्परा से होने वाली उसकी टकराहट का भी विशिष्ट चित्रण है। जब परम्‍परा आधुनिकता से टकराती है तो जहाँ जरूरी होता है, वहाँ परम्‍परा ठहर जाती है और आधुनिकता को अपने ढंग से परिस्थितियों को बदलने देती है। इसी से परम्‍परा और आधुनिकता के बीच एक तालमेल बनता है। जीवन में दोनों का अपना अपना महत्व है।कवि स्वयं को अपने समय के प्रति, अपने विश्वास के प्रति, अपने विचार के प्रति समर्पित करता है। ‘गमछा और तौलिया’ कविता में जब केदारनाथ सिंह - ‘तौलिया गमछे से कह रहा था/ तू हिन्दी में सूख रहा है/ सूख/ मैं अंग्रेजी में कुछ देर झपकी लेता हूँ’ कहते हैं, तब वे परम्परा और आधुनिकता के बीच के द्वंद्व तथा उनके बीच बिठाए जाने वाले सामंजस्य की ओर इशारा कर रहे होते हैं. परम्‍परा और आधुनिकता के बीच की टकराहट में हमेशा सब कुछ बदल ही नहीं जाता. हर आदमी समाज में अपनेअपने तरीके से जीता है अपने अपने तरीके से सोचता है और अपने तरीके से आगे की दिशा निर्धारित करता है। कुछ लोग परम्‍परा का हाथ पकड़कर जीते हैं और कुछ अपने अतीत को भुलाकर समय के साथ आगे निकल जाते हैं। ‘समय से पहली मुलाकात’ शीर्षक कविता में केदारनाथ सिंह ने कहा है ‘अब किससे पूछूँ/ यह मेरा तो नहीं/ आखिर किसका समय है/ जो बजता रहता है मेरी घड़ी में?’ यहाँ कवि अपने समय को खो देने की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है। उसकी घड़ी में जो समय बज रहा है वह उसका नहीं है। वह यह भी नहीं जानता कि वह किसका समय है। आज का समय ऐसा ही है, जहाँ व्‍यक्‍ति अपनी परम्‍परा से कटा हुआ है। अपने को पूरी तरह बदल भी नहीं पाया है। उसका अपना कोई स्‍थापित संस्‍कार नहीं बन पाया है। वह कहीं बीच में ही त्रिशंकु सा लटका हुआ है जो समय के संधिकाल में जी रहा है। समय की संकरता का यह दायरा विस्‍थापन के विस्तार के साथ व्यापक होता चला जाता है। ‘देश और घर’ कविता में केदारनाथ सिंह विस्‍थापन के कारण पैदा हुई इस संकरता से जूझने की स्‍थिति का बड़ी ही संवेदना के साथ चित्रण करते हैं। इस कविता में ‘हिन्दी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/ घर से निकलता हूँ/ तो चला जाता हूँ देश में/ देश से छुट्टी मिलती है/ तो लौट आता हूँ घर’ जैसी पंक्तियों के माध्यम से वे अपनी विडंबना का उल्‍लेख करते हैं. उनका जन्‍म भोजपुरी प्रदेश में हुआ है, इसलिए भोजपुरी उनका घर है। किन्‍तु समय ने उन्‍हें अपने घर से उठाकर देश भर में घुमा दिया है, इसलिए वे देश के हो गए हैं, जहाँ उनकी भाषा हिन्‍दी है लेकिन उन्होंने भोजपुरी का वह घर. कभी खाली नहीं किया है. कभी वे हिन्‍दी में रमते हैं तो कभी भोजपुरी के घर लौट जाते हैं। इस आवाजाही में वे बार - बार कुछ खोते और कुछ पाते रहते हैं। अपनी इस पीड़ा को वे ‘देश और घर’ में - ‘इस आवाजाही में/ कई बार घर में चला आता है देश/ देश में कई बार/ छूट जाता है घर’ कहकर अभिव्‍यक्‍त करते हैं। उन्‍हें यह आशंका है कि इस आवाजाही की प्रक्रिया में वे किसी एक के नहीं हो पा रहे हैं और दोनों को ही खोते जा रहे हैं। अपनी इस विडंबना को वे इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं, - "मैं दोनों को प्यार करता हूँ/ और देखिए न मेरी मुश्किल/ पिछले साठ बरसों से/ दोनों में दोनों को/ खोज रहा हूँ."

