Saturday, April 25, 2015

पचरंग चोला पहर सखी री

अक्सर हम समाज में शताब्दियों से चली आ रही धारणाओं को ही अंतिम निष्कर्ष मानकर उन्हें ही पोषित करते रहते हैं किन्तु धीरे धीरे समय बदलता है और उन धारणाओं पर समय सन्देह करता है, उसपर वाज़िब सवाल उठाए जाते हैं. उनकी शिनाख्त और पड़ताल की जाती है और जो तर्क की तुला पर सटीक नहीं बैठता, उसमें नए निष्कर्ष जोड़े जाते हैं. अपने समाज की तरह हिंदी साहित्य भी प्रचलित धारणाओं को सत्य एवं अंतिम मानकर उन पर निर्भर रहता है. ऐसे में अगर ऐसी धारणाएं मध्यकाल के साहित्य या साहित्यकार के सन्दर्भ में मिथकीय छवि से जुडी हों तो उन पर सवाल उठाना, उनमें परिवर्तन की माँग करना अपने आप में साहस का काम है. हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ भी आलोचक माधव हाड़ा के इसी साहस का परिचय देती है. देखा जाए तो यह पुस्तक पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘अकथ कहानी प्रेम की’ की कड़ी से जुडती पुस्तक है जिसमें कबीर के समान ही मीरा के संबंध में प्रचलित धारणाओं पर प्रश्न उठाए गए हैं. अब तक मीरा के जीवन को तरह तरह से पढ़ा और गढ़ा गया है. डॉ. माधव हाड़ा ने इस निर्मिति को ऐतिहासिक साक्ष्यों के आलोक में देखा-परखा है. यह ‘प्रेम दीवानी’ मीरा की छवि नहीं है. सामन्ती सत्ता संघर्ष में एक सचेत सामंत स्त्री किस तरह से असाधारण भूमिका का निर्वाह करती है. इसी आलोक में यह पुस्तक अपनी बात कहती है. इसी सन्दर्भ में आलोचक ने पुस्तक में कहा भी है कि “वह मीरां जिसे हम जानते हैं अपनी असल मीरां से बहुत दूर आ गई है. यह दूरी बनाने और बढ़ाने का काम मीरां के अपने समय से ही हो रहा है. असल मीरां अभी भी लोक इतिहास, आलोचना, धार्मिक आख्यान और आलोचना विमर्श में है लेकिन वह इन सब में कट छंट और बंट गई है.”



आलोचक माधव हाड़ा की यह पुस्तक ऐतिहासिक, समकालिक एवं देशभाषा स्रोतों और व्यवहारों को गंभीरता से पढ़ते हुए नए निष्कर्षों पर पहुँचती है. यह एक विचारोत्तेजक शैली में लिखी गई तथ्यपरक और ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक है जो अपने हर सवाल के साथ अब तक अनुपलब्ध रहे अनेक तथ्यों को प्रस्तुत करती है. पुस्तक का पहला वाक्य है: ‘मीरां का ज्ञात और प्रचारित जीवन गढ़ा हुआ है.’ इन गढ़ी गई छवियों में मुख्य हैं- गीता प्रेस की आदर्श हिंदू पत्नी, टॉड की प्रेम-दीवानी, संत-भक्तों के बीच मीरां की रहस्यात्मक छवि और वामपंथियों तथा स्त्रीवादियों द्वारा गढ़ी असाधारण विद्रोही स्त्री की छवि. मीरां से संबद्ध केवल दृष्टिकोण ही नहीं, तथ्य भी गढ़ लिए गए हैं, भले ही उनका आधार जनश्रुतियाँ हों. लेखक का प्रयास इन गढ़ी गई अनेक ‘मीरांओं’ में से मीरां की प्रामाणिक छवि की तलाश करना ही है। यह पुस्तक छह अध्यायों में विभक्त है, जो सिलसिलेवार ढंग से मीरां के जीवन, समाज, धर्माख्यान, कविता, कैननाइजेशन और छवि निर्माण पर केंद्रित हैं। 

