Wednesday, November 26, 2014

आलोचक की प्रखर निगाह में मीडिया



मैकलुहान ने वर्षों पहले एक कथन कहा था- 'द वर्ल्ड इज अ ग्लोबल विलेज।' इस कथन के सार्थक होने में बड़ी ही महत्वपूर्ण और कारगर भूमिका निभाई है मीडिया ने। जहाँ इस छोटी होती जा रही दुनिया में बाज़ार व्यापक होते जा रहे हैं जिन्हें पूरी तरह से मनुष्य और देशों की आर्थिक समृद्धि की कुंजी सिद्ध किया जा चुका है। ऐसे में ग्लोबलाईजेशन की इस प्रक्रिया में मीडिया की क्या भूमिका रही, की शिनाख़्त करती प्रसिद्ध प्रतिष्ठित आलोचक माधव हाड़ा की आलोच्य पुस्तक 'सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया' है। इस पुस्तक में उनके भीतर की आलोचनात्मक-दृष्टि पूरे विवेक के साथ पल्लवित हुई है। उनकी यह पुस्तक साहित्यिक गलियारों में मीडिया की घुसपैठ को रेखांकित करती है। लेखक का मानना है कि ग्लोबलाईजेशन के प्रभाव से उपजी तकनीकी क्रान्ति ने मीडिया के पूरे स्वरुप और चरित्र में ही आधारभूत परिवर्तन कर दिए है। संचार क्रान्ति ने मीडिया को बहुत शक्तिशाली तो बना दिया किन्तु बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस शक्ति का प्रयोग अपने लाभ-हित में किया। विश्व की विभिन्न संस्कृतियों-अर्थव्यवस्थाओं का एक ही मंच पर ग्लोबल-एकीकरण इसी का परिणाम है। मीडिया भी बाज़ार की माँग के अनुसार अपने सरोकारों में बदलाव ला रहा है। मीडिया और बाज़ार के प्रभाव से साहित्य भी अछूता नहीं रहा है। इन दोनों ने साहित्य की शिल्प प्रविधि को अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदला है। लेखक ने कहा भी है - "साहित्यकार मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार ही उसका अनुकूलीकरण होता है।"


पुस्तक स्पष्ट करती चलती है कि साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों पर मीडिया का क्या प्रभाव पड़ा और इस वैश्वीकरण की आंधी में मीडिया ने किस तरह भाषा, कहानी, कविता, अखबारों को डिक्टेट किया है। यह कहना आवश्यक नहीं रह गया है कि इस बाज़ारवादी अंधड़ ने साहित्य के अनेक तत्वों और विधाओं के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाये रखने का प्रश्न खड़ा कर दिया है। आलोचक ने 'कहानी-मीडिया में आपसदारी' शीर्षक अध्याय में कहानी विधा को इंगित करते हुए इस बात का विश्लेषण किया है कि कहानी विधा जो दादी-नानी से जुडी स्मृतियों का संचयन थी, को मीडिया के प्रभाव ने आधुनिक कलारूप में परिवर्तित कर दिया है जिसमें कथा या आख्यान पीछे छूट गए है, मुद्रण प्रिंट मीडिया के विकास ने अभिव्यक्ति के रूपों की पद्धति और प्रक्रिया को ही बदल दिया, धीरे-धीरे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आया जिससे टेलीविजन पर हमलोग,बुनियाद का एपिसोडीकरण हुआ पर चूँकि मीडिया बहुराष्ट्रीय पूँजी पर निर्भर है उसकी ज़रूरतों के अनुसार ढलता गया और बीसवी सदी के अंतिम दशकों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्फोटक प्रसार ने भारतीय जनसाधारण की सोच,संवेदना और कल्पना को ही बदल दिया इस नए मीडिया ने पुराने मीडिया रूप को ही बदल दिया। भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अब पूरी तरह बाज़ार के वर्चस्व और एकाधिकार में है। बाज़ार का उद्देश्य अधिकत्तम लाभ अर्जित करना रह गया है। जो मनोरंजन को ध्येय मानता है -"जिसने बाज़ार के उपभोक्ताओं की जरूरतों के अनुसार सनसनी और उत्तेजना पैदा करने वाले खेल मस्ती के कार्यक्रमों के ढेर लगा दिए हैं। सेक्स, हिंसा, रहस्य-रोमांच आदि को महत्त्व दिया जा रहा है।" मीडिया द्वारा हत्या-बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य भी 'स्टोरी' बनाकर बेचे जा रहे हैं। ऐसे में उसके पास मूल्यों की परवाह की कोई अनिवार्यता नहीं रह गई है। मनोरंजन ही उसके लिए विराट उद्यम बन गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी कहानी भी दबे पाँव 'बाज़ारपरस्त' हो गई। लेखक का मानना है कि जैसे आज की कहानी हितोपदेश और पंचतंत्र की कहानियों से बहुत आगे निकल गई है उसी प्रकार भविष्य की कहानी भी आज की कहानी से बहुत अलग और आगे हो जायेगी।

