Wednesday, April 3, 2019

लुई फिशर और गाँधी



लुई फिशर का जन्म सन् I896 में फिलाडेल्फिया की झुग्गियों में हुआ था, एक निश्चित कार्यकाल तक स्कूल शिक्षक एवं फिलिस्तीन में यहूदी सेना के सदस्य के रूप में कार्य करने के बाद, लुई फिशर जर्मनी से यूरोप को कवर करने वाले पत्रकार बन गए तथा फिर, 1922 में मास्को में आधारित संवाददाता बन गए । पाश्चात्य से उनका मोहभंग एवं पूंजीवाद के विकल्प के प्रति उत्कंठा, जोकि लोगों से पहले मुनाफे को रखता था, अर्थात् कि वे साम्यवादी प्रयोग के प्रति सहानुभूति रखते थे और इसकी अंतिम सफलता की उम्मीद करते थे । वे सोवियत संघ में एक लंबी अवधि तक रहे तथा उस दौरान उन्होंने देश और उसके नेताओं के बारे में कई किताबें लिखीं । 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध तथा 1939 की निंदनीय सोवियत-नाजी संधि के बड़े पैमाने पर परीक्षण एवं क्रियान्वयन के बाद उनका मोहभंग हुआ । उन्हें अनुभव हुआ कि 'प्रणाली' की चिंता के दायरे में अपने नागरिकों की देखभाल के बजाय आत्म-संरक्षण अधिक है, उन्होंने अपने अतीत से नाता तोड़कर स्टालिन से गांधी की ओर रुख किया । वे 1942 में पहली बार भारत आए तथा जून माह में सेवाग्राम आश्रम में महात्मा गांधी के साथ एक सप्ताह बिताया । तत्पश्चात उन्होंने गांधी और स्टालिन की तुलना करते हुए एक पुस्तक लिखी तथा जिसे सर्वप्रथम 1950 में पूर्ण रूप से प्रकाशित किया, और संभवतः गांधी के जीवन की सबसे लोकप्रिय जीवनी यही थी । 1960 के दशक के दौरान उन्होंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया । 1970 में उनका निधन हो गया । 


मैं जल्दी उठा और सेवाग्राम जाने के लिए गांधी के दंत चिकित्सक के साथ एक ताँगा लिया, चूँकि गाँधी जब जेल में नहीं थे, तब यह गाँव ही गाँधी का घर था । दंत चिकित्सक ने कहा कि इंग्लैंड 'एक समझदार संचालक’ था । मैंने उनसे गांधी के बारे में बात करने का प्रयास किया । उन्होंने राजनीति पर बात करने पर जोर दिया । 


ताँगा रुक गया । मैं उतर गया और वहाँ पर भूरी और सफ़ेद काया के लम्बे- गाँधी खड़े थे । मैं लंबे, तेज कदमों से उनकी ओर बढ़ा । उन्होंने अपने हाथ दो महिलाओं के कंधों पर रखे हुए थे, जो उनके दोनों ओर चल रहीं थीं । उनकी पतली भूरी टाँगें उनके लंगोट तक नग्न थीं । उनके पैरों में चमड़े के सैंडल; कंधे के चारों ओर एक जालीदार कपड़ा; सिर पर एक सफेद रूमाल बंधा था । उन्होंने अंग्रेजी उच्चारण के साथ कहा, 'श्रीमान् फिशर,’ और हमने एक-दूसरे से हाथ मिलाया । उन्होंने दंत चिकित्सक का अभिवादन किया और मुड़ गए, मैं उनके पीछे-पीछे गया, वहाँ एक सपाट, मोटा तख़्त था, जो दो धातु के कुंडों से जुड़ा हुआ था । वे बैठ गए, उन्होंने अपना हाथ बोर्ड पर रखा और कहा, बैठिए । उन्होंने कहा, ‘जवाहरलाल ने मुझे आपकी पुस्तक और आपके व्यक्तित्व के बारे में बताया है, और हमें आपके यहाँ होने से प्रसन्नता है । आप कब तक रहने वाले हैं ?’ मैंने कहा कि मैं कुछ दिन रह सकता हूँ । 



