Wednesday, May 13, 2015

VERDICT..!


Because I Do Not Want To Choose Between Life & Death
I Refused To Perish, I Denied To Escape
I'm Strong Enough In Pretending Of Being Strong
Disclosure With It, It's Imitation Today
And The Notion With It, Will Become Habit Someday 
Afterall
I AM NOT AN ESCAPIST.!!



अनुज की कहानी 'ओढ़नी' पर टीप



नवम्बर 2012 में आई कहानी 'अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया...' से लम्बे इंतज़ार के बाद 'परिकथा' पत्रिका के मई-जून 2015 अंक में कहानीकार अनुज एक बार फिर से अपनी अगली कहानी 'ओढ़नी' के साथ पाठकों के सामने हैं. यह कहानी उनकी पिछली कहानियों से कथ्य के स्तर पर भिन्न होते हुए भी पिछली कहानियों की कड़ी में जुड़ती हुई समाज की झकझोर कर रख देने वाली विद्रूपताओं को सामने लाती कहानी है। कहानी पाठक से भरपूर संवाद करती हुई जातीय अस्मिताओं का सवाल उठाती है. सदियों से चली आ रही मैला ढोने की प्रथाओं के आड़ में उच्च जातीय गर्व किस प्रकार पनपता है और यहाँ से किस प्रकार शोषण की एक लम्बी या कहें अनवरत चलने वाली परंपरा की नींव रखी जाती है यह कहानी निर्मला और रतलाम के माध्यम से एक ओर मर्मस्पर्शी ढंग से मैला ढोने वाले शोषित दलित वर्ग की समस्याओं को बयान करती है तो दूसरी ओर चौधरी गगन सिंह संकरिया और मुंशी के माध्यम से समाज और व्यवस्था का नृशंस चेहरा सामने लाती है। कहानी के अंत में निर्मला की लाश से उड़ती सड़ांध इस व्यवस्था और उसके द्वारा दलित वर्ग के उत्थान के लिए किये जा रहे काग़जी अधिनियमों एवं सुधारों से उड़ती सड़ांध का प्रतीक है जिसमें मैला ढोने पर कागज़ी निषेध तो कर दिया गया है किन्तु क्रियान्वयन के नाम पर कोई आउटकम नहीं और उसपर भी भूमि और आर्थिक संसाधनों पर संकरिया जैसे लोगों का आधिपत्य क़ायम है जो अपनी ताक़त से किसी भी आन्दोलन का दमन करने से पीछे नहीं रहते और प्रतिरोधी स्वर का हश्र निर्मला जैसा कर दिया जाता है। इस कहानी में रतलाम जैसे चरित्र को, जो समाज के शोषित वर्ग के प्रति संवेदनशील मानवीय भाव रखने वाला और इस व्यवस्था-शोषक वर्ग के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाला है वह भी अपनी अंतिम परिणति में इस व्यवस्था के मध्य स्वयं को ठगा हुआ, अकेला और अर्द्धविक्षिप्त पाता है. असल में विक्षिप्त अवस्था में रतलाम जो ऊँची दीवार बना रहा है और कह रहा है- "देख डमरू, यहीं बनेगी मूर्ति, गाँधी जी के ठीक सामने, गाँधी जी के बराबर...सुन्दर-सी मूर्ति।" वह ऊँची दीवार और मूर्ति ही वह सपना है जो गाँधीजी ने देखा था। एक ऐसा समाज जिसमें कोई जात-पात न हो, ऊंच-नीच न हो, मनुष्यत्व के अधिकार से किसी को किसी की गंदगी न ढोनी पड़े..!! कहानीकार अनुज की यह कहानी समाज और व्यवस्था की नब्ज़ टटोलती और अपनी नर्व्स में इस असुन्दर होते समाज को सुन्दर बनाने का सपना लिए हुए है जो कथ्य शैली उद्देश्य में एक सफल एवं सार्थक कहानी है। 

अथ (साहित्य : पाठ और प्रसंग)

