Sunday, February 24, 2019

प्रगतिशीलता की कसौटी पर प्रेमचंद



वैचारिकी के स्तर पर देखा जाए तो आज की पैर तले की ज़मीन, जिस पर हम खड़े हैं, उसकी उर्वरा को मापने के लिए पीछे मुड़कर झाँकना ज़रूरी हो जाता है कि हमने अपनी यात्रा कहाँ से शुरू की थी, क्या उस ज़मीन की बंज़र और उर्वरा के प्रतिशत में कुछ घटा-बढ़ा है. हाल ही में प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर नवलकिशोर की पुस्तक 'प्रेमचंद की प्रगतिशीलता' प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा ही प्रत्यावलोकन का प्रयास करता प्रयास है. हिंदी की नई पीढ़ी के रचनाकारों में हमेशा कुछ लिखते और छपते रहने की होड़ को आज के समय में सहजता से देखा जा सकता है. संभवतः इसके पीछे जो कारण है वह यह है कि न लिखते रहने से कहीं उन्हें पुरातन युग का रचनाकार न मान लिया जाए. निश्चय ही ऐसी सोच तथा ऐसी होड़ साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है. भले से कम लिखना किन्तु सार्थक लिखना साहित्य के लिए ज्यादा बेहतर मूल्य है. ऐसे में यह पुस्तक आलोचक प्रोफेसर नवलकिशोर की इकतालीस वर्षों बाद आई नई पुस्तक है. साहित्य जगत में लम्बे इंतज़ार के बाद आई यह पुस्तक हिंदी आलोचना के लिए एक शुभ घटना है.


इससे पूर्व आलोचक नवलकिशोर की पुस्तक ‘मानववाद और साहित्य’ तथा ‘आधुनिक हिंदी उपन्यास और मानवीय अर्थवत्ता’ प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी यह नई पुस्तक 'प्रेमचंद की प्रगतिशीलता' कथाकार प्रेमचंद के महत्व को फिर से एक नई दृष्टि से देखने की कोशिश करती है. यह पुस्तक इस मायने में भी अनूठी है कि प्रेमचंद का साहित्य बहुधा उपलब्ध हो जाता है किन्तु उनकी रचनाओं एवं विचारों पर किताबे लगभग दुर्लभ हैं. इस पुस्तक के बहाने प्रेमचंद को नए सिरे से देखने-समझने तथा पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया गया है.


किसी भी पुस्तक को आकार देना कोई क्षण भर की क्रिया नहीं होती, बल्कि यह एक लंबी प्रक्रिया एवं पूर्वपीठिका का परिणाम होता है, आलोचक नवलकिशोर ने भी लंबे समय तक समाज के विभिन्न वैमनस्यों एवं अनुदारवादी रवैयों से क्षुब्ध होकर प्रेमचंद एवं उससे पूर्व एवं बाद के साहित्य के आईने में आज की परिस्थितियों एवं स्थितियों की तलाश की तथा पाया कि इतनी असहिष्णुता एवं अनुदारता पहले भी नहीं थी, जितनी विपरीत स्थितियां अब हो गई हैं.! लेखक ने समाज में मानवीयता को ओतप्रोत करने के लिए इस पुस्तक में प्रेमचंद के कथा साहित्य की मानवीय अर्थवत्ताओं को थोड़ा और उजागर करने की कोशिश की है. यदि हम साहित्य के माध्यम से समाज में मानवीय सद्गुणों का संचार करना चाहते हैं तो यह कहना अनुचित ना होगा कि हमें एक बार पुनः प्रेमचंद की ओर लौटना होगा चूँकि जो प्रेमचंद अपने निर्वाण के आठ दशक बाद भी आज के समय में उतने ही प्रासंगिक हैं बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा.! किसान तब भी त्रस्त थे, किसान आज भी त्रस्त हैं बल्कि आज समय की भयावहता इस क़दर है कि किसान आत्महत्या करने को विवश है.


