कार्यक्रम समाप्त होते ही, बड़े कलाकार पर्दे पर आने लगे, शाम के दो सितारे - नाटककार असग़र वज़ाहत एवं मुख्य अभिनेता निर्देशक टॉम ऑल्टर केंद्र में थे, पूरे भरे सभागार ने तालियों की गड़गड़ाहटो से अपनी प्रसन्नता एवं उत्साह को प्रकट किया । दर्शकों एवं कलाकारों के बीच ऐसा रोमांचक तालमेल नाट्यकला के लिए काफ़ी अनूठा है । इस कार्यक्रम में असग़र वज़ाहत के नाटक "यदी" की प्रस्तुति थी, वज़ाहत को भारतीय नाट्य में उनके योगदान के लिए वर्ष 2014 का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया था, अभिमंच में एसएनए के द्वारा यह कार्यक्रम हाल ही में पुरस्कार प्राप्त विजेता कलाकारों की रचनात्मकता का उत्सव मनाने के लिए आयोजित किया गया था ।
वास्तव में, हालिया वर्षों में असग़र अपने प्रसिद्ध नाटक 'जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्याई नई' के हिंदी थिएटर कलाकारों के साथ लोकप्रिय हो गए हैं । हबीब तनवीर द्वारा श्रीराम सेंटर रिपर्टरी कंपनी के लिए चार दशक पहले इस नाटक का निर्देशन किया गया था, तब से इस नाटक ने समकालीन हिंदी नाट्यशास्त्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है । इन वर्षों में, विदेशों में इसका मंचन किया गया, विशेष रूप से एक पाकिस्तानी समूह द्वारा इसका मंचन किया गया है, जिसे भारत रंग महोत्सव में भी दिखाया गया था । दिल्ली के एक कलाप्रेमी समूह ने इस नाटक का मंचन पचास से अधिक बार किया है । अब इस नाटक का मंचन राजधानी दिल्ली में पंजाबी एवं सिंधी में किया जा रहा है । उनका एक और नाटक "अन्ना की आवाज़" है जिसका पहला प्रदर्शन सत्तर के दशक में किया गया था, जोकि थिएटर कलाकारों को रोमांचित करता है । असग़र की कृति का मूल भाव उसकी संयम कलात्मकता, दृढ़ता, भाषा की सरलता है जोकि दर्शकों के दिल को छू जाती है । वे लच्छेदार भाषा, भावुकता और बौद्धिकता से बचते हैं, वे अधिकांश गंभीर विचारों को व्यक्त करने के लिए सरल भाषा के प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके नवीनतम नाटक "यदी" में उन सभी विशेषताओं को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है जो ऐतिहासिक तथ्यों को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए प्रयोग की जाती है - एक ऐसी काल्पनिक स्थिति जिसमें गांधी जीवित हैं और गोडसे उनका हत्यारा है । दोनों आमने-सामने बात करते हैं- जेल की बैरक में जहां वे दोनों ठहरे हुए हैं । काल्पनिक स्थिति में, नाटक गांधी से शुरू होता है, जहाँ वे कांग्रेस पार्टी के सरकार बनाने के फैसले का विरोध करने के लिए आमरण अनशन करते हैं, उन्होंने स्वयं को नेहरू और पटेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस से अलग कर लिया है । गांधी ने कांग्रेस सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों को स्वीकार करने से इनक़ार कर दिया । गाँधी अपने अहिंसा और सत्य के विचारों को आगे बढ़ाने की दृष्टि से, एक सुदूर आदिवासी क्षेत्र में जाते हैं तथा स्वराज की अपनी अवधारणा को अमलीज़ामा पहनाते हैं । गांधी के स्वराज के प्रति जन प्रतिक्रिया से घबराया कांग्रेस शासन उन्हें जेल में डाल देता है ।