कहा जाता है कि आज के साहित्यिक विमर्शों की दुनिया में मौलिकता के नाम पर नया कुछ नहीं बचा है और जो नया होता है वह किसी बात को कहने का ढंग. यह ढंग भी एक विशेष तार्किक एवं विवेकसंपन्न दृष्टि से विकसित होता है. पिछले दिनों आलोचक राजीव रंजन गिरि की पुस्तक ‘अथ (साहित्य : पाठ और प्रसंग)’ प्रकाशित हुई. देखा जाए तो यह पुस्तक भिन्न भिन्न अवसरों पर लिखे गए साहित्यिक लेखों का संकलन है जिनमें भरपूर वैविध्य मौज़ूद है कुछ शोध आलेखों के रूप में हैं, कुछ समीक्षात्मक ढंग में तो कुछ टिप्पणी की तर्ज़ पर लिखे गए लेख हैं. इन आलेखों के बहाने लेखक ने हिंदी साहित्य के अतीत और वर्तमान को पहचानने और विश्लेषित करने का प्रयास किया है. भले ही ये आलेख अलग अलग स्थितियों और समय में लिखे गए हों किन्तु हिंदी साहित्य के समय क्रम को एकसूत्रता में आगे बढ़ाते हुए ये लेख भक्ति काल से प्रारम्भ होकर आधुनिक काल, प्रेमचंद, जैनेन्द्र से होकर गुज़रते हुए अज्ञेय, नामवर सिंह तथा वर्तमान साहित्यिक विमर्शों तक की यात्रा तय करते हैं. लेखक ने इन आलेखों की अन्विति को बनाए रखने के लिए इन्हें नौ खण्डों में विभाजित किया है. जिनमें भक्ति आंदोलन का अवसान और अर्थवत्ता, आधुनिकता की तलाश, साम्प्रदायिकता सत्ता और साहित्य, प्रेमचंद, जैनेन्द्र का रचना संसार, अज्ञेय, भाषा साहित्य और शिक्षण पर बहुत ही वाजिब ढंग से विचार किया गया है.



पहला खंड ‘सार सार को गही रखे’ के केंद्र में मूलतः भक्ति काल के अंतिम पर्व को इस कालखंड की रचनाओं के आलोक में समझने की कोशिश की गई है, इसी कड़ी में तुलसीदास, राधा एवं कबीरदास पर हुए अध्ययनों पर लेखक राजीव रंजन गिरि ने सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषणात्मक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं. भक्ति आन्दोलन का उदय अपने समय के गहरे तनाव, संघर्षों एवं अंतर्द्वंद्वों का परिणाम था. ‘भक्ति आन्दोलन का अवसान और अर्थवत्ता’ लेख में भक्ति काल को भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा गया है तथा इसके अवसान और उसकी वर्तमान अर्थवत्ता की अब तक हुए साहित्यिक अध्ययनों एवं शोधों के आधार पर विचार रखते हुए गहरी पड़ताल की गई है. यहाँ प्रश्न यह भी उठाया गया है कि जहाँ से भक्ति काल के पराभव को चिह्नित किया जाता है, वहां से परिस्थितियाँ असल में किस रूप में परिवर्तित हुई. यह भी शिनाख्त करने की कोशिश की गई है कि क्या भक्ति आन्दोलन के अवसान के पश्चात भक्ति साहित्य की रचना बंद हो गई. लेखक राजीव रंजन गिरि के शब्दों में “कला-संसार के भीतर की परिघटना के मद्देनज़र, यह कहना बेहतर होगा कि सांस्कृतिक इतिहास के एक ख़ास क्षण में, उस तरह की रचना का जो महत्व होता है, बाद में नहीं रह पाता,.. मनुष्य की चेतना के निर्माण में उसका वह महत्व नहीं रह जाता, जो तब था.” लेखक ने भक्ति काल के साहित्य पर अब तक हुए अध्ययनों में रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, रांगेय राघव और मैनेज़र पाण्डेय की भिन्न भिन्न समय पर दी गई मान्यताओं को भी तथ्यों एवं तर्कों की कसौटी पर विचारा है. लेखक की चिंता के दायरे में यह ज़रूरी सवाल भी मौज़ूद है कि जिस कैनननाइजेशन की परम्परा के चलते, भक्ति काल के सभी कवियों को एक कवि के लिए निर्मित प्रतिमान एवं प्रविधियों के चश्मे से देखा गया. ऐसे में क्या एक कवि विशेष के लिए निर्मित आलोचना प्राविधि अन्य कवियों के साथ न्याय कर सकती है. भक्ति काल के इन अंतर्विरोधों की पड़ताल करते हुए ही समीक्षात्मक लेख ‘अंधश्रद्धा भाव से आधुनिकता की पड़ताल’ में तुलसीदास को लेकर चले आ रहे पूर्वग्रहों से असम्पृक्त कर श्रीभगवान सिंह की पुस्तक ‘आधुनिकता और तुलसीदास’ के आलोक में तुलसीदास को लेकर चली आ रही परम्परागत मान्यताओं पर विचार किया गया है जिसमें तुलसी साहित्य के सामंती मूल्यों के रक्षक होने जैसी धारणाओं को खारिज़ कर मध्यकालीन परिवेश की सीमाओं के बीच तुलसीदास के साहित्य के सकारात्मक पहलुओं का भी विश्लेषण किया गया है. यह पुस्तक आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में एक संतुलित एवं तार्किक दृष्टि से तुलसी साहित्य को परखते हुए तुलसी को न केवल बढ़-चढ़कर ‘सामंत विरोधी’ मानती है अपितु मध्यकालीन बोध की सारी सीमाओं को नज़रंदाज़ कर तुलसीदास को अत्यंत आधुनिक घोषित करती है.



इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि इसका एक पूरा खंड हिंदी उर्दू के अमर कथाकार प्रेमचंद पर केन्द्रित है जिसमें नौ आलेख हैं. प्रेमचंद के माध्यम से हिंदी साहित्य में जिस प्रगतिशील आन्दोलन का सूत्रपात माना गया, यह खंड उसी के आलोक में प्रेमचंद की रचनाओं के जरिए उस दौर की देशकाल परिस्थितियों को समझने एवं व्याख्यायित करने का प्रयास करता है. प्रेमचंद जिस समय में साहित्य को जीवन की आलोचना के रूप में देख रहे थे, वे स्पष्ट तौर पर बदलते समय को बारीकी से देख व समझ रहे थे यही कारण है कि उनकी रचनाओं में उठाए गए मुद्दे आगे चलकर साहित्यिक विमर्शों की दुनिया का हिस्सा बनते है. प्रेमचंद अपने साहित्य में दलितों, पीड़ितों एवं वंचितों की समस्याओं को बयान करते हुए भी एक साहित्यकार की प्रतिबद्धताओं को बखूबी समझते है तभी वे साहित्यकार को समाज की आगे चलकर मशाल दिखाती सच्चाई के रूप में देखते हैं. उन्होंने साहित्यकार को स्वभावतः प्रगतिशील माना. लेखक राजीव रंजन गिरि ने प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से प्रेमचंद की अपने समय के प्रति, उसके सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धताओं की पड़ताल की है. प्रेमचंद की दलित जीवन पर लिखी कहानियों को केंद्र में रखकर लिखा गया लेख ‘दलित जीवन पर दृष्टि’ भी प्रेमचंद की कहानियों के माध्यम से दलित सवालों से संवाद करता लेख है जहाँ प्रेमचंद की कहानियाँ शुरू से आखिर तक दलित एवं स्त्री जीवन की समस्याओं को अपने चिंतन के दायरे में रखती हैं. एक ओर जब देश अंग्रेजों के विरुद्ध गुलामी से मुक्ति के लिए लड़ रहा है वहीँ दूसरी ओर भारतीय समाज एक दूसरे किस्म की गुलामी एवं प्रताड़ना की नींव रख रहा था. लेखक ने प्रेमचंद की कहानियों के माध्यम से ही सही पर पॉवर स्ट्रक्चर पर एक ज़रूरी और बुनियादी सवाल उठाया कि दलित जीवन की कहानियों के पात्रों की आर्थिक और सामाजिक बदहाली ही ऐसे अमानवीय जीवन एवं शोषण का तानाबाना बुनती है, इस आर्थिक और सामाजिक बदहाली में एक अनिवार्य रिश्ता है जो इस संक्रमित समाज और व्यवस्था की उपज है, प्रेमचंद के पात्र इन दोनों प्रकार के शोषण के शिकार हैं किन्तु प्रेमचंद वैचारिकी के स्तर पर अपने दलित पात्रों को आगे ले जाते हैं तथा उन्हें विकसित करते है जिसमें यदि वे शोषण को सहन करने वाले पात्र दिखाते हैं तो वे इस व्यवस्था के प्रति प्रतिरोधी स्वर दर्ज़ कराने वाले पात्रों को भी सामने लाते हैं. मंदिर, कफ़न, सद्गति, ठाकुर का कुआँ इत्यादि प्रेमचंद की ऐसी ही कहानियाँ हैं जिन्हें लेखक ने प्रेमचंद की दलित जीवन पर दृष्टि बिम्बित करने का आधार बनाया है. इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण लेख ‘प्रेमचंद का बाल साहित्य’ है जो इस पुस्तक को विशेष रूप से संग्रहणीय बनाता है. प्रेमचंद के साहित्यिक विमर्शों से जुड़े साहित्यिक सृजन पर भरपूर ध्यान दिया गया जिसके चलते प्रेमचंद का बच्चों के लिए रचा गया साहित्य अपेक्षाकृत कम चर्चित हुआ. लेखक ने बहुत ही ज़रूरी ढंग से इस साहित्य की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला लेख लिखा है. प्रेमचंद का बाल साहित्य कर्तव्य परायणता, ईमानदारी, सदाचार, सच्चाई, निर्भीकता, आपसी प्रेम सौहार्द और निज विवेक के विकास की शिक्षा देता है. यह भी ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक समझ के बीच बच्चों के लिए साहित्य रचने को हिक़ारत के भाव से न देखकर दायित्व के रूप में लिया जिसका उद्देश्य भारतीय बालकों को चेतनासंपन्न बनाना था.