आलोचक नवल किशोर ने इस पुस्तक में हिंदी उपन्यास में प्रेमचंद का महत्व, प्रेमचंद साहित्य में मानवीय अर्थवत्ताओं, यथार्थवाद-राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों तथा उत्तर औपनिवेशिक समय खंड के दौरान प्रेमचंद की प्रगतिशीलता का विश्लेषण करने का प्रयास किया है. 'हिंदी उपन्यास में प्रेमचंद का महत्व' अध्याय में आलोचक नवलकिशोर ने यह स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने साहित्य में उपन्यास को मंत्र-तंत्र, जादू-टोना तथा कल्पनाओं के बवंडर से बाहर निकालकर उसे मनुष्य के जीवन से जोड़ा. एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं. साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है. बीसवीं शताब्दी के साहित्य का विशेष महत्व इसलिए भी है कि कुलीनता और अभिजात्य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य की पीड़ा-दर्द को समझने की चेष्टा की , साथ ही अस्मिताओं के लिए किए गए संघर्ष को भी अपने साहित्य का प्रतिपाद्य बनाया. उसी कड़ी में प्रेमचंद को जीवन से जुड़े साहित्य के पुरोधा के रूप में देखा जा सकता है.


उनकी कृतियां उनकी मानवतावादी दृष्टि के क्रमिक विकास की सूचक हैं. इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि प्रेमचंद की रचनाओं में 'स्टैग्नेशन' नहीं है, वे ठहराव के बरअक्स अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज को इवॉल्व करते चलते हैं. यही कारण है कि हिंदी उपन्यास ने आधुनिकता एवं जनसाधारण का जुड़ाव प्रेमचंद के उपन्यासों से दिखाई देता है. आलोचक ने विवेचनात्मक ढंग से प्रेमचंद से पूर्व से प्रारंभ करते हुए उनके बाद के उपन्यासों के उदाहरणों को तुलनात्मक ढंग से कोट करते हुए गोदान को उनकी मानवतावादी दृष्टि की भव्य परिणति घोषित किया है. नवल किशोर लिखते हैं कि "यह उपन्यास सामाजिक ढांचे को पूरी तरह बदलने का और न्याय पूर्ण मानवीय व्यवस्था की स्थापना का आह्वान बन गया है.!" उन्होंने यह भी कहा कि "प्रेमचंद की परंपरा के प्रति सम्मान का वास्तविक अर्थ यही हो सकता है कि एक लेखक से उनकी तरह जन साधारण से जुड़ने की उम्मीद की जाए.!"


प्रेमचंद को समय के साथ-साथ एक खाँचे में बांधने की कई बार कोशिश की गई. कभी उन्हें आदर्शवादी, कभी यथार्थवादी तो कभी गांधीवादी तो कभी मार्क्सवादी-साम्यवादी तो कभी इससे भी काम न बन सका तो उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवादी घोषित कर संतोष पाने का जतन किया गया, किंतु सही मायनों में प्रेमचंद को किसी भी ''वाद' में बाँधा एवं परिभाषित नहीं किया जा सकता. यह उन्हें एवं उनके साहित्य को एक सीमा में बांध देना होगा. यदि हम तार्किक ढंग से देखे तो प्रेमचंद केवल मानवता के पक्षधर थे. उन्होंने समय के साथ हर वाद से समाज को सुंदर एवं बेहतर बनाने तथा समाज का कल्याण करने वाली हर प्रवृत्ति को अपने साहित्य में स्थान दिया. यही कारण है कि प्रेमचंद एक सीमित दायरे में ना बंध कर समय के साथ आए हर परिवर्तन में से कल्याणकारी एवं सुंदरतम को चुन लेते हैं. आलोचक नवलकिशोर ने स्पष्ट किया कि "प्रेमचंद ने लेखन का आरम्भ समाज सुधार की भावना से किया था, लेकिन जल्दी ही उनकी चिंता का प्रमुख विषय किसान की मुक्ति हो गया. उन पर गांधी जी के व्यक्तित्व और विचारों का गहरा असर हुआ था." अपने आदर्शवादी दौर में प्रेमचंद गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हुए किंतु जीवन अनुभवों के साथ वे यथार्थवाद की ओर बढ़ते चले गए, इसी प्रकार जैसे ही समाजवादी क्रांति ने सारी दुनिया के पददलितों को मुक्ति का एक संभव तथा सन्निकट भविष्य दिया तो ऐसे में प्रेमचंद जैसे जन पक्षधर लेखक का रूसी क्रांति और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होना स्वाभाविक ही था. वे संपत्ति के समान वितरण की आधारभूत समाजवादी संकल्पना से परिचित थे. इसी के चलते साम्यवाद की ओर उनका झुकाव हुआ. इस प्रकार समय के साथ-साथ प्रेमचंद का हर वैचारिकी की ओर झुकाव हुआ किंतु इसे भी झूठलाया नहीं जा सकता कि उन्हें समय दर समय मोहभंग भी हुआ जो कि उनकी रचनाओं में साफ तौर पर 'रिजेक्शन' के रूप में देखा जा सकता है.