'मीडिया की हुकूमत में कविता' शीर्षक अध्याय में डा हाड़ा ने स्पष्ट किया है कि कविता का विकास और उसके सभी मोड़-पड़ावों की मुक़म्मिल पहचान और पड़ताल करना सरल नहीं है चूँकि इसकी लम्बी परम्परा है जो कवि नागार्जुन , अज्ञेय से होते हुए मंगलेश डबराल से विमल कुमार और बोधिसत्व तक पहुंची है। जो अपने समय के नितांत अलग संकटों और चुनौतियों से जूझ रहे हैं। जिनका शिल्प, संवेदना और कविता की बनावट सब अलग है। लेखक का कहना यह भी है कि भूमंडलीकरण और पूँजी के वर्चस्व ने कविता को नुक्सान ही पहुंचाया है। "फिलहाल कवियों की हालत हतगौर व राजपरिवार के उन सदस्यों की तरह है जो पुराने दिनों की उपाधियों और राजसी वस्त्रों को धारण तो किये रहते हैं पर वास्तव में उनकी सत्ता छीन चुकी है।" आज का अभिजात तबका कविता पढ़ तो लेता है पर वह पूरी तरह मास मीडिया और मास कल्चर का मुरीद है। वह उसी को महत्त्व देता है जिसकी बाज़ार में कोई कीमत है और फिलहाल कविता की बाज़ार में कोई कीमत नहीं है। लेखक ने यह प्रश्न भी छोड़ा है कि "क्या यह ज़रूरी नहीं है कि कविता भी मास मीडिया से जुड़े?" कविता के अस्तित्व को बचाने के लिए प्रिंट मीडिया को पूंजीवादी मानकर उससे मुँह फेर लेना भी कोई समझदारी नहीं है।




'किताब से कट्टी' अध्याय में डा हाड़ा का कहना है कि किताबों से बच्चों की गहरी दोस्ती जो नंदन, चम्पक, पराग जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से हुई , में अब दरार पड़ने लगी है - टीवी के विस्फोटक प्रसार ने आह्लाद और उत्साह को क्षीण कर दिया है। बच्चों में कल्पनाशीलता की कमी होती जा रही है। टीवी उनके लिए 'प्लग इन ड्रग' का काम कर रहा है। लेखक ने दैनिक-पत्रों की भूमिका को भी संदिग्धता के दायरे में रखा है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के दौर में दैनिक पत्रों का अपने बुनियादी सामाजिक सरोकारों से गहरा लगाव कम होता जा रहा है- "अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, कुपोषण, जातीयता, लैंगिक भेदभाव और साम्प्रदायिकता जैसे बुनियादी सामाजिक सरोकार अब हिंदी दैनिकों की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं हैं।" लेखक का प्रश्न इतना ही है कि संचार क्रान्ति ने "दैनिक पत्रों का जो कायाकल्प किया उससे दैनिक पत्र शॉपिंग में व्यस्त, खाते-पीते और आकण्ठ मनोरंजन में डूबे नए भारतीय मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर सम्पूर्ण देश की जो तस्वीर वे पेश कर रहे हैं, वह असलियत से बहुत दूर है। विडम्बना यह है कि देश की जनसँख्या का बड़ा हिस्सा जिसमें गरीब, अल्पसंख्यक, जनजातियाँ, वृद्ध आदि शामिल हैं इस तस्वीर में कहीं भी नहीं हैं।"