मनुष्य जहाँ - जहाँ भी जाता है, अपने पारम्परिक परिवेश को, उसकी गंध को, उसकी अच्छाइयों - बुराइयों को अपने संग समेटे हुए चलता है। वह जहाँ भी रहता है, परम्परा अदृश्य रूप से उसके साथ बनी रहती है। वह परम्परा की खुशबू को बचाए रखने की कोशिश करता है। उस पर गर्व महसूस करता है। । व्यक्ति कभी भी अपनी मौलिक पहचान को, अपनी अस्मिता को खोना नहीं चाहता। लेकिन विस्थापन और समय के परिवर्तन के साथ वह धीरे - धीरे उससे विलग होता चला जाता है। परम्परा उसके वर्तमान में चुपके से कहीं खो जाती है। केदारनाथ सिंह की कविता ‘काली सदरी’ इस दृष्टि से अत्यधिक उल्लेखनीय है। इस कविता में वे - ‘बरसों पहले/ इस महानगर में जब पहली बार आया था/ मेरे बदन पर एक कुर्ता था/ जिसे गाँव के बूढ़े दर्ज़ी ने सिला था/ कुर्ते में एक जेब भी थी छोटी - सी/ जिसमें मकई के लावा की/ गन्ध भरी थी/ वह मेरे साथ - साथ रही कई हफ़्तों तक/ इस महानगर में’ कहकर दिल्ली में अपने साथ सँजोकर लाई गई अपनी विरासत का जिक्र करते हैं। आगे इस कविता में वे अपनी काली सदरी और उसके धागों में छिपकर कस्बे से आई हुई धूल का जिक्र करते हुए - ‘और हाँ - मेरे सफ़ेद कुर्ते पर/ एक काली सदरी भी थी/ जिसके धागों में छिपी थी/ एक छोटे - क़स्बे की ज़रा - सी धूल/ मैंने कोशिश बहुत की/ कि वह ज़रा - सी धूल/ मेरे संग - संग बची रहे महानगर में/ पर पता नहीं कैसे/ धीरे - धीरे झरती रही वह/ झरती रही मेरी पहचान/ मेरी देह से धीरे - धीरे/ और एक दिन मैंने पाया/ अब मेरी पहचान/ 88/3 दिल्ली है’ कहकर अपनी उस अस्मिता के दिल्ली में खो जाने की पीड़ा का बयान करते हैं। इसमें अपनी पहचान के खो जाने का, उसके बदल जाने का दर्द छिपा है। विस्थापन की यह पीड़ा, यह वास्तविकता, यह परिणति सार्वभौमिक है, केदारनाथ सिंह की अकेले की नहीं है।



केदारनाथ सिंह हिन्दी के उन गिने चुने वरिष्ठ कवियों में से हैं, जो कविता की वर्तमान स्थिति से न तो दुखी हैं और न उसके भविष्य के प्रति निराश। उनसे जब भी बात होती है, वे नए व युवा कवियों की कविताओं पर बात करते हैं। वे हमेशा उस उम्मीद का जिक्र करते हैं, जो उन्होंने कविता के भविष्य के बारे में पाल रखी है। वे सदैव परिवर्तन की बात पर बल देते हैं। कविता में समय के अनुरूप जो बदलाव आना चाहिए, वे उसके प्रबल पैरोकार हैं। ‘शोध’ कविता में वे कवियों को अपेक्षित बदलाव की तैयारी के लिए अपने में गहरी समझ पैदा करने का आह्वान करते हैं, - ‘और मुझे रुकना होगा वहीं/ उस भाषा का अध्ययन करने के लिए/ जो मछलियाँ बोलती हैं/ बहते हुए जल से/ और वह विलाप जो गूँजता है उनकी आँखों से/ चमक में और वह तकनीक/ जो बाज़ार करता है इस्तेमाल/ उनके जल से/ जाल तक पहुँचने की यात्रा में।’ आज के आलोचकों द्वारा कविता को मृतप्राय घोषित कर दिए जाने की बात से वे कतई सहमत नहीं और इस संबन्ध में वे अपना मंतव्य ‘कविता’ शीर्षक कविता में स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं ‘और वह आज भी ज़िन्दा है/ मृत्यु की सारी घोषणाओं के बाद/ लोग अब भी उसे सुनते हैं।’ उनका मानना है कि कविता की सार्थकता जिनके लिए है, वही कविता के आराधक होते हैं। आज की कविता की मुख्यधारा प्रतिरोध की है, हाशिए पर पड़े वंचित, दलित स्त्री समाज की पीड़ा व संघर्ष की है। तभी तो वे ‘कविता’ कहते हैं, - ‘पता लगा लो - जो मारे जाते हैं जंगलों में/ उन युवा होठों पर/ अक्सर होती है कोई न कोई कविता।’ प्रलोभन, किसी दबाव, किसी प्रकार के दमन के आगे झुके बिना पूरी जीवंतता के साथ आगे बढ़ रही है।