प्रेमचंद कुछ समय के लिए राष्ट्रवादी भी होते हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रेमचंद कुछ अवधि के लिए गांधीवादी भी हुए, जिसका पूरा असर उनके उपन्यास 'रंगभूमि' में परिलक्षित होता है. किंतु वे उसके बाद की समसामयिक स्थितियों को देखते हुए गांधीवाद को रिजेक्ट कर देते हैं उसके बाद सीधे तौर पर उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में निरा यथार्थ है. आलोचक नवलकिशोर ने यह लिखा भी है कि "हम प्रेमचंद को कितने ही अलग-अलग बिंदुओं से समझे, हमारी दृष्टि में उनके उचित मूल्यांकन का साहित्यिक प्रतिमान यथार्थवादी बना रहेगा. कम से कम उनके प्रसंग में यह अप्रासंगिक नहीं हुआ है." किंतु फिर भी उन्हें किसी सीमा में बांधना उनके साथ अन्याय होगा क्योंकि उन्होंने समसामयिकता के दबाव में लिखा और खूब लिखा, लेकिन कलाकार की सहज चेतना के साथ. इसलिए हम देखते हैं कि ज्यों-ज्यों वे यथास्थिति का साक्षात्कार करते गए, उनकी कृतियों में कथा चरित्र परिस्थितियां अधिकाधिक विश्वसनीयता लेकर आती रही और उन्हें वे बेहतर कौशल से ढालते गए.

जहाँ तक प्रश्न प्रेमचंद के कथा साहित्य के उत्तर औपनिवेशिक पाठ का है, तो प्रेमचंद का साहित्य समतावादी समाज के सपनों को जगाए रखने की प्रेरणा देने वाला साहित्य है. प्रेमचंद की समाजवादी दृष्टि किसी निश्चित विचारधारा पर आधारित भले ना हो, लेकिन उसमें गांधी के 'आख़िरी आदमी' के कल्याण की चिंता का समावेश अवश्य है. वे साहित्य के माध्यम से समाज को गति एवं दिशा देना चाहते थे. आलोचक नवलकिशोर ने प्रेमचंद को कालजयी लेखक कहा है उनके अनुसार ‘‘कालजयी लेखक वही होता है जिसकी रचनाएं उसके और उसके समय के प्रति मानव के व्यतीत होने पर भी पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ी जाती रहे, ऐसा तभी होता है जब वह उनके लिए प्रासंगिक बना रहता है. अपने समय के सरोकारों को व्यापक मानवीय सरोकार बनाकर जब लेखक एक ऐसे माध्यम से प्रकट करता है जो हमें अपनी विशिष्टता से अभिभूत करता है तो हमारे लिए वह हमारा समकालीन बन जाता है. यह विशेषता उसकी कला साधना का अर्जित पुरस्कार है. इस मायने में प्रेमचंद एक बड़े कलाकार भी हैं.’’