'गाँव-कस्बों के अखबार' अध्याय में लेखक ने इस बात का भी बहुत गहरे स्तर पर विश्लेषण किया है कि समाचार-पत्र व्यवसाय बनकर केवल एक नई प्रकार की विज्ञापन संस्कृति को जन्म दे रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता की एक अलग ही संस्कृति अस्तित्व में आ रही है। साथ ही लेखक पत्रकारिता के फायदों को दरकिनार न कर स्पष्ट करते है कि आज भी हिंदी दैनिक पत्र दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाकों में सूचनाओं, घटनाओं, गतिविधियों आदि के प्रसार का प्रभावी एवँ महत्वपूर्ण माध्यम है , ज़रूरत है तो बस उसे मुनाफे के लिए गढ़ी, वितरित और प्रसारित संस्कृति बनने से बचाने की। 'बनती-बिगड़ती भाषा' शीर्षक अध्याय में लेखक ने इस ओर दृष्टिपात किया है कि दैनिक-पत्रों की भाषा अतिरंजनापूर्ण होती जा रही है जो यथार्थ को अतियथार्थ में तब्दील कर यथार्थ और भाषा की दूरी को निरंतर बढ़ा रही है। साथ ही हिंदी का ठोस और ठस मानक रूप टूट-बिखर रहा है। जिसने गद्य को लचर बना दिया है। हिंदी भाषा की प्रकृति प्रारम्भ से ही समावेशी रही है। भूमंडलीकरण और संचार क्रान्ति ने हिंदी में एक नई शब्दावली को सामने लाया जिसे हिंदी ने विविध संस्कृतियों और समाजों से ग्रहण कर अपने को समृद्ध किया किन्तु साथ ही लेखक 'हिंदी पर सवार हिंग्रेजी' में यह चिंता भी व्यक्त करते हैं कि- "कोई भाषा अपने पांवों पर खड़ी होकर दूसरी भाषा का बोझ उठाये, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन इधर हिंदी दैनिकों के नगरीय परिशिष्टों में अंग्रेजी हिंदी की पीठ पर सवार है। उसके बोझ से हिंदी बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है।"


इस पूरी पुस्तक के आलोचना-कर्म में मीरा पर लिखे लेख 'मीरा का छवि-निर्माण' में एक अलग प्रकार की भावुकता प्रकट हुई है इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि आलोचक का लंबा शोध-कार्य मीरा पर है जिससे भावात्मक जुड़ाव होना स्वाभाविक है। आलोचक ने मीरा और मीडिया के चरित्र को समान्तर रूप से परखने की कोशिश की है। मीडिया पर यदा-कदा ख़बरों को, जानकारियों को, तथ्यों को फ्रैक्चर्ड करने का आरोप लगता रहा है। ऐसे में मीरा को जिस रूप में इतिहास और साहित्य में जिस रूप में हमने पढ़ा है। वह रूप एक ऐसी भक्त कवि का है जिसकी भक्ति का केंद्र ही प्रतिरोध-विद्रोह है। जो इस धर्मसत्ता, पितृसत्ता और राजसत्ता का विरोध करती है। किन्तु संचार-मीडिया, कैसेट्स-सीडीज ने मीरा का जो चरित्र गढ़ा है वह एक प्रेम-दीवानी में सिमट कर रह जाता है-"जन्म से राजपूत राजकुमारी मीरा का शौर्य रणक्षेत्र की जगह ईश्वर के चरणों में भक्ति और समर्पण में व्यक्त हुआ।" उसकी कविता का केंद्रीय स्वर ही अनदेखा कर दिया गया।


इस आलोच्य पुस्तक में 'सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया' अध्याय में, जो इस पुस्तक का शीर्षक भी है, लेखक ने मीडिया के चरित्र को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार मनुष्य की प्राचीन से आधुनिक बनने की दीर्घकालीन और निरंतर प्रक्रिया में मीडिया ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया की शुरुआत रेडियो से होते हुए दूरदर्शन-टेलीविजन से इंटरनेट जैसे ऑनलाइन मीडिया तक पहुँची।