केदारनाथ सिंह अन्य वैश्विक मुद्दों को भी अपनी कविता में जगह देते है. हमारे विश्व-समाज का सर्वस्व प्रदूषित होते जाने की पीड़ा भी उनकी कविता का स्वर बनता है इसका इलाज सुझाती केदारनाथ सिंह की कविता की पंक्तियां हैं- "इतनी गर्द भर गई है दुनिया में/ कि हमें ख़रीद लाना चाहिए एक झाड़ू/ आत्मा के गलियारों के लिए/ और चलाना चाहिए दीर्घ एक अभियान/ अपने सामने की नाली से/ उत्तरी ध्रुवान्त तक." उदारीकरण से सबसे अघिक लाभ पूंजीपति वर्ग को हुआ है। यह वर्ग चांदी काट रहा है। पूरी दुनिया में ‘ताप और ऊर्जा’ के रूप में आग और पानी का खेल खेलकर पृथ्वी पर ही नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर उस ‘सम्पन्न सौदागर’ का एकाधिकार होता जा रहा है, कवि इस बात को ख़ूब अच्छी तरह जानता है- "मैं उसे इसलिए भी जानता हूं/ ब्रह्माण्ड का/ सबसे सम्पन्न सौदागर है/ जो मेरी पृथ्वी के साथ/ ताप और ऊर्जा का तिजारत करता है/ ताकि उसका मोबाइल/ होता रहे चार्ज।" इसके साथ ही कवि वैश्विक शान्ति से जुड़े मुद्दे भी उठाता है और वाज़िब सवाल खड़े करता है. भारत पाक बांग्लादेश को लेकर आतंक की नीति पर कवि सवाल खड़े करता है इसके खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराता है - ‘अगर सरहद जरूरी है/ पडी रहने दो उसे/ पर हाथों को हक दो/ कि मिलते रहें हाथों से’ कवि चाहता है चाहे जैसे भी हो इन मुल्कों में एक पतली सी झिर्री खुली रहे जिससे संभव हो सके खुली हवा में साँस लेना, सत्ताएँ कितना ही कागज़ी हिसाब रखें पर बची रहे एक मुट्ठी आसमां की ख्वाहिश .एक ‘वृहत्तर भारत’ का सपना कवि देखता है. परन्तु वह अपने सपने को साकार होता नहीं देखता । इसलिए इस सपने को वह अपने भीतर बसी एक पागल स्त्री का सपना मानता है, समाज में अन्याय, अत्याचार के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने वालों की संख्या आटे में नमक के बराबर रह गई है । इसलिए उन सारी जगहों पर भी चुप्पियों का साम्राज्य है, जहां बोलना ज़रूरी है. "चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं/ उन सारी जगहों पर/ जहां बोलना ज़रूरी था"