विडंबना यह है कि गांधी उसी जेल में हैं जहां गोडसे को पहले से ही रखा गया है । वह गांधी को नापसंद करता है एवं राष्ट्र का दुश्मन मानता है । गांधी उसी बैरक में रहना चाहते हैं, जहां गोडसे को रखा गया है । जेल अधिकारियों पर गांधी की इच्छा पूरी करने का दबाव बनाया जाता है । इससे उनके बीच टकराव की एक ऐसी श्रृंखला बनती चली जाती है, जिसमें कुछ मनोरंजक, गंभीर तथा कुछ मैत्रीपूर्ण हैं । यहां शांति और अहिंसा का उपासक व्यक्ति, एक ऐसे अति अनुदार प्रतिक्रियावादी के ह्रदय में परिवर्तन लाने के लिए दृढ़ संकल्पित है जो रुग्ण हिंदुत्व में आस्था रखता है ।
इस कथा के तीन सिरे हैं- कांग्रेस पार्टी के द्वारा सामाजिक कार्य का एक साधन बनाने के लिए भंग करने के बजाय सरकार बनाने के विरुद्ध गांधी का मजबूत विरोध, गांधी द्वारा आदिवासी क्षेत्र में स्वराज की अवधारणा को लागू करना तथा गांधी का आश्रम के निवासियों द्वारा ब्रह्मचर्य पालन करने का दूरगामी विचार । इन तीनों सिरों को विपरीत विचारधारा वाले दो पुरुषों के विचारों के टकराव और समाधान पर ध्यान देने के लिए कथानक की मूल संरचना में बुना जाना आवश्यक है । लेकिन उन्हें कथानक में कसाव लाने के लिए एकीकृत नाटकीय संरचना में विलय नहीं किया जाता है ।
निर्देशक टॉम ऑल्टर ने अपने प्रस्तुतीकरण को सरल रंग-योजना के साथ डिजाइन किया था तथा दृश्यों को इस तरह से तैयार किया कि वे दर्शकों को प्रत्यक्षतया स्पष्ट हों । प्रधानमंत्री नेहरू के कार्यालय का दृश्य एक ऊँचे मंच पर स्थापित किया गया है, जो उनके और जनता के बीच आई व्यापक दूरी का प्रतीक है तथा प्रधानमंत्री राज्य की नौकरशाही संरचना के दलदल में कहीं खो गए हैं, जोकि गांधी की स्वराज की अवधारणा के अनुसार एक अभिशाप है ।
टॉम ऑल्टर ने गांधी की मुख्य भूमिका में हिंदी में अपनी पंक्तियों को पूर्ण निष्ठा के साथ प्रदर्शित किया है । हमने उन्हें पहले ही पियरोट की मंडली के लिए एम. सईद आलम द्वारा निर्देशित कई प्रस्तुतियों में उर्दू के संवाद प्रस्तुत करते सुना है । उनके गांधी सघन भावनात्मक स्थिति में भी शांत रहते हैं, उनके गांधी केवल एक बार क्रोध को दबाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि आश्रम में युवा प्रेमियों ने ब्रह्मचर्य के कठोर अनुशासन को तोड़ दिया है । अपनी गहरी प्रतिबद्धता और बातचीत की एक प्रेरक शैली के माध्यम से, वह गोडसे का सामना करते हैं । प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रूप में बेंजामिन गिलानी एक मज़बूत प्रस्तुति देते हैं । हरीश छाबड़ा को गांधी के साथ एक हिंदू कट्टरपंथी के रूप में शुरुआती टकरावों में अपने रूपांतरण को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए अपनी तीव्र घृणा और बदले की भावना का प्रकटीकरण करना चाहिए था । अनिल जॉर्ज, जेलर के रूप में गोडसे के साथ बैरक साझा करने के लिए गांधी को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक पुलिस अधिकारी की चिंता को यथोचित पकड़ते हैं ।
लेख- ‘द हिन्दू’ से
अनुवाद – अनुपमा शर्मा