Sunday, July 26, 2015

राष्ट्रवाद की अवधारणा और भारतेंदु युगीन साहित्य




राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रीयता की संकल्पना आधुनिक विश्व के सबसे शक्तिशाली विचारों में से एक है जिसे लेकर समय समय पर विचार भी किया गया. राष्ट्रीयता की अवधारणा को भले ही यूरोप के राजनीतिक इतिहास का उत्पाद माना गया. भारत में भी इसका प्रवेश साम्राज्यवादी शक्तियों से ही हुआ. राष्ट्रीयता को विमर्श के अखाड़े में कभी राजनीतिक माना गया तो कभी आध्यात्मिकता से जोड़ा गया. राष्ट्रीयता की इन भिन्न भिन्न मान्यताओं के बरअक्स भारतीय राष्ट्रीयता विशेषकर हिंदी भाषाभाषी क्षेत्र की राष्ट्रीयता की संकल्पना पर विचार करती युवा आलोचक प्रमोद कुमार की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘राष्ट्रवाद की अवधारणा और भारतेंदु युगीन साहित्य’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी है.

भारतेंदु युगीन साहित्य के प्रति बरती गयी एकरसता को तोड़ते हुए पिछले कुछ समय से भारतेंदु युग और उस समय के साहित्य पर नए सिरे से विचार करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. यह पुस्तक भी उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हिंदी भाषी प्रदेश में रचे गए साहित्य के विश्लेषण के माध्यम से देश में राष्ट्रीयता की चेतना के विकास की पड़ताल करती है. लेखक ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्रीयता की यूरोपीय अवधारणा से काफी पहले से भारत के पास एक अपना राष्ट्र-बोध मौजूद था, जिसका आधार कोई अविच्छिन्न राजनैतिक सत्ता नहीं बल्कि सांस्कृतिक-भौगोलिक एकता थी. औपनिवेशिक शासन के स्थापित होने के बाद इन दोनों धारणाओं में जबरदस्त मगर दिलचस्प टक्कर हुई. भारतेंदु युग के साहित्य की चेतना इस द्वंद्व के बीच ही निर्मित हुई. राष्ट्रीयता की हमारी वर्तमान अवधारणा भी इस द्वंद्व से मुक्त नहीं है. लेखक प्रमोद कुमार की यह पुस्तक भाषा, धर्म, और राष्ट्रीयता के संदर्भ में भारतेंदु युगीन साहित्य का आलोचनात्मक विश्लेषण करती चलती है. यह पुस्तक चार अध्यायों में विभक्त हिंदी प्रदेशों की तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आधार पर वैचारिक यात्रा करती हुई भाषिक विमर्श से होते हुए धर्म की कसौटी पर हिंदी भाषी बौद्धिकों की धार्मिक चेतना के विभिन्न आयामों को निष्पादित करती हुई उस समय लिखे जा रहे गद्य को जातीयता बनाम राष्ट्रीयता की तुला पर विश्लेषित करती है जिसमे भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन के विचारपरक निबंधों के विश्लेषण के आधार पर जातीयता/राष्ट्रीयता सम्बन्धी मान्यता को प्रस्तावित किया गया है साथ ही भारतेंदु के कुछ नाटकों, प्रहसन पंचकों को भी इस पुस्तक में विश्लेषित कर अपनी मान्यता को निर्धारित करने का प्रयास किया गया है. इस युग में एक नई तरह की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ जिसकी अभिव्यक्ति ‘देशवत्सलता’ के रूप में बड़ी अच्छी तरह से होती है. यह देशवत्सलता इस समय की साहित्यिक और राजनीतिक चर्चा का एक प्रमुख विषय और उद्देश्य था. अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति के द्वंद्व के बावजूद इन सभी लेखकों का साहित्य भारत में राष्ट्रीयता के विकास का काम करता है.

लेखक प्रमोद कुमार की यह पुस्तक भारतेंदु युगीन साहित्य के सापेक्ष राष्ट्रीयता की धारणा के माध्यम से समाज के 'स्वत्व' को जानने एवं पहचानने के उपक्रम के रूप में महत्वपूर्ण ढंग से कारगर सिद्ध हो सकती है चूँकि उस दौर का हिंदी साहित्य अपने में हिंदी भाषी समाज के सामूहिक अवचेतन को समेटे हुए है जो अपनी नितान्त भिन्न वैचारिकी निर्मित करता है. यह ऐसा समय था जब एक ओर कांग्रेस जैसी संस्था के माध्यम से राजनीतिक स्तर पर राष्ट्रीयता की चेतना पैदा की जा रही है, वहीँ दूसरी ओर साहित्य सामान्य जन और परम्परा के आधार पर राष्ट्रीयता के सांस्कृतिक-भौगोलिक बोध की प्रस्तावना की जा रही है. ऐसे में लेखक का यह प्रयास विशेष रूप से सराहनीय है.



पुस्तक- राष्ट्रीयता की अवधारणा और भारतेन्दुयुगीन साहित्य
लेखक-  प्रमोद कुमार 
अनुज्ञा प्रकाशननई दिल्ली-32,  
मूल्य - 495 रु.