रेल का उद्घोषण सा-
व्यवस्था खुद जड़ है
व्यक्ति को भी जड़ कर देती है
पुरज़े की तरह इस्तेमाल करती है
सर्वाइवल फिटेस्ट जानो तो
मशीन में घिसे पुरज़े सा फिट हो जाना है
फिट नहीँ हुए तो
तोल के भाव कबाड़ में बिक जाना है।
ऐन वक़्त रेल की सीटी बज गाड़ी खुल जाती है।
सपने हैं, सपने देखने वाली आँखें हैं और उन स्वप्निल आँखों में है- स्वप्न में जीवन या जीवन में स्वप्न की उधेड़बुन। बस इसी उधेड़बुन से लड़ती और जूझती हुई ...