उनके यहाँ सीखने के लिए बहुत कुछ है। उनकी रचनाशीलता अभी बूढ़ी नहीं हुई है और हमें सिखाने के लिए वे अभी और भी बहुत कुछ रचने वाले हैं। उनकी कविताओं का बिम्ब - विधान निराला है। उनके अद्भुत बिम्ब शब्दों की शक्ति को कई गुना बढ़ा देते हैं। उनके बिम्ब हमारे आस - पास ही उपस्थित और हमारे जीवन से गहराई से जुड़ी चीज़ों से संबद्ध होते हैं। वे कविता में इस तरह से घुले - मिले होते हैं कि हम उन्हें किसी भी तरीके से उनकी पंक्तियों से विलग नहीं कर सकते। उनके बिम्ब शब्दों की आत्मा में पैठे हुए - से लगते हैं। केदारनाथ सिंह ने स्वयं ही कहा है, - ‘कविता में बिम्ब की बुनावट महत्वपूर्ण है, बिम्ब की प्रमुखता नहीं।’ वे अपनी कविताओं में इस सिद्धान्त को पूरी तरह से अपनाकर चलते हुए दिखते हैं। आधुनिकता की दृष्टि से केदारनाथ सिंह हमेशा संकीर्ण वैज्ञानिक आधुनिकता अथवा सामाजिक व राजनीतिक चेतना तथा परम्परा के प्रति नकार की भावना से सम्पन्न उत्तरआधुनिकता से ऊपर उठकर सोचने वाले कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविता हमें परम्परा के श्रेष्ठ सोपानों पर टिके रहने का आह्वान करती हुई, नवाधुनिकता के उस ठोस प्रस्थान - बिन्दु तक पहुँचाती है, जहाँ मानवीय चेतना अपने चरम पर पहुँच हमारे जीवन संघर्ष को सही दिशा में आगे ले जाने के लिए प्रेरित करने लगती है। यह टकराहट उस समन्वयवादी दृष्टि से उपजी प्रतीत होती है, जो उनके भीतर के शहर तथा गाँव, वर्तमान तथा अतीत के बीच निरन्तर चलता रहता है। यह नवाधुनिकता देशज है, पश्चिम से प्रभावित नहीं। उन्होंने अपने लेख ‘हिन्दी आधुनिकता का अर्थ’ में स्वयं कहा है, - "मेरी आधुनिकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का सम्बन्ध किस तरह घटित होता है, इस प्रश्न की विकलता मेरे भाव - बोध का एक अनिवार्य हिस्सा है। ये दोनों मेरे भीतर हैं और दोनों में जो एक चुपचाप सहअस्तित्व है, उसका सन्तुलन हमेशा एक जैसा बना रहता है। इससे भारतीय कवि के भीतर एक नए ढंग का भाव - बोध विकसित होता है, जो पश्चिम से काफी भिन्न है।" केदारनाथ सिंह की ही पीढ़ी के कवि कुँवर नारायण ने कहा है, - "बदलते संदर्भों में मनुष्य के सबसे कम उद्घाटित या विलुप्त होते, जीवन - स्रोतों की खोज और भाषा में उनके संरक्षण की क्षमता शायद आज भी कविता की सबसे बड़ी ताक़त है." इस कठिन दौर में भी हमें उम्मीद और आश्वस्ति से भर देती है। अपनी बनावट में ये कविताएँ सहज सम्प्रेष्य हैं। यह कवि अपने समय के संकटों से रूबरू होता है, पर एक उम्मीद के साथ। यह कवि की संवेदना का एक ऐसा महीन धागा है जो सारी कविताओं में फैला हुआ है डॉ॰ बच्चन सिंह के शब्दों में, "छायावादोत्तर कवियों में केदारनाथ सिंह सबसे अधिक सचेत कवि हैं वाक् और अर्थ दोनों के प्रति। .जीवन का इतना वैविध्य, प्रतिपत्तिमूलक (जेनेरिव) भाषा का किंश्चित् जटिल, किन्तु सरस और लयात्मक प्रयोग अन्यत्र कम मिलेगा।


मूल स्रोत 

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* प्रतिनिधि कविताएं : केदारनाथ सिंह/ राजकमल प्रकाशन 

* सृष्टि पर पहरा/ केदारनाथ सिंह/ राजकमल प्रकाशन 





सहायक सन्दर्भ ग्रन्थ 

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* आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास/ बच्चन सिंह 

* हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास/ बच्चन सिंह

* कविता और समय/ अरुण कमल 

* 'तद्भव' पत्रिका, अंक जून 2014 



पचरंग चोला पहर सखी री

अक्सर हम समाज में शताब्दियों से चली आ रही धारणाओं को ही अंतिम निष्कर्ष मानकर उन्हें ही पोषित करते रहते हैं किन्तु धीरे धीरे समय बदलता है और उन धारणाओं पर समय सन्देह करता है, उसपर वाज़िब सवाल उठाए जाते हैं. उनकी शिनाख्त और पड़ताल की जाती है और जो तर्क की तुला पर सटीक नहीं बैठता, उसमें नए निष्कर्ष जोड़े जाते हैं. अपने समाज की तरह हिंदी साहित्य भी प्रचलित धारणाओं को सत्य एवं अंतिम मानकर उन पर निर्भर रहता है. ऐसे में अगर ऐसी धारणाएं मध्यकाल के साहित्य या साहित्यकार के सन्दर्भ में मिथकीय छवि से जुडी हों तो उन पर सवाल उठाना, उनमें परिवर्तन की माँग करना अपने आप में साहस का काम है. हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ भी आलोचक माधव हाड़ा के इसी साहस का परिचय देती है. देखा जाए तो यह पुस्तक पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘अकथ कहानी प्रेम की’ की कड़ी से जुडती पुस्तक है जिसमें कबीर के समान ही मीरा के संबंध में प्रचलित धारणाओं पर प्रश्न उठाए गए हैं. अब तक मीरा के जीवन को तरह तरह से पढ़ा और गढ़ा गया है. डॉ. माधव हाड़ा ने इस निर्मिति को ऐतिहासिक साक्ष्यों के आलोक में देखा-परखा है. यह ‘प्रेम दीवानी’ मीरा की छवि नहीं है. सामन्ती सत्ता संघर्ष में एक सचेत सामंत स्त्री किस तरह से असाधारण भूमिका का निर्वाह करती है. इसी आलोक में यह पुस्तक अपनी बात कहती है. इसी सन्दर्भ में आलोचक ने पुस्तक में कहा भी है कि “वह मीरां जिसे हम जानते हैं अपनी असल मीरां से बहुत दूर आ गई है. यह दूरी बनाने और बढ़ाने का काम मीरां के अपने समय से ही हो रहा है. असल मीरां अभी भी लोक इतिहास, आलोचना, धार्मिक आख्यान और आलोचना विमर्श में है लेकिन वह इन सब में कट छंट और बंट गई है.”



आलोचक माधव हाड़ा की यह पुस्तक ऐतिहासिक, समकालिक एवं देशभाषा स्रोतों और व्यवहारों को गंभीरता से पढ़ते हुए नए निष्कर्षों पर पहुँचती है. यह एक विचारोत्तेजक शैली में लिखी गई तथ्यपरक और ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक है जो अपने हर सवाल के साथ अब तक अनुपलब्ध रहे अनेक तथ्यों को प्रस्तुत करती है. पुस्तक का पहला वाक्य है: ‘मीरां का ज्ञात और प्रचारित जीवन गढ़ा हुआ है.’ इन गढ़ी गई छवियों में मुख्य हैं- गीता प्रेस की आदर्श हिंदू पत्नी, टॉड की प्रेम-दीवानी, संत-भक्तों के बीच मीरां की रहस्यात्मक छवि और वामपंथियों तथा स्त्रीवादियों द्वारा गढ़ी असाधारण विद्रोही स्त्री की छवि. मीरां से संबद्ध केवल दृष्टिकोण ही नहीं, तथ्य भी गढ़ लिए गए हैं, भले ही उनका आधार जनश्रुतियाँ हों. लेखक का प्रयास इन गढ़ी गई अनेक ‘मीरांओं’ में से मीरां की प्रामाणिक छवि की तलाश करना ही है। यह पुस्तक छह अध्यायों में विभक्त है, जो सिलसिलेवार ढंग से मीरां के जीवन, समाज, धर्माख्यान, कविता, कैननाइजेशन और छवि निर्माण पर केंद्रित हैं। 