प्रेमचंद ने वर्षों पहले कहा था कि कोई भी समाज तब तक विकास या प्रगति नहीं कर सकता जब तक उस समाज के किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की दशा नहीं सुधरती. उन्हें मनुष्य नहीं माना जाता, प्रेमचंद के इस कहन की जबकि हम हीरक जयंती मना चुके हैं तब भी स्थिति यह है कि हाशिए की पट्टी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है. मुक्ति की चाह लिए हुए समाज का यह हिस्सा आज भी शोषण-अन्याय से पीड़ित है. जब पंछी धरती के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध अपनी पहली उड़ान भरता है तब जिस ऊर्जा से वह संचालित होता है, वह होती है - मुक्ति की चाह और उड़ान की अकुलाहट. समाज के इस हिस्से की आँखों में आज भी मुक्ति का स्वप्न और उन्मुक्त आकाश में उड़ पाने की अकुलाहट बनी हुई है. 'प्रेमचंद की आवाज़' अध्याय में आलोचक नवलकिशोर ने प्रेमचंद की इसी दृष्टि को विश्लेषित किया है. प्रेमचंद ने जातिवाद के अंतर्गत दलित दमन को बगावत की हद तक नंगा किया है, थोड़े में कहें तो वे मूक अनपढ़ अवाम की आवाज बने. उन्होंने दलितों एवं स्त्रियों के साथ होने वाले अत्याचारों एवं शोषण को आवाज दी. मेरा मानना है कि दलित जीवन पर उठाए गए प्रेमचंद के ज्यादातर सवाल जोकि उनकी रचनाओं के माध्यम से प्रकट होते हैं. वे सभी डॉ अंबेडकर की अपेक्षा गांधी जी के विचारों के अधिक करीब हैं. प्रेमचंद अपने पात्रों को आर्थिक एवं सामाजिक बदहाली दोनों प्रकार के शोषण का शिकार दिखाते हैं, क्योंकि दोनों से निकले बिना उनकी हालत में सुधार संभव नहीं है. समग्रता में कहें तो प्रेमचंद साहित्य हर तरह के जुल्म से मनुष्य के छुटकारे की आकांक्षा का साहित्य है. मानव मुक्ति के चिरकाल संचित यूटोपिया का साहित्य है. 


इस पुस्तक की विशेष उपलब्धि इसके दो अध्याय ‘गोदान - दांपत्य की एक अपूर्व कथा’ तथा ‘प्रेमचंद की प्रगतिशीलता - बज़रिये नामवर सिंह समारंभ’ है. जोकि विशेष रूप संग्रहणीय हैं. आलोचक ने गोदान पर इतने सटीक ढंग से पुनर्पाठ किया है कि कई बीते युग की परिभाषाएँ धूमिल होकर नई व्याख्याएँ गढ़ी जाएँ. होरी और धनिया के दाम्पत्य को जिस रूप में देखने की दृष्टि दी है, वह अपने आप में नयी और अप्रचलित है. इस पुस्तक के अंतिम अध्याय को एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में भी देखा जा सकता है. इस अध्याय में प्रसिद्ध आलोचक नामवर जी के द्वारा प्रेमचंद एवं उनकी प्रगतिशीलता पर लिखी गई आठ पुस्तकों के विवेचनात्मक अध्ययन पर लिखे गए आलेखों पर आलोचक नवलकिशोर ने मूल्यांकनपरक प्रकाश डाला है. संयोग यह है कि अभी हाल ही में 19 फरवरी 2019 को नामवर जी का निधन हो गया. हिंदी आलोचना का एक शिखर परकोटा ढह गया. ठीक इसी समय प्रेमचंद के बहाने नामवर जी के इस मूल्यांकन को पढ़ना अपने आप में समीचीन हैं. नामवर जी मार्क्सवादी हैं लेकिन उन्होंने प्रेमचंद की प्रगतिशीलता का भाष्य उनके समय संदर्भ में ही किया है बिना मार्क्सवादी चश्मा लगाए. 


बहरहाल यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद जैसे लेखक के बहाने प्रगतिशील विचार पर यह पुस्तक निश्चय ही प्रेरक और पथ-प्रदर्शक सिद्ध होगी. आलोचक की यह कृति नयी पीढ़ी में कालजयी कथाकार प्रेमचंद के महत्त्व की पुनर्स्थापना करेगी. आलोचक ने इस पुस्तक में प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य कालक्रम को गुण-दोषों सहित देखा है. यह पुस्तक भारतीय सैद्धांतिक आलोचना में योगदान देती विशिष्ट पुस्तक है जो प्रेमचंद को देखने का, समझने का एक नया नज़रिया देती है तथा प्रेमचंद की प्रासंगिकता को विविध माध्यमों से सामने लाती है. जब तक समाज नहीं बदलेगा, तब तक प्रेमचंद प्रासंगिक रहेंगे. प्रेमचंद के बिना हम समाज को नहीं समझ सकते. आज भी स्थिति कमोबेश वैसी सी ही है. इस रूप में यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है. 





प्रेमचंद की प्रगतिशीलता - नवलकिशोर 

प्रकाशन संस्थान, दिल्ली मूल्य – 300 रुपये, प्रकाशन 2019