उन्होंने आह्लादित होकर कहा 'ओह, 'तब हम ज्यादा बात कर पाएंगे ।' 


एक युवक उनके पास आया, उनके पैरों में झुक गया, और ऊपर-नीचे होने लगा । गाँधी ने धीरे से कहा, 'बस, बस' । मैंने कल्पना की, कि इसका तात्पर्य 'पर्याप्त' है, और बाद में पाया कि मेरा अनुमान ठीक था । शीघ्र ही दो अन्य युवकों ने भी ऐसा ही किया और फिर से गांधी ने उन्हें वही कहकर अलग कर दिया । 


मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने रहने के लिए इसी गाँव का चयन क्यों किया । उन्होंने कुछ-कुछ कहा, तथा उन्होंने एक नाम का उल्लेख किया जो मुझे समझ नहीं आया, और कहा कि उसने उनके लिए इस गाँव को चुना था । मैंने कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन उन्होंने ध्यान दिया कि मैं भारतीय नाम नहीं समझ पाया हूँ, और तब उन्होंने कहा कि मीरा बेन मिस स्लेड थी, जो एक अंग्रेज महिला थी, वे लंबे समय से उनके साथ जुड़ी हुई थी । उन्होंने बताया कि यह उनका विचार था कि उन्हें भारत के मध्य में एक गाँव में रहना चाहिए, और उन्होंने उन्हें स्थान खोजने के लिए कहा था । उनकी गाँव के अंदर रहने की इच्छा नहीं थी चूँकि यहाँ बहुत गन्दगी तथा अशांति थी । 'यहाँ बाह्य सीमाक्षेत्र में रहना बेहतर विकल्प है ।' दंत चिकित्सक ने नकली दांतों के बारे में बात करना शुरू कर दिया, और गांधी ने उन्हें समझाया कि उनके द्वारा लगाए गए सेट से काटना दोषपूर्ण है । एक महिला पानी से भरे पीतल के कटोरे और कृत्रिम दांतों के तीन सेट लेकर आई, और मैंने जाने का निर्णय लिया । गांधी ने कहा, 'आप मेरे साथ शाम और सुबह में सैर पर चलेंगे, तथा हमारे पास बात करने के और अवसर होंगे ।' मैंने अभिवादन किया और चला गया । [...] 


ग्यारह बजे जब मुझे भूख लगी, [आश्रम का सदस्य] कुर्शेड [नौरोजी] मुझे गांधी के घर ले गए, जो कि अतिथि गृह से सौ गज की दूरी पर था । यह एक मंज़िला जगह, जिसमें चटाई की दीवारें और खराब लाल टाइल्स की छत है । मैंने अपने शयनकक्ष की चप्पलें बाहर के सीमेंट स्टेप पर छोड़ दीं और अंदर चला गया और उस छोटे से अंतःकक्ष में आ गया, जहाँ से मैं घर के मुख्य कक्ष को देख सकता था । गांधी ज़मीन पर सफ़ेद फूस पर लेटे हुए थे, और उनका एक शिष्य उनके इस बिस्तर के निकट ज़मीन पर बैठा हुआ था एवं उसने एक रस्सी खींची जिसमें एक बोर्ड लगा था, जिसमें से एक काला कपड़ा लटका हुआ था, जिसे छत से लटकाया गया था । यह एक बिजली के पंखे का कार्य करने वाला था । गांव में बिजली नहीं है । गांधी ने उठकर मुझसे कहा, 'अब अपने जूते और टोपी पहन लें । ये दोनों यहाँ अपरिहार्य चीजें हैं । लू मत लगवा लेना । एक महिला ने उनके सिर के लिए एक गीला कपड़ा दिया । फिर, कुर्शेड पर एक हाथ रखकर, जो उनके साथ एक कदम चला, उसने मुझे दोस्ताना अंदाज में कहा, 'साथ आओ' । हम दो घरों से गुजरे और चटाई से बने एक कॉमन डाइनिंग हॉल में आए । मैंने अपने जूते बाहर छोड़ दिए, जैसा कि गांधी ने किया था, मैंने अपने हेलमेट को कुर्शेड को दे दिया, उसने दीवार पर एक खूंटी पर उसे टांग दिया, और जमीन पर बैठ गया, जिसकी ओर गांधी ने संकेत किया था, दोनों ने उन्हें बैठा दिया । [..] 