इस पुस्तक के पहले अध्याय में माधव हाड़ा मीरां की रूढ़, पारंपरिक और गढ़ी गई छवियों को सप्रमाण तोड़ते हैं। मीरां के जन्म-समय, जन्म-स्थान, विवाह, मृत्यु आदि के बारे में वे प्रसिद्ध इतिहासकारों के शोध-निष्कर्षों का सहारा लेते हैं। इस अध्याय में वे मीरां की कृष्ण-भक्ति को उसके पितृकुल की परंपरा से जोड़ कर देखते हैं किन्तु साथ ही मीरां के प्रेम दीवानी रूप को खारिज़ भी करते हैं. उनके अनुसार मीरां एक आत्मसचेतस एवं स्वावलम्बी सामंत स्त्री थी। उसकी भक्ति, साहस और स्वेच्छाचार असामान्य नहीं थे। और वह जिस समाज में पली बढ़ी, उसमें इनके लिए पर्याप्त गुंजाइश और आज़ादी भी थी और कुछ हद तक इनकी स्वीकार्यता और सम्मान भी था. इस सामान्य जीवन में भी सत्ता संघर्ष, अंतकर्लह और बाह्य आक्रमणों की निरंतरता से उसके जीवन में मोड व पड़ाव बढ़ गए।

दूसरे अध्याय में लेखक का मानना है कि भले ही आम धारणा यह रही कि मीरां का समय और समाज ठंडा और ठहरा हुआ था किन्तु मीरां के समय का मध्यकालीन समाज जड़ नहीं था, उसमें गतिशीलता के पर्याप्त चिह्न मिलते हैं। मीरां की व्यापक लोक स्वीकृति और मान्यता ही इस बात का पर्याप्त सबूत है कि यह समाज अन्याय के प्रतिकार का सम्मान भी करता था और इस प्रतिकार के लिए जरूरी खाद-पानी भी मुहैया करवाता था। मीरां को अन्याय के प्रतिकार और अपनी शर्तों पर जीवन यापन का साहस और सुविधाएं इस समाज ने ही दी थी। पर प्रश्न है कि क्या इस गतिशील समाज में भी पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था की जकड़न स्त्रियों के लिए कम हो गई थी, और वह भी सामंती कुल की मर्यादा को चुनौती देने वाली विधवा स्त्री के लिए? क्या मीरां के भक्तिमूलक विद्रोह को मेवाड़ के तत्कालीन सामंती समाज में भी वैसी ही स्वीकार्यता मिल पाई, जैसी लोक में मिली? मीरां की भक्ति और विद्रोह की स्वीकार्यता लोक में तो व्यापक रूप से हुई, इसकी ओर लेखक ने यह कह कर इशारा किया है कि मीरां के विद्रोह में लोक अपनी कामनाओं को फलित होते देखता था। आलोचक के अनुसार मीरांकालीन समाज में लोक पूरी तरह उपेक्षित नहीं था. यह अपने को कई तरह से व्यक्त करता था और इसकी राय का महत्त्व भी था. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लेखक ने तमाम तथ्यों को परखने और अतीत में हुए शोध को जाँचने के बाद यह बात पुख्ता तौर पर कही है कि मीरां का समय और समाज उपनिवेशकालीन इतिहासकारों और इधर के कुछ स्त्री विमर्शकारों द्वारा गढ़ी गई धारणाओं से एकदम अलग था।