पुस्तक के परिशिष्ट में 'हमारे मन में महाभारत मचा है' शीर्षक से लेखक की प्रसिद्ध कहानीकार स्वयं प्रकाश के साथ हुई लम्बी बातचीत है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उसके भारतीय समाज व साहित्य से सम्बन्ध पर बड़े ही सारगर्भित ढंग से प्रकाश डालती है। जहाँ यह स्पष्ट है कि कहानीकार स्वयं प्रकाश मीडिया को लेकर हिक़ारत का भाव नहीं रखते बल्कि एक चुनौती के रूप में लेते है। यह पुस्तक आलोचक की प्रखर आलोचना-दृष्टि को बहुत ही तटस्थता से प्रकट करती है।


पुस्तक- सीढ़ियां चढ़ता मीडिया (आलोचना-पुस्तक)


लेखक- माधव हाड़ा


आधार प्रकाशन, पंचकूला


मूल्य- 250/-


अनुपमा शर्मा anupamasharma89@gmail.com

मेरी प्रिय कथाएं: स्वयं प्रकाश




बचपन में जब हम दादी-नानी से राजा-रानी, परियों, तोता-मैना की कहानियाँ सुनते थे तो जीवन कैसा रोमांच से भर जाता था। वे स्वप्निल-सी काल्पनिक कहानियाँ जीवन को तिलिस्म से भर देती थी। पर धीरे-धीरे उसी बालक-मन का तरुण होते-होते एक नई ही दुनिया से परिचय होता है जहाँ केवल विद्रूपताएँ हैं, व्यवस्था के कुचक्र हैं किन्तु बचपन की उन कथाओं की छाप उसके मन पर इतनी गहरी होती है कि वह इस व्यवस्था से लड़ने के लिए भी एक ऐसे ही चरित्र को गढ़ता है आह्वान करता है जो जादू की छड़ी लेकर आएगा और पल में सब कुछ ठीक कर देगा। इतनी सरलता से किस्सों के रूप में सुनी वे लोककथाएँ उसके मानसपटल को सदा के लिए प्रभावित कर जाती हैं। पिछले कुछ समय में लोककथाओं के प्रति उदासीनता बरती गई। साहित्य में इसपर लगभग न के बराबर लिखा गया। पिछले दिनों प्रसिद्ध कथाकार स्वयं प्रकाश का कहानी-संग्रह 'मेरी प्रिय कथाएँ' प्रकाशित हुआ जिसे पढ़कर मन उतनी ही सरलता और तरलता से भर गया जितना अपनी दादी से सुनी कथाओं में चाव-उत्साह-आनंद आता था। लोककथात्मक शैली में लिखी गई ये कथाएँ अपने कहन में विशिष्ठ है जो मन को सरस करने के साथ-साथ गंभीर सवाल भी छोड़ती हैं।






कहा जाता है कि - "कौन लेखक कितना बड़ा है इसकी पहचान सबसे पहले इस बात से ही होती है कि उसकी दुनिया कितनी बड़ी है। उसके लेखन के दायरे में मनुष्य और उसकी दुनिया का कितना बड़ा हिस्सा चित्रित हुआ है।" उस दृष्टि से स्वयं प्रकाश बड़े लेखक ठहरते है इस कथा-संग्रह में बारह लोककथात्मक कहानियाँ मिथक तत्व को धारण किये हुए भी यथार्थ को प्रकट कर पाठक से किस्सागोई के अंदाज़ में संवाद स्थापित करती हैं। लोककथा के शिल्प को आत्मसात कर कथाकार ने अनेक युगीन समस्याओं जातिवाद, लाल फीताशाही, आदिवासी संस्कृति, बेरोजगारी, विस्थापन, स्त्री-आत्मनिर्भरता से लेकर स्त्री-मुक्ति से जुडी अनेक समस्याओं का चित्रण किया हैं। लोककथात्मक शैली होने के साथ-साथ इन कथाओं के पात्र आज के आधुनिक परिवेश और परिस्थितियों में ढले हुए हैं। इस आधुनिक परिवेश पर कथाकार स्वयं प्रकाश पुस्तक की भूमिका में लिखते भी हैं- "तो बहुत मोहब्बत के साथ पाठकों के समक्ष अपने समय की आधुनिक लोककथाओं की एक बानगी हाज़िर करता हूँ।"