डाइनिंग हॉल में तीसरी पिछली दीवार से जुड़ी दो लंबी दीवारें हैं । जहां से व्यक्ति प्रवेश करता है, वह स्थान आने-जाने के लिए खुला है । प्रवेश द्वार के पास जग और भोजन की थाली से भरी एक मेज है । औरतें अलग बैठती हैं । मैंने कुछ चमकीली-आंखों वाले, भूरे-चेहरे वाले बच्चों को देखा, उनमें से कुछ तीन, पांच या आठ वर्ष की उम्र के बच्चे आश्रम के सदस्यों के बच्चे थे । शीघ्र ही प्रत्येक व्यक्ति के सामने एक पीतल की थाली थी, और कई वेटर नंगे पैर, बिना शोर किए थाली में भोजन परोस रहे थे । गांधी के सामने कई बर्तन और प्याले रखे गए थे । उन्होंने उन बर्तनों को खोला और अपने आस-पास के लोगों को भोजन परोसना शुरू किया । मुझे पानी से भरा पीतल का एक गिलास दिया गया था । गांधी ने मुझे पीतल का एक कटोरा दिया जिसमें सब्जी का भर्ता था जिसमें मुझे लगा कि मैंने कटे हुए पालक के पत्ते और स्क्वैश के टुकड़े डाल दिए हैं । फिर उन्होंने एक धातु पात्र को खोला और मुझे एक सख्त, कागज जितनी पतली गेहूँ के आटे की चपाती दी । एक महिला ने मेरी थाली में कुछ नमक डाला और मुझे गर्म दूध का कटोरा दे दिया । जल्द ही वह अपनी मिरजई में दो उबले हुए आलू और कुछ नरम, सपाट गेहूँ की भूरे रंग की सेंकी हुई चपाती लेकर आई । गांधी ने मेरी ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा, 'मैं आपको भोजन परोस रहा हूं, किन्तु आपको प्रार्थना होने तक नहीं खाना है ।' मैंने उनसे कहा कि मैं देख रहा था कि बच्चे अपने भोजन को नहीं छू रहे हैं और इसलिए मुझे पता था कि मुझे भी नहीं छूना चाहिए । [...] 


गांधी भोजन करते हुए केवल अपनी पत्नी, कुर्शेड, देव, और मुझे भोजन परोसने के लिए रुकते थे । उनके हाथ लंबे और उंगलियां बड़ी और सुडौल हैं । उनके घुटनों के उभार स्पष्ट दिखाई देने वाले तथा उनकी हड्डियाँ चौड़ी और मजबूत हैं । उनकी त्वचा चिकनी और साफ है । बर्तन में हाथ डालते हुए उनके हाथ नहीं कांपते । उनकी पत्नी फूस के पंखे से लगातार उनकी हवा कर रही थी । वे मूक आत्म-विलोपन की प्रतीक लगती थी । 


एक बार गांधीजी ने रोककर यह कहा, 'आप चौदह वर्षों तक रूस में रहे हैं । स्टालिन के बारे में आपकी क्या राय है ? ' 


मुझे बहुत गर्मी महसूस हो रही थी, और मेरे हाथ भी चिपचिपा रहे थे, इसलिए मैंने संक्षेप में उत्तर दिया, 'बेहद योग्य एवं बेहद निर्मम ।‘ 


'हिटलर जितना निर्मम ?' गांधी ने पूछा । 


’कम से कम' - मैंने उत्तर दिया । [...] 


