Thursday, November 2, 2017

पाण्डे सदन -इन्दिरा दाँगी



कहा जाता है कि साहित्य में वही रचना टिकेगी, जिसमें मनुष्य के माध्यम से यथार्थ की कसौटी पर जीवन में व्यक्त होने वाली सच्चाई मिलेंगी, इसी तर्ज़ पर देखा जाए तो नई कहानी में प्रकट हुए वैयक्तिक चित्रण के बाद यह संदेह होने लगा था कि कहानियों में सामाजिक परिप्रेक्ष्य लुप्तप्राय है किन्तु हिंदी कहानी की विकास यात्रा के क्रम में आए समकालीन कहानी के दौर में कहानियों में वैयक्तिक चित्रण के साथ-साथ सामाजिक परिप्रेक्ष्य एवं सामाजिक संघर्षशीलता भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है और वह कहीं से भी कहानी पर थोपी हुई नहीं, बल्कि जीवन प्रसंगो में संदर्भों के चित्रण के माध्यम से स्वाभाविक रूप से विकसित होती मालूम पड़ती है ।


साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित इंदिरा दांगी ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी कहानी में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । उनकी कहानी ‘पाण्डे सदन’, परिस्थितियों की जटिलताओं में मानव मन की संवेदना को संश्लिष्ट करते हुए मनुष्य को एक विभाजित व्यक्तित्व में तब्दील होते जाने की कहानी है, जहां मनुष्य एक साथ एक से अधिक स्तरों पर जीने के लिए विवश है । इंदिरा दाँगी की यह कहानी बिजली चली जाने से लेकर, बिजली के आ जाने तक के उन चार घंटों की कहानी है जिसमें गर्मी की उमस एवं ऊब के बीच चार बहनों के बीच पिता के देहांत के बाद छूटे हुए घर पाण्डे सदन को बेचने के लिए हुए विवाद एवं संवाद में पसरी हुई उनकी लाचारियाँ और अपनी व्यथाएं शामिल है ।


अपनी इस सीधी सपाट कहानी में भी इंदिरा दांगी बहुआयामी नजर आती है संपत्ति का विवाद जहां सदियों से पुत्रों के बीच होता आया है अब चूँकि आचार्य जी का कोई पुत्र नहीं है तो चारों पुत्रियों में से तीन पुत्रियाँ पिता के पीछे छूटे उस घर को बेच अपना अपना हिस्सा लेना चाहती हैं । कहानी की पृष्ठभूमि कुछ ऐसी है कि चार बहनों में से तीन बहने अपने ससुराल में अपने-अपने पति और बच्चों के साथ रहती हैं तथा संझली बेटी कनक वैधव्य की शिकार हो अपनी दोनों बेटियों को लेकर पिता के घर में रहती है । यह कहानी सदियों पुरानी उस पितृसत्तात्मक संरचना को भी कटघरे में ला खड़ा करती है, जिसमें स्त्री अपने पिता, पति, पुत्र के आदेशों से चलती है । यहां भी कनक की तीनो बहने अपने अपने पतियों एवं पुत्रों के आदेश पर ही घर बेचने का इरादा लेकर आई हैं । यहां भी इन स्त्रियों को ड्राइव करने वाला पुरुष ही है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि अपनी विधवा बहन के लिए उनके मन में कोई दया भाव एवं लगाव नहीं है किंतु अपनी विवशताओं में वे इस कदर घिरी हुई हैं कि अपने संवेदनात्मक पक्ष को नजरअंदाज करती हैं हालांकि रितु का अपना निजी स्वार्थ है इस घर को बेचकर पैसा लेने का, किन्तु वह निजी स्वार्थ भी कहीं ना कहीं इन्हीं शक्तियों से संचालित है ।


इंदिरा दांगी की यह कहानी इस पितृसत्तात्मक समाज के साथ-साथ अपने समकालीन कहानीपन में महानगरीय जीवन बोध को भी इंगित करती हैं । आज का महानगरीय जीवन जिस ऊब, मोहभंग एवं एकाकीपन को जन्म दे रहा है वह भी एकदम से घटित नहीं हुआ है, अपितु यह ऊब महानगर की जीवन पद्धति, विभिन्न परिस्थितियों, इनसे उपजी समस्याओं एवं इन समस्याओं से लड़ते-जूझते मनुष्य की मानसिकता से जनित है, जो उसे एक खंडित व्यक्तित्व में ढाल देती है । जहां व्यक्ति जीवन को एक विशेष ढांचे में जीने के लिए विवश है, जिसमें वह संवेदना के स्तर पर शून्य होने लगता है तथा जिसका स्थान स्वार्थ लेने लगता है । कनक की तीनो बहने अपने-अपने जिस महानगरीय अवसाद एवं एकाकीपन से गुजर रही हैं, उसी का निमित्त यह कुंठा है जिसके चलते वे अपने-अपने इन दबावों में जानते-बूझते हुए भी कनक से घर बेचने की बात करते हैं ।


सभी अपने-अपने जीवन के दबाव से दबी हुई है, जिसमें संपन्नता का एक छद्म आवरण वे एक दूसरे को दिखाना चाहती हैं किन्तु भीतर ही भीतर एक दूसरे की एवं अपनी सच्चाई से रूबरू हैं । इस कहानी में एक स्थान पर वाक्य आता है – “कमरे की उमस में लौटना ही जैसे नियति है..!” इस वाक्य में इन बहनों की ही नहीं, आज के समाज की पूरी नियति सिमटी हुई है जिसमें जीवन की यह उमस भरी ऊब ही सबके जीवन का अंतिम सत्य बन गई है । मनुष्य विकल्प की तलाश में इधर से उधर दौड़ता ज़रूर है किन्तु लौटता अन्ततः उसी अकेलेपन में है ।


यह कहानी अपने कलेवर में कई अन्य मुद्दे भी शामिल किए हुए है जिसमें दहेज प्रथा, प्रेम-संबंध इत्यादि भी हैं । इस कहानी में इन्दिरा दाँगी भारतीय समाज के उस ताने-बाने को भी प्रतिबिंबित करती हैं जिसमें पति, पत्नी को मारता, मायके से संपत्ति लाने के लिए बाधित करता हुआ दिखाई देता है । इसके साथ ही इंदिरा दांगी की यह कहानी महानगरों की उन विडंबनाओं को भी प्रस्तुत करती है जिसमें कामकाजी माता पिता की संतान किस प्रकार मशीनी होने के लिए विवश है । संतान की देखभाल एवं पालन-पोषण के लिए उनके पास समय नहीं है, जीवन की आपाधापी के बीच संबंधों का होता जाता ह्रास सोचनीय है । भौतिक जीवन किस प्रकार अन्तर्मन को खोखला करता जाता है, यह इस कहानी में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।


भाषा के स्तर पर इंदिरा दांगी एक संपन्न कहानीकार हैं । उनकी कहानियों में एक बढ़िया किस्सागोई के अंदाज के साथ-साथ सुगठित भाषा भी है जिसमें संस्कृति की छाप है मुहावरेदार शब्दों का तथा उनकी संस्कृति के भदेस शब्दों की अच्छी-खासी तादाद है । कुल मिलाकर इंदिरा दांगी की यह कहानी कई आयामों पर खुलकर बात करती कहानी है । 



कहानी – पाण्डे सदन 
कहानीकार – इन्दिरा दाँगी 
*कथानक पत्रिका में प्रकाशित