इस पुस्तक में लोककथात्मक पद्धति में लिखी गई स्वयं प्रकाश की पहली ही कहानी- ‘जंगल का दाह’ है जो पढ़ने में भी सुनने का-सा आनंद देती है। धनुर्धर मामा सोन की प्रसिद्धि सुनकर राजकुमार का शिक्षा के लिए उनके पास आना, अभ्यास में सफल न होने पर मामा सोन को मारने की कोशिश करना जिससे उस विद्या का लाभ कोई और न उठा सके, मामा सोन, शिष्यों और वन के पशु-पक्षियों द्वारा मिल कर सैनिकों को खदेड़ना, और जाते-जाते उनके द्वारा जंगल में आग लगाना केवल कथा के क्रम को ही आगे नहीं बढ़ाते बल्कि मामा सोन के माध्यम से आदिवासी संस्कृति के लुप्त होते जाने की व्यथा को भी प्रकट करते हैं। इस कथा का मुख्य पात्र ‘मामा सोन’ सम्पूर्ण आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है। जहाँ कथा के अंत का संवाद महत्वपूर्ण है- "अफसोस कि न मामा सोन को बचाया जा सका न उनकी धनुर्विद्या को। जो वहाँ बचा वह बस राख ही राख थी। ...आज मामा सोन के वंशज शहर में बांस की टोकरियाँ, तार के छींके और गत्ते के तोते-चिड़ियाँ आदि बनाकर बेच रहे हैं। सुना है उनके इलाके में कोई बड़ा बाँध बन रहा है जिससे देश की बड़ी तरक्की होगीं। ...सुना है... मामा सोन के वंशजों और शिष्यों को जंगल से हकाल दिया गया है।" यह कहानी हमारी विकासशील सभ्यता की बर्बरता को सामने लाती है।






एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं। साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है। यह पूरी पुस्तक एक चिंतनशील विचारवान कथाकार के सरोकारों का जीवंत दस्तावेज़ है। 'उज्ज्वल भविष्य' भी एक ऐसी ही कथा है जो बेरोजगारी में व्यक्ति की मानसिक उलझनों को प्रकट करती है। इसमें एक संवाद आता है कि - "काबिल आदमी अच्छा काम कर सकता है, पर होशियार आदमी के मुकाबले में आता है तो बौखला जाता है और हार जाता है। होशियार आदमी चाहे उतना काबिल न हो, काबिल लोगों से अपना काम निकलवाना जानता है।" इस समय के यथार्थ के आईने में आदर्श जब भरभराकर टूटने को विवश हो रहे हैं और जब लड़का अपनी ईमानदारी की कसमें खाता है तो मालिक का यह कहना- "अब तक तुम मुझे हँसा रहे थे, पर अब तो तुम मुझे डरा रहे हो। मैंने इतने साल में जो एंपायर खड़ी की है, उसे एक ईमानदार आदमी पर भरोसा करके मिट्टी में मिल जाने दूँ? ...आज तो इंडस्ट्री को ऐसे यंगस्टर्स चाहिए जो बेईमानी से काम करने में कुशल हो।... अचानक लड़का उठ खड़ा हुआ..., 'सर! मैं सक्सेसफुल बनूँगा। मैं बेईमान बनूँगा! बहुत बड़ा बेईमान..." उसका यह जवाब इस व्यवस्था और उससे पनपी बेरोजगारी की प्रताड़ना पर करारा तमाचा है जहाँ व्यक्ति को मूल्यों और आदर्शों से विमुख होने को विवश किया जा रहा है।