मुझे अपनी एड़ियों का पता चल रहा था । मेरा बहुत सारा भार उन पर टिका हुआ था । भारतीयों को पता है कि अपने शारीरिक वजन को कैसे बांटना है, किन्तु मैंने नहीं सीखा था । मैं अपने एक पैर पर खड़ा हुआ, तथा थोड़ा और आरामदायक महसूस करने लगा । गांधी ने मुझसे कहा, 'मुझे लगता है कि आप कुछ खामोश से हो गए हैं ।' 


'नहीं, मैंने उत्तर दिया, मुझे भोजन आश्चर्यजनक रूप से अच्छा लगा था । 


उन्होंने कहा, 'तुम जितना चाहो, पानी पी सकते हो । हम ठीक प्रकार से ध्यान रखते हैं कि यह उबला हुआ हो । और अब आपको अपना आम खाना चाहिए । 


मैंने कहा कि मैं अन्य लोगों को इसे खाते हुए देख रहा था, और अब मैं अपने जीवन में पहली बार इसे खाऊँगा । कुर्शेड ने सुझाव दिया कि यहाँ से जाने पर मुझे स्नान की आवश्यकता होगी । मैंने आम को छीलना शुरू कर दिया । गांधी तथा अन्य लोग हँसने लगे । गांधी ने बताया कि वे आमतौर पर इसे अपने हाथों में दबाते हैं और इसे नरम बनाने के लिए इसे निचोड़ते हैं, और फिर सामग्री को चूसते हैं, लेकिन मुझे यह देखने के लिए छीलना उचित लगा कि क्या यह अच्छा था । उन्होंने कहा, 'आप हमारी तरह आम खाने के लिए तैयार होने के साहस पर एक पदक अर्जित करेंगे ।' मैंने भोजन समाप्त कर लिया था और कुर्शेड ने अपने सिर से संकेत दिया कि मैं गांधी के उठने से पहले जा सकता हूं । मैंने अभिवादन किया, और अपनी टोपी और जूते लिए, और निकल गया । कुर्शेड ने कहा कि गांधी से तीन बजे भेंट होगी । [...] 


तीन बजने से कुछ मिनट पहले, गांधी के घर से मेरे घर को अलग करने वाली सौ गज तक की गर्म बजरी और रेत पर मैं चलने लगा । मुझे अनुभव हुआ कि गर्मी ने मेरे सिर के पूरे अंतः भाग को सुखा दिया । तापमान एक सौ दस था । जब मैंने गांधी के कमरे में प्रवेश किया, तो सफेद रंग के लिबास में छह आदमी उनके कमरे में फर्श पर बैठे थे । काली साड़ी में एक महिला पंखे की रस्सी खींच रही थी । कमरे में केवल एक सजावट थी, एक कांच का काला और सफ़ेद जीसस क्राइस्ट का चित्र, जिस पर शब्द छपे थे, 'वह हमारी शांति है' । गांधी उस फूस के बिस्तर पर बैठ गए । उनकी पीठ के पीछे एक बोर्ड था तथा बोर्ड और उनकी पीठ के बीच एक तकिया था । वे सुनहरे रंग का चश्मा पहने हुए थे, तथा फाउंटेन पेन से एक पत्र लिख रहे थे । उन्होंने पैर की पालथी लगाईं हुई थी । उन्होंने एक घुटने पर छोटा बोर्ड रखा था और बोर्ड पर वह पैड रखा था जिस पर वे लिख रहे थे । हाथ से बने लकड़ी के स्टैंड में छेद में तीन अन्य फाउंटेन पेन लगे थे । उनके बिस्तर के बाईं ओर फर्श पर बड़े करीने से कुछ किताबें रखी हुई थीं । उन्होंने मुझसे कहा, पंखा हिलाने वाली महिला की तुलना में, आओ यहाँ सबसे ठंडी जगह पर बैठो, । मैं एक कोने में बैठ गया और चटाई पर अपनी पीठ टिका ली । गांधी ने कहा, यदि आप बुरा नहीं मानते हैं, तो ये लोग यहां रहेंगे । ये बात नहीं करेंगे । यदि आप आपत्ति करते हैं, तो ये जा भी सकते हैं । देव और देसाई, तथा आश्रम के कई अन्य सदस्य वहाँ थे, जिनमें कुर्शेड भी शामिल था । मुझे सभी के साथ रहकर साक्षात्कार का विचार कुछ ख़ास पसंद नहीं आया, लेकिन मैंने कहा, 'नहीं' और व्यवस्थित हो गया । 


'अब मैं पूरी तरह से आपके नियंत्रण में हूं,' गांधी ने घोषणा की । 


*अनुवाद*

(सौजन्य: लुई फिशर, ए वीक विथ गांधी, लंदन: हार्पर कॉलिन्स ।)