इस पुस्तक के पहले अध्याय में माधव हाड़ा मीरां की रूढ़, पारंपरिक और गढ़ी गई छवियों को सप्रमाण तोड़ते हैं। मीरां के जन्म-समय, जन्म-स्थान, विवाह, मृत्यु आदि के बारे में वे प्रसिद्ध इतिहासकारों के शोध-निष्कर्षों का सहारा लेते हैं। इस अध्याय में वे मीरां की कृष्ण-भक्ति को उसके पितृकुल की परंपरा से जोड़ कर देखते हैं किन्तु साथ ही मीरां के प्रेम दीवानी रूप को खारिज़ भी करते हैं. उनके अनुसार मीरां एक आत्मसचेतस एवं स्वावलम्बी सामंत स्त्री थी। उसकी भक्ति, साहस और स्वेच्छाचार असामान्य नहीं थे। और वह जिस समाज में पली बढ़ी, उसमें इनके लिए पर्याप्त गुंजाइश और आज़ादी भी थी और कुछ हद तक इनकी स्वीकार्यता और सम्मान भी था. इस सामान्य जीवन में भी सत्ता संघर्ष, अंतकर्लह और बाह्य आक्रमणों की निरंतरता से उसके जीवन में मोड व पड़ाव बढ़ गए।

दूसरे अध्याय में लेखक का मानना है कि भले ही आम धारणा यह रही कि मीरां का समय और समाज ठंडा और ठहरा हुआ था किन्तु मीरां के समय का मध्यकालीन समाज जड़ नहीं था, उसमें गतिशीलता के पर्याप्त चिह्न मिलते हैं। मीरां की व्यापक लोक स्वीकृति और मान्यता ही इस बात का पर्याप्त सबूत है कि यह समाज अन्याय के प्रतिकार का सम्मान भी करता था और इस प्रतिकार के लिए जरूरी खाद-पानी भी मुहैया करवाता था। मीरां को अन्याय के प्रतिकार और अपनी शर्तों पर जीवन यापन का साहस और सुविधाएं इस समाज ने ही दी थी। पर प्रश्न है कि क्या इस गतिशील समाज में भी पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था की जकड़न स्त्रियों के लिए कम हो गई थी, और वह भी सामंती कुल की मर्यादा को चुनौती देने वाली विधवा स्त्री के लिए? क्या मीरां के भक्तिमूलक विद्रोह को मेवाड़ के तत्कालीन सामंती समाज में भी वैसी ही स्वीकार्यता मिल पाई, जैसी लोक में मिली? मीरां की भक्ति और विद्रोह की स्वीकार्यता लोक में तो व्यापक रूप से हुई, इसकी ओर लेखक ने यह कह कर इशारा किया है कि मीरां के विद्रोह में लोक अपनी कामनाओं को फलित होते देखता था। आलोचक के अनुसार मीरांकालीन समाज में लोक पूरी तरह उपेक्षित नहीं था. यह अपने को कई तरह से व्यक्त करता था और इसकी राय का महत्त्व भी था. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लेखक ने तमाम तथ्यों को परखने और अतीत में हुए शोध को जाँचने के बाद यह बात पुख्ता तौर पर कही है कि मीरां का समय और समाज उपनिवेशकालीन इतिहासकारों और इधर के कुछ स्त्री विमर्शकारों द्वारा गढ़ी गई धारणाओं से एकदम अलग था।