‘प्रतीक्षा’ इस कहानी-संग्रह की उल्लेखनीय एवं एक लम्बी कहानी है। कथाकार स्वयं प्रकाश की यह कहानी पिछली सदी के आखिरी दौर में युवा वर्ग की हताशा से पनपी प्रतीक्षारत बने रहने की नियति को प्रकट करती है साथ ही शिक्षा तंत्र का कितना ह्रास हो चुका है को प्रकट करती है। जिसमें आर्थिक उदारीकरण के साथ बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त शिक्षित युवा वर्ग भविष्य की प्रतीक्षा करने के लिए तो विवश है ही, जीविका के अभाव के कारण और साथ ही सामाजिक रूढ़िवाद के चलते युवक-युवती का प्रेम भी एक अंतहीन प्रतीक्षा में बदल जाता है। कहानी में कॉलेज शिक्षा और खासकर हिंदी शिक्षण में व्याप्त जड़ता और भ्रष्टता को भी उजागर किया गया है। 'बिछुड़ने से पहले' कहानी बेहद आत्मीय-सी लगी जो हमें हमारी जड़ों से दूर होते जाने के अहसास से भर देती है। मानवीकरण के माध्यम से खेत व पगडंडी की बातचीत ग्रामीण स्त्री-पुरुष की तरह दिखाई गई है जिसमें पगडंडी की जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है और दोनों इस पर विकास और बदलाव की सार्थकता पर बातचीत कर रहे हैं - "एक दिन खेत ने पगडंडी से कहा - सुना तेरी जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है पक्की? चालीस फुट चौड़ी? डिवाइडर वाली? ...आज तक किसी सड़क ने खेत से दोस्ती की है जो मेरे से करेगी? ...दिल को कौन पूछता है मितवा! विकास तो होके रहेगा। पगडंडी ने उसांस छोड़ी। दोनों चुपचाप रोने लगे।" यह संवाद भूमि अधिग्रहण क़ानून के कागज़ी पुर्ज़ों पर सवालिया निशान लगाता है।






कथाकार स्वयं प्रकाश की कहानी 'मंजू फालतू’ योग्यता-प्राप्त नई लड़की की कहानी है। वह समर्थ है किन्तु फिर भी जीवन की जटिलताएँ उसे घेरे हैं। वह नौकरी और मातृत्व के बीच खटती नज़र आती है। मंजू की कहानी पुरुष वर्चस्व की घिसी-पिटी कहानी नहीं है, वह जो भी निर्णय लेती है अपनी इच्छा से लेती है। फिर भी शादी के बाद उसे अपने भीतर के द्वंद्व से गुज़रना पड़ता है- "लेकिन नितिन का घर? तो क्या यह उसका घर नहीं? यह घर उसने नहीं बनाया। रेडीमेड कपड़े या खाने जैसा है। उसे मिल गया है। फिट भी नहीं है। कहीं से ढीला है कहीं फंसता है। अल्टर करने का टाइम भी नहीं है। करेगी कभी टाइम मिला तो।’’ शादी के बाद बच्चे और फिर गृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही में अपने ही द्वारा हासिल मुकाम का त्याग भी करती है। बच्चों के कुछ बड़ा होने के बाद फिर से नौकरी करनी चाही तो पाया कि ज्ञान और तकनीक के नए होते उसकी योग्यता क्षेत्र में अब एप्लीकेशन के कॉलम में उसके पास ‘फालतू’ लिखने के अलावा कुछ नहीं बचा है। लेखक ने मंजू को न एक नाराज औरत बनाया है और न दयनीय। बस इस सामाजिक ताने-बाने में उसके उलझाव को प्रस्तुत किया है।