इस पुस्तक का विशेष महत्व इसलिए भी दृष्टिगोचर होता है कि लेखक ने विभिन्न स्थितियों, मनःस्थितियों एवं समय की माँग के अनुरूप ये आलेख लिखे हैं जिसमें यदि भक्तिकाल पर, भारतेंदु पर तथा प्रेमचंद पर विचार रखे गए हैं तो इसमें वर्तमान साहित्य को भी समाहित किया गया है. ‘हीरा भोजपुरी का हेराया बाज़ार में’ लेख कथाकार संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ पर केन्द्रित है. यह उपन्यास भोजपुरी भाषा के लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित है. लेखक ने इस आलेख को दो भागों में लिखा है, पहले हिस्से में बजरिये ‘सूत्रधार’ कथाकार संजीव अपने कथा नायक भिखारी ठाकुर के जीवन और उस जमाने को जिस रूप में दिखाना चाहते हैं, उसे ज़ाहिर किया गया है. यह हिस्सा संजीव के पक्ष की व्याख्या है. दूसरे हिस्से में, संजीव के देखन और दिखावन का विश्लेषण करते हुए, उसमें निहित समस्याओं की तरफ इशारा किया गया है, ताकि कथाकार के पक्ष की जांच-पड़ताल हो सके. लेखक राजीव रंजन गिरि ने यह लेख भारतीय समाज की जटिलताओं के बीच ‘सूत्रधार’ को रखकर लिखा है जिसमें बेहद तर्कसंगत ढंग से उन्होंने इसकी समीक्षा की है.



गत वर्षों में साहित्यिक जगत में जिन विमर्शों ने जोर पकड़ा उनमें नारी अस्मिता को लेकर बहुत ही ज़रूरी आवाज़ उठाई गई. लेखक ने अपने लेख ‘कविता में स्त्री’ में कहा भी है कि “वैचारिक विमर्श में स्त्री को एक कोटि के तौर पर स्थापित करने के लिए स्त्री अस्मिता का अतिरिक्त रेखांकन आवश्यक है. स्त्री ही क्यों किसी भी अस्मिता की पहचान के लिए यह पहल ज़रूरी है.” लेखक ने इस लेख में हिंदी स्त्री कविता में अनामिका के अवदान का विश्लेषणात्मक विवेचन किया है. यह लेख अनामिका के बहाने ही सही, अपनी वैचारिक समझ को प्रगतिशील रखने वाले लोगों से प्रछन्न रूप में ही सही स्त्री को वर्ग के वृत्त से बाहर रखने का आग्रह भी करता है. यह लेख कई सवाल भी उठाता है जिसमें अनामिका तथा इस दौर के अन्य रचनाकार, उनकी रचनाधर्मिता को कठघरे में खड़ा करता है जहाँ आत्मचिंतन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस हो रही है कि क्या इस पीढ़ी का रचनाकार कविता के नाम पर केवल विचार को उगल रहा है चूँकि यदि विचारों को कविता के रूप में तरलता से संपादित न किया जाए तो यह कविता विचार के स्तर पर कितनी कारगर होगी यह सोचना लाज़िमी हो जाता है. एक कमज़ोर कविता किसी महत्वपूर्ण विचार को भी क्षीण कर देती है. इस लेख के द्वारा अनामिका का कविता के ज़रिए स्त्री-विमर्श में कलात्मक हस्तक्षेप प्रकट होता है. स्त्री मुक्ति पर ही लिखा हुआ लेख ‘स्वप्न भी एक शुरुआत है’ भी अरुण कमल की कविता ‘स्वप्न’ को आधार बनाकर कविता जगत में स्त्रीवादी दृष्टिकोण एवं स्त्री मुक्ति के विषय पर हस्तक्षेप करता एवं साथ ही ‘सेक्स’ और ‘जेंडर’ की धारणाओं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रकट करता लेख है. जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के बीच स्त्री की जद्दोजेहद प्रकट होती है. इस लेख में मुक्ति का स्वप्न है, भले ही आज वह यूटोपिया लगे पर इस उम्मीद के साथ कि कल यह हकीक़त होगा. इस लेख के अंत में वेणु गोपाल की एक कविता उदधृत है- “न हो कुछ भी/ सिर्फ सपना हो/ तो भी हो सकती है शुरुआत/ और यह एक शुरुआत ही तो है/ कि वहां एक सपना है.”