आलोचक माधव हाडा ने तीसरे अध्याय ‘धर्माख्यान’ में अपने पहले दो अध्यायों में दिए निष्कर्षों को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखा है जिसमें उन्होंने मीरां का असाधारण विद्रोही सामंत चरित्र और उसकी खास किस्म की लोकभक्ति को रेखांकित किया है. यह भक्ति मध्यकालीन प्रचलित भक्ति के चौखटों से बाहर की थी। भक्ति का यह खास लोकरूप जनसाधारण में भक्ति के तत्कालीन सांस्थानिक और सांप्रदायिक रूपों से ज्यादा लोकप्रिय हुआ। यह इस हद तक लोकप्रिय हुआ कि भक्ति के इन सांस्थानिक और सांप्रदायिक रूपों के लिए इसकी अनदेखी करना असंभव हो गया. आलोचक स्थापना देते हैं कि नाभादास के भक्तमाल में मीरां का निरंकुश और निडर स्त्री रूप उसके निर्मित भक्त रूप के नीचे पूरी तरह दबता नहीं है जबकि बाद की भक्तमाल टीकाओं में यह दब गया है. उनका यह भी मत प्रकट होता है कि यह जो आज की मीरां की छवि है यह ‘प्रियादास’ की बनाई हुई है. मीरां विषयक उल्लेख वल्लभ संप्रदायी दो ग्रंथों चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में आते हैं. ये दोनों ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं. मीरां की संप्रदाय निरपेक्ष खास किस्म की लोक भक्ति और चरित्र जनसाधारण में इतना लोकप्रिय हुआ कि परवर्ती वल्लभ संप्रदायी लोगों ने भी उसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया. इस दौरान लिखे गए चरित्र-आख्यानों में मीरां के भक्त रूप के साथ उसके ऐतिहासिक स्त्री मनुष्य का अनुभव और संघर्ष मुखर रूप में विद्यमान हैं.

चौथे अध्याय ‘कविता’ में प्रो. माधव हाड़ा मीरां की कविता के बारे में बात करते और कुछ नई और महत्त्वपूर्ण स्थापनाएं देते हैं. मीरां के संबंध में वे उसकी दो छवियों को चिह्नित करते हैं जो सर्वाधिक चलन में रहीं. मीरां की दो प्रचलित छवियां उसकी रहस्यवादी संत-भक्त और रूमानी कवयित्री की पारंपरिक छवि जिसे मध्यकालीन धार्मिक सांप्रदायिक चरित्र आख्यानों और उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने गढा है तथा दूसरी वंचित-उत्पीड़ित हाशिये की विद्रोही स्त्री की छवि जो लेखक के मत में कुछ वामपंथी आलोचकों और इधर के स्त्री विमर्शकारों की देन है. लेखक ने इन सभी छवियों से बनी मीरां का खंडन किया है तथा वे मीरां के स्वर को ‘हाशिए का स्वर’ नहीं मानते। इस अध्याय में माधव हाड़ा लिखते हैं: ‘मीरां पारंपरिक अर्थ में संत-भक्त नहीं थी, उसने राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध अपने विद्रोह को भक्ति के आवरण में व्यक्त किया, जिसके पर्याप्त साक्ष्य उसकी कविता में हैं।’ इन निर्मित छवियों के कारण मीरां के भौतिक स्त्री अस्तित्व का अनुभव और संघर्ष अनदेखा रह गया है. मीरां संत भक्त से पहले एक स्त्री है, जो अन्याय और दमन के प्रतिरोध में खड़ी है। उसका यह प्रतिरोध असाधारण और हाशिए का प्रतिरोध नहीं है। यह भारतीय समाज की निरंतर गतिशीलता का एक रूप है. औपनिवेशिक प्राच्यवाद और वामपंथियों और स्त्रीवादियों द्वारा गढ़ी गई मीरां की छवि का खंडन करते हुए वे लिखते हैं “मीरां की कविता में जो सघन अवसाद और दुख है उसका कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न नहीं था। यह खास प्रकार की घटना-संकुल ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण था, जिनमें मीरां को एक के बाद एक अपने लगभग सभी परिजनों की मृत्यु देखनी पड़ी और निराश्रित होकर निरंतर एक से दूसरी जगह भटकना पड़ा.” ये कथन भले ही आलोचक की स्थापना को विरोधाभासी बनाता हो किन्तु यह विरोधाभास तथ्यों एवं स्रोतों से उपजा है चूँकि मीरां की कविता में व्यवस्था के प्रति असंतोष, नाराज़गी और विद्रोह का जो उग्र और मुखर स्वर मिलता है, वो उसको उसके समकालीन संत-भक्तों से अलग सिद्ध करता है. आलोचक के अनुसार मीरां की कविता इस मामले में कुछ हद तक कबीर से भी आगे है. कबीर एक अमूर्त व्यवस्था को चुनौती देते हैं, जबकि मीरां एक साक्षात और जीवित शत्रु से लोहा लेती दिखती है. उसका विद्रोह उस राज, धर्म और लोक सत्ता के विरुद्ध है, जो शत्रु के रूप में उसके सामने, उसके समय में और उसके स्थान पर है. वह अपने शत्रु मेवाड़ के शासक को चुनौती हुई कहती है “तुम जावो राणा घर अपनो, मेरी-तेरी नहीं सरी.” सत्ता को ललकारने का उसका स्वर अक्सर बहुत उग्र और चुनौतीपूर्ण है।