कथाकार स्वयंप्रकाश की इन कथाओं में पर्याप्त वैविध्य मौजूद हैं। 'नाचनेवाली कहानी' में लचर सरकारी तंत्र और नौकरशाही की जड़ता पर निशाना साधा गया है तो 'बाबूलाल तेली की नाक' में जातिवाद पर प्रहार किया गया है। और 'गौरी का गुस्सा' कहानी में उपभोक्तावाद के दौर में चारों तरफ दौड़ती मानवीय लालसाओं को केन्द्र में रखा गया है। जो शिव-पार्वती की मिथकीय छवि के माध्यम से उजागर होती हैं। 'हत्या-1' कहानी में लेखक ने मानवेतर जीवों की पीड़ा को अनुभव किया है जो उनकी गहरी संवेदनशीलता का परिचायक है। कथा में यह पंक्ति- "जंगल के राजा! तुम्हें इन लोगों के हाथ फँसकर शहर नहीं आना चाहिए था!" समाज के ऐसे आदमियों पर कटाक्ष करती है जो अपने लाभ के लिए दूसरों को नृशंसता के स्तर तक उतर कर हानि पहुंचा रहे हैं। जो एक स्थान पर पीड़ित है वही दूसरे स्थान पर शोषक भी है। मध्य वर्ग के इस दोहरे चरित्र को लेखक ने बखूबी प्रस्तुत किया है।






पुस्तक को पढ़कर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कथाकार स्वयं प्रकाश लीक बदल रहे हैं। उन्होंने लोककथा-परंपरा से प्रेरणा लेकर कहानियां लिखीं जो उनका अपनी जड़ों के प्रति प्रेम का सूचक है। उनकी इस पुस्तक को पठनीय इसकी अद्भुत रूप से सरल और प्रभावशाली भाषा बनाती है जो भाषिक आडम्बरों से मुक्त है। ये इस आधुनिक परिवेश में नए कलेवर में लिखी गई कथाएं हैं।










पुस्तक: मेरी प्रिय कथाएं (कहानी-संग्रह)


लेखक: : स्वयं प्रकाश


प्रकाशक: ज्योतिपर्व प्रकाशन


99, ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम,गाजियाबाद


मूल्य-


अनुपमा शर्मा -- anupamasharma89@gmail.com

इमाम या निज़ाम



दिल्ली स्थित देश की सबसे बड़ी ऐतिहासिक जामा मस्जिद के शाही इमाम सैय्यद अहमद बुखारी ने अपने बेटे के नायब इमाम दस्तारबंदी समारोह में देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को आमंत्रित ना कर पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़ को निमंत्रण भेजा। इमाम सैय्यद बुखारी का यह आचरण उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर गंभीर सवाल खड़े करता है। जहाँ इमाम के काम और सरोकार मज़हबी मामलों तक सीमित होने चाहिए वहीँ इमाम के द्वारा धर्म का ऐसा राजनीतिकरण करना कि स्वयं को इमाम कम निज़ाम होने का दावा अधिक प्रस्तुत करे तो यह उनकी सदाशयता पर सवालिया निशान लगाता है। हालाँकि इमाम ने अपने इस निर्णय को लेकर यह दलील पेश की है कि- "हमने शाबान की दस्तारबंदी के लिए देश और दुनिया में अपने सभी जानने वाले लोगों को न्यौता भेजा है। इसमें नेताओं, धर्मगुरुओं और कई दूसरे क्षेत्रों के लोगों को दावत दी गई है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ साहब को मैंने अपने पारिवारिक रिश्ते की हैसियत से न्यौता दिया है।" किन्तु उनकी यह दलील बेहद बेमानी नज़र आती है चूँकि जामा मस्जिद उनकी कोई पारिवारिक संपत्ति नहीं है जिसे वे व्यक्तिगत उत्सव के रूप में मनाए। इसके इतर इमाम के विरोध में न्यायालय में तीन जनहित याचिकाएं दायर की गई है जिनमें कहा गया है कि जामा मस्जिद को भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक घोषित कर रखा है साथ ही जामा मस्जिद दिल्ली वक्फ बोर्ड की संपत्ति है और मौलाना सैयद अहमद बुखारी (शाही इमाम) अपने बेटे को नायब इमाम नहीं नियुक्त कर सकते। इन याचिकाओं के अनुसार, यह जानते हुए कि इमाम वक्फ बोर्ड के कर्मचारी हैं और इमाम की नियुक्ति का अधिकार बोर्ड के पास है, बुखारी ने अपने 19 वर्षीय बेटे को नायब इमाम बना दिया और इसके लिए दस्तारबंदी कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है, जो कि पूरी तरह गैर इस्लामिक है।