इस पुस्तक की एक बड़ी उपलब्धि इसका आठवां खंड ‘भाषा बहता नीर’ है. राजीव रंजन गिरि ने भाषा पर कई ज़रूरी बात रखी है. उनका मानना है कि जहाँ एक ओर हम हिंदी के प्रचार प्रसार विस्तार पर अभिमान करते देखे जाते हैं तो अगले ही क्षण हम ही हिंदी की बिगडती शैली, प्रकृति का मर्सिया पढ़ते दिखाई देते हैं. लेखक ने इसके कारणों की पड़ताल करते हुए इस पर प्रकाश डाला है कि हिंदी की बढती व्याप्ति का एक बड़ा कारक बाज़ार, मीडिया और फिल्म उद्योग है तथा इनकी माँग के अनुसार ही भाषा में समय समय पर परिवर्तन भी हुए किन्तु यह आत्मप्रलाप का विषय बना लेना उचित नहीं है. लेखक ने ‘आओ, हिंदी हिंदी खेलें’ लेख में यही विचार रखे है- “मौजूदा दौर में हिंदी एकवचन न रहकर बहुवचन का रूप धारण कर चुकी है. यानी अब हिंदी की नहीं हिन्दियों की बात करनी होगी.” लेखक की यह माँग गौरतलब है चूँकि जबतक किसी ख़ास माध्यम की हिंदी को ही निर्धारक मानकर शेष हिन्दियों को परखा जाएगा तो निश्चित तौर पर नतीज़ा गलत ही निकलेगा. लेखक ने भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी की आवश्यकता और उसके बदलाव और उसके बदलाव की ज़रूरत को चिह्नित किया है. लेखक का एक ज़रूरी लेख ‘आठवीं अनुसूची: भोजपुरी का हक’ में हिंदी के बरक्स लोक भाषाओं की अस्मिता का प्रश्न उठाया है जिसमें आठवीं अनुसूची में जगह बनाने वाली भाषाओं के लिए कोई निश्चित मानदण्ड एवं पात्रता का अभाव तो नज़र आता ही है साथ ही इस अनुसूची में स्थान बनाने की ज़द्दोज़हद करती भाषाओं में एक प्रकार का भाषाई तनाव भी प्रकट होता है जो निश्चित तौर से इस अनुसूची को, इसकी धारणा को ही समस्याग्रस्त एवं विवादास्पद प्रतिबिम्बित करता है.



यह आलोचना पुस्तक अपनी वैविध्यपूर्ण सामग्री एवं विविध विषयों पर लिखे इन विचारपूर्ण लेखों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण, पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है. जो भिन्न भिन्न समयों को देखती, उनसे बात करती, सवाल उठाती, जिरह करती एवं संवाद स्थापित करती शोध प्रविधियों से लेस तथ्यपरक पुस्तक है.



पुस्तक: ‘अथ (साहित्य : पाठ और प्रसंग)

लेखक: राजीव रंजन गिरि

प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली



मूल्य: 750/-