आलोचक माधव हाडा ने तीसरे अध्याय ‘धर्माख्यान’ में अपने पहले दो अध्यायों में दिए निष्कर्षों को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखा है जिसमें उन्होंने मीरां का असाधारण विद्रोही सामंत चरित्र और उसकी खास किस्म की लोकभक्ति को रेखांकित किया है. यह भक्ति मध्यकालीन प्रचलित भक्ति के चौखटों से बाहर की थी। भक्ति का यह खास लोकरूप जनसाधारण में भक्ति के तत्कालीन सांस्थानिक और सांप्रदायिक रूपों से ज्यादा लोकप्रिय हुआ। यह इस हद तक लोकप्रिय हुआ कि भक्ति के इन सांस्थानिक और सांप्रदायिक रूपों के लिए इसकी अनदेखी करना असंभव हो गया. आलोचक स्थापना देते हैं कि नाभादास के भक्तमाल में मीरां का निरंकुश और निडर स्त्री रूप उसके निर्मित भक्त रूप के नीचे पूरी तरह दबता नहीं है जबकि बाद की भक्तमाल टीकाओं में यह दब गया है. उनका यह भी मत प्रकट होता है कि यह जो आज की मीरां की छवि है यह ‘प्रियादास’ की बनाई हुई है. मीरां विषयक उल्लेख वल्लभ संप्रदायी दो ग्रंथों चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में आते हैं. ये दोनों ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं. मीरां की संप्रदाय निरपेक्ष खास किस्म की लोक भक्ति और चरित्र जनसाधारण में इतना लोकप्रिय हुआ कि परवर्ती वल्लभ संप्रदायी लोगों ने भी उसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया. इस दौरान लिखे गए चरित्र-आख्यानों में मीरां के भक्त रूप के साथ उसके ऐतिहासिक स्त्री मनुष्य का अनुभव और संघर्ष मुखर रूप में विद्यमान हैं.

चौथे अध्याय ‘कविता’ में प्रो. माधव हाड़ा मीरां की कविता के बारे में बात करते और कुछ नई और महत्त्वपूर्ण स्थापनाएं देते हैं. मीरां के संबंध में वे उसकी दो छवियों को चिह्नित करते हैं जो सर्वाधिक चलन में रहीं. मीरां की दो प्रचलित छवियां उसकी रहस्यवादी संत-भक्त और रूमानी कवयित्री की पारंपरिक छवि जिसे मध्यकालीन धार्मिक सांप्रदायिक चरित्र आख्यानों और उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने गढा है तथा दूसरी वंचित-उत्पीड़ित हाशिये की विद्रोही स्त्री की छवि जो लेखक के मत में कुछ वामपंथी आलोचकों और इधर के स्त्री विमर्शकारों की देन है. लेखक ने इन सभी छवियों से बनी मीरां का खंडन किया है तथा वे मीरां के स्वर को ‘हाशिए का स्वर’ नहीं मानते। इस अध्याय में माधव हाड़ा लिखते हैं: ‘मीरां पारंपरिक अर्थ में संत-भक्त नहीं थी, उसने राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध अपने विद्रोह को भक्ति के आवरण में व्यक्त किया, जिसके पर्याप्त साक्ष्य उसकी कविता में हैं।’ इन निर्मित छवियों के कारण मीरां के भौतिक स्त्री अस्तित्व का अनुभव और संघर्ष अनदेखा रह गया है. मीरां संत भक्त से पहले एक स्त्री है, जो अन्याय और दमन के प्रतिरोध में खड़ी है। उसका यह प्रतिरोध असाधारण और हाशिए का प्रतिरोध नहीं है। यह भारतीय समाज की निरंतर गतिशीलता का एक रूप है. औपनिवेशिक प्राच्यवाद और वामपंथियों और स्त्रीवादियों द्वारा गढ़ी गई मीरां की छवि का खंडन करते हुए वे लिखते हैं “मीरां की कविता में जो सघन अवसाद और दुख है उसका कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न नहीं था। यह खास प्रकार की घटना-संकुल ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण था, जिनमें मीरां को एक के बाद एक अपने लगभग सभी परिजनों की मृत्यु देखनी पड़ी और निराश्रित होकर निरंतर एक से दूसरी जगह भटकना पड़ा.” ये कथन भले ही आलोचक की स्थापना को विरोधाभासी बनाता हो किन्तु यह विरोधाभास तथ्यों एवं स्रोतों से उपजा है चूँकि मीरां की कविता में व्यवस्था के प्रति असंतोष, नाराज़गी और विद्रोह का जो उग्र और मुखर स्वर मिलता है, वो उसको उसके समकालीन संत-भक्तों से अलग सिद्ध करता है. आलोचक के अनुसार मीरां की कविता इस मामले में कुछ हद तक कबीर से भी आगे है. कबीर एक अमूर्त व्यवस्था को चुनौती देते हैं, जबकि मीरां एक साक्षात और जीवित शत्रु से लोहा लेती दिखती है. उसका विद्रोह उस राज, धर्म और लोक सत्ता के विरुद्ध है, जो शत्रु के रूप में उसके सामने, उसके समय में और उसके स्थान पर है. वह अपने शत्रु मेवाड़ के शासक को चुनौती हुई कहती है “तुम जावो राणा घर अपनो, मेरी-तेरी नहीं सरी.” सत्ता को ललकारने का उसका स्वर अक्सर बहुत उग्र और चुनौतीपूर्ण है।