आलोचक ने पांचवें अध्याय ‘कैननाइजेशन’ में मीरां के प्रतिमान बनने एवं इस छवि निर्माण की लम्बी परंपरा की ओर संकेत किया है. इतिहास में मीरां की रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री छवि का बीजारोपण उपनिवेशकाल में लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने किया, यह एक तरह से मीरां का कैननाइजेशन था. मीरां की यह छवि यथार्थपरक और इतिहाससम्मत नहीं थी. इसमें उसके जागतिक अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव को अनदेखा किया गया था. मीरां के इस छवि निर्माण में यूरोप के राजनीतिक और सैद्धांतिक हितों और राजपूताना के सामंतों और उनके अतीत के संबंध में टॉड के व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. इसी प्रकार पुस्तक के छठे अध्याय ‘छवि निर्माण’ में लेखक गीता-प्रेस, डायमंड पॉकेट बुक्स, अमर चित्रकथा, फिल्मों, भजन-संग्रहों के फ्लैप तक पर अंकित मीरां की विभिन्न छवियों की पड़ताल करते हैं. आजादी के बाद शिक्षा प्रसार हुआ, मुद्रण की तकनीक से पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं की उपलब्धता बढी और सिनेमा, रेडियो आदि नए प्रचार माध्यमों का विकास हुआ, जिससे मीरां पारंपरिक निर्मित छवि के प्रचार-प्रसार में तेजी आई। गीता प्रेस से छपी पुस्तकों ने मीरां के ऐतिहासिक मनुष्य स्त्री रूप को दरकिनार कर उसका ऐसा आदर्श हिन्दू स्त्री रूप गढा है, जिसने उनके अनुसार भारतवर्ष, हिन्दू जाति और नारी कुल को पावन और धन्य कर दिया. उन्होंने ऐसा करने के लिए नाभादास, प्रियादास आदि द्वारा वर्णित मीरां विषयक जनश्रुतियों के उपयोग साथ कुछ मौलिक उद्भावनाएं अपनी तरफ से भी कीं। अधिकांश लोकप्रिय ऑडियो कैसेट्स-सीडीज में भी मीरां की ऐसी रचनाएं संकलित की गई हैं, जो उसके भक्त और प्रेम दीवानी स्त्री रूप को ही पुष्ट करती है.

माधव हाडा की यह पुस्तक मीरां से जुड़े विषयों को शांत भले ही न करे किन्तु उन जड़ हो चुकी मान्यताओं को दरकाने का काम ज़रूर करती है. इस पुस्तक में ऐसा बहुत कुछ है, जो मीरां के जीवन और उसके समय के समाज को समझने के लिए एक नया प्रस्थान बिंदु बन सकता है. लेखक ने इस गहन शोध के लिए तथ्यों की ऐसी विपुल और विविधतापूर्ण सम्पदा एकत्रित की है जो पाठक में अकुलाहट पैदा करते हैं तथा ज़रूरी सवाल खड़े करती है. वे अपने शोध और निष्कर्षों में पुरातनपंथी और अतीताग्रही नहीं दिखाई पड़ते बल्कि लोक जीवन के प्रति उनका अनुराग इस अध्ययन को प्रभावी और पठनीय बनाता है. मीरा की जिंदगी से जुड़े प्रवादों, जनश्रुतियों और ऐतिहासिक सचाइयों का विवेचन करती यह पुस्तक विभिन्न दृष्टिकोणों से गढ़ी गई अनेक मीरांओं में से सबसे प्रामाणिक छवि वाली मीरां की तलाश में एक नए विमर्श की शुरुआत है. 



मीरां का जीवन और समाज
पचरंग चोला पहर सखी री
लेखक: माधव हाड़ा
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
मूल्य: 375 रु.

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