जामा मस्जिद का निर्माण मुगल शासक शाहजहाँ ने कराया था। इस मस्जिद की देख-रेख और मज़हबी कार्यों को संपन्न कराने के लिए शाहजहाँ ने 1656 ई. में उज्बेकिस्तान के बुखारा से सैय्यद अब्दुल ग़फ़ूर शाह बुखारी को बुलाकर उन्हें जामा मस्जिद का पहला इमाम बनाया था। तब से जामा मस्जिद की इमामत इसी परिवार के पास है। आजकल के ज़माने में जब राजे-रजवाड़े नहीं रहे, जामा मस्जिद मुगलिया राजशाही को ढो रहा है। जामा मस्जिद मज़हबी कामों की जगह राजनीति में अनावश्यक दख़लअंदाज़ी भी करता आया है, यह शाही इमाम की अराजकता और एक प्रकार से सत्ता का दुरुपयोग है। शाही इमाम का देश के प्रधानमन्त्री के प्रति अशोभनीय बयान- "पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भारत के प्रधानमन्त्री से ज्यादा पसंद है। भारत के मुसलमान नरेंद्र मोदी को अपना नेता नहीं मानते. वह भले ही प्रधानमन्त्री चुने गए हो, किन्तु भारत के मुसलमानों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।" वास्तव में बुखारी को पूरे भारतीय मुस्लिम समुदाय का रहनुमा होने का दम्भ प्रकट करता है। इस बयान से भारतीय मुस्लिमों के सन्दर्भ में आम जनमानस की धारणा पर बहुत बुरा असर पड़ता है। यह ज्यादा चिंताजनक बात है। बुखारी के लिए यह एक खबर हो सकती है, लेकिन यह सच है कि भारतीय मुस्लिम खुद को भारत के प्रधानमंत्री से जोड़ते है, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से नहीं।

यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि ऐसे समय में जब पाकिस्तान बिना किसी उकसावे के संघर्ष-विराम का उल्लंघन कर रहा हो, सीमा पर गोलीबारी कर निरपराध नागरिकों की हत्या कर रहा हो और आतंकवाद को पोषित कर भारत को निरंतर खंडित करने की साज़िश में लगा हुआ हो और तब इमाम बुखारी की पक्षधरता भारत के प्रधानमन्त्री की अपेक्षा पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री के प्रति नज़र आए तो उन्हें अपने राष्ट्रप्रेम और दायित्व के प्रति पुनःविचार करना होगा। इससे अलग भारतीय प्रबुद्ध मुस्लिम वर्ग के द्वारा इमाम बुखारी के विरुद्ध दी गई प्रतिक्रियाएँ राष्ट्रीय पटल पर एक शुभ संकेत हैं जो भारत की एक मज़बूत छवि को प्रकट करते है जो इमाम बुखारी के बयान को किसी भी रूप में धर्मगत प्रतिनिधित्व के रूप में खारिज़ करते हैं।

बहरहाल 20 नवम्बर की सुनवाई में दिल्ली हाई कोर्ट ने बुखारी को करार झटका देते हुए कहा कि उनके द्वारा आयोजित दस्तारबंदी समारोह की कानूनी मान्यता नहीं होगी। इसे आयोजित करने के लिए हाईकोर्ट से, केंद्र सरकार से, एएसआई से और दिल्ली पुलिस से स्वीकृति नहीं ली गई है। दिल्ली वक्फ़ बोर्ड ने अदालत में कहा कि इस मामले में जल्द ही उच्च अधिकारियों की बैठक की जायेगी और यह तय किया जाएगा कि बुखारी ने जो किया है उसके लिए उनके विरूद्ध क्या कार्रवाई की जानी चाहिए। यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जामा मस्जिद के इमाम की नियुक्ति राजशाही अंदाज़ में क्यों की जाए। भारतीय मुसलमानों को यह निर्णय लेने का स्वतंत्र अधिकार होना ही चाहिए कि कौन अच्छा इमाम हो सकता है और किसे इस पद पर होना चाहिए।