आलोचक ने पांचवें अध्याय ‘कैननाइजेशन’ में मीरां के प्रतिमान बनने एवं इस छवि निर्माण की लम्बी परंपरा की ओर संकेत किया है. इतिहास में मीरां की रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री छवि का बीजारोपण उपनिवेशकाल में लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने किया, यह एक तरह से मीरां का कैननाइजेशन था. मीरां की यह छवि यथार्थपरक और इतिहाससम्मत नहीं थी. इसमें उसके जागतिक अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव को अनदेखा किया गया था. मीरां के इस छवि निर्माण में यूरोप के राजनीतिक और सैद्धांतिक हितों और राजपूताना के सामंतों और उनके अतीत के संबंध में टॉड के व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. इसी प्रकार पुस्तक के छठे अध्याय ‘छवि निर्माण’ में लेखक गीता-प्रेस, डायमंड पॉकेट बुक्स, अमर चित्रकथा, फिल्मों, भजन-संग्रहों के फ्लैप तक पर अंकित मीरां की विभिन्न छवियों की पड़ताल करते हैं. आजादी के बाद शिक्षा प्रसार हुआ, मुद्रण की तकनीक से पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं की उपलब्धता बढी और सिनेमा, रेडियो आदि नए प्रचार माध्यमों का विकास हुआ, जिससे मीरां पारंपरिक निर्मित छवि के प्रचार-प्रसार में तेजी आई। गीता प्रेस से छपी पुस्तकों ने मीरां के ऐतिहासिक मनुष्य स्त्री रूप को दरकिनार कर उसका ऐसा आदर्श हिन्दू स्त्री रूप गढा है, जिसने उनके अनुसार भारतवर्ष, हिन्दू जाति और नारी कुल को पावन और धन्य कर दिया. उन्होंने ऐसा करने के लिए नाभादास, प्रियादास आदि द्वारा वर्णित मीरां विषयक जनश्रुतियों के उपयोग साथ कुछ मौलिक उद्भावनाएं अपनी तरफ से भी कीं। अधिकांश लोकप्रिय ऑडियो कैसेट्स-सीडीज में भी मीरां की ऐसी रचनाएं संकलित की गई हैं, जो उसके भक्त और प्रेम दीवानी स्त्री रूप को ही पुष्ट करती है.

माधव हाडा की यह पुस्तक मीरां से जुड़े विषयों को शांत भले ही न करे किन्तु उन जड़ हो चुकी मान्यताओं को दरकाने का काम ज़रूर करती है. इस पुस्तक में ऐसा बहुत कुछ है, जो मीरां के जीवन और उसके समय के समाज को समझने के लिए एक नया प्रस्थान बिंदु बन सकता है. लेखक ने इस गहन शोध के लिए तथ्यों की ऐसी विपुल और विविधतापूर्ण सम्पदा एकत्रित की है जो पाठक में अकुलाहट पैदा करते हैं तथा ज़रूरी सवाल खड़े करती है. वे अपने शोध और निष्कर्षों में पुरातनपंथी और अतीताग्रही नहीं दिखाई पड़ते बल्कि लोक जीवन के प्रति उनका अनुराग इस अध्ययन को प्रभावी और पठनीय बनाता है. मीरा की जिंदगी से जुड़े प्रवादों, जनश्रुतियों और ऐतिहासिक सचाइयों का विवेचन करती यह पुस्तक विभिन्न दृष्टिकोणों से गढ़ी गई अनेक मीरांओं में से सबसे प्रामाणिक छवि वाली मीरां की तलाश में एक नए विमर्श की शुरुआत है. 



मीरां का जीवन और समाज
पचरंग चोला पहर सखी री
लेखक: माधव हाड़ा
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
मूल्य: 375 रु.