Wednesday, November 26, 2014

आलोचक की प्रखर निगाह में मीडिया



मैकलुहान ने वर्षों पहले एक कथन कहा था- 'द वर्ल्ड इज अ ग्लोबल विलेज।' इस कथन के सार्थक होने में बड़ी ही महत्वपूर्ण और कारगर भूमिका निभाई है मीडिया ने। जहाँ इस छोटी होती जा रही दुनिया में बाज़ार व्यापक होते जा रहे हैं जिन्हें पूरी तरह से मनुष्य और देशों की आर्थिक समृद्धि की कुंजी सिद्ध किया जा चुका है। ऐसे में ग्लोबलाईजेशन की इस प्रक्रिया में मीडिया की क्या भूमिका रही, की शिनाख़्त करती प्रसिद्ध प्रतिष्ठित आलोचक माधव हाड़ा की आलोच्य पुस्तक 'सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया' है। इस पुस्तक में उनके भीतर की आलोचनात्मक-दृष्टि पूरे विवेक के साथ पल्लवित हुई है। उनकी यह पुस्तक साहित्यिक गलियारों में मीडिया की घुसपैठ को रेखांकित करती है। लेखक का मानना है कि ग्लोबलाईजेशन के प्रभाव से उपजी तकनीकी क्रान्ति ने मीडिया के पूरे स्वरुप और चरित्र में ही आधारभूत परिवर्तन कर दिए है। संचार क्रान्ति ने मीडिया को बहुत शक्तिशाली तो बना दिया किन्तु बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस शक्ति का प्रयोग अपने लाभ-हित में किया। विश्व की विभिन्न संस्कृतियों-अर्थव्यवस्थाओं का एक ही मंच पर ग्लोबल-एकीकरण इसी का परिणाम है। मीडिया भी बाज़ार की माँग के अनुसार अपने सरोकारों में बदलाव ला रहा है। मीडिया और बाज़ार के प्रभाव से साहित्य भी अछूता नहीं रहा है। इन दोनों ने साहित्य की शिल्प प्रविधि को अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदला है। लेखक ने कहा भी है - "साहित्यकार मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार ही उसका अनुकूलीकरण होता है।"


पुस्तक स्पष्ट करती चलती है कि साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों पर मीडिया का क्या प्रभाव पड़ा और इस वैश्वीकरण की आंधी में मीडिया ने किस तरह भाषा, कहानी, कविता, अखबारों को डिक्टेट किया है। यह कहना आवश्यक नहीं रह गया है कि इस बाज़ारवादी अंधड़ ने साहित्य के अनेक तत्वों और विधाओं के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाये रखने का प्रश्न खड़ा कर दिया है। आलोचक ने 'कहानी-मीडिया में आपसदारी' शीर्षक अध्याय में कहानी विधा को इंगित करते हुए इस बात का विश्लेषण किया है कि कहानी विधा जो दादी-नानी से जुडी स्मृतियों का संचयन थी, को मीडिया के प्रभाव ने आधुनिक कलारूप में परिवर्तित कर दिया है जिसमें कथा या आख्यान पीछे छूट गए है, मुद्रण प्रिंट मीडिया के विकास ने अभिव्यक्ति के रूपों की पद्धति और प्रक्रिया को ही बदल दिया, धीरे-धीरे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आया जिससे टेलीविजन पर हमलोग,बुनियाद का एपिसोडीकरण हुआ पर चूँकि मीडिया बहुराष्ट्रीय पूँजी पर निर्भर है उसकी ज़रूरतों के अनुसार ढलता गया और बीसवी सदी के अंतिम दशकों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्फोटक प्रसार ने भारतीय जनसाधारण की सोच,संवेदना और कल्पना को ही बदल दिया इस नए मीडिया ने पुराने मीडिया रूप को ही बदल दिया। भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अब पूरी तरह बाज़ार के वर्चस्व और एकाधिकार में है। बाज़ार का उद्देश्य अधिकत्तम लाभ अर्जित करना रह गया है। जो मनोरंजन को ध्येय मानता है -"जिसने बाज़ार के उपभोक्ताओं की जरूरतों के अनुसार सनसनी और उत्तेजना पैदा करने वाले खेल मस्ती के कार्यक्रमों के ढेर लगा दिए हैं। सेक्स, हिंसा, रहस्य-रोमांच आदि को महत्त्व दिया जा रहा है।" मीडिया द्वारा हत्या-बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य भी 'स्टोरी' बनाकर बेचे जा रहे हैं। ऐसे में उसके पास मूल्यों की परवाह की कोई अनिवार्यता नहीं रह गई है। मनोरंजन ही उसके लिए विराट उद्यम बन गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी कहानी भी दबे पाँव 'बाज़ारपरस्त' हो गई। लेखक का मानना है कि जैसे आज की कहानी हितोपदेश और पंचतंत्र की कहानियों से बहुत आगे निकल गई है उसी प्रकार भविष्य की कहानी भी आज की कहानी से बहुत अलग और आगे हो जायेगी।

'मीडिया की हुकूमत में कविता' शीर्षक अध्याय में डा हाड़ा ने स्पष्ट किया है कि कविता का विकास और उसके सभी मोड़-पड़ावों की मुक़म्मिल पहचान और पड़ताल करना सरल नहीं है चूँकि इसकी लम्बी परम्परा है जो कवि नागार्जुन , अज्ञेय से होते हुए मंगलेश डबराल से विमल कुमार और बोधिसत्व तक पहुंची है। जो अपने समय के नितांत अलग संकटों और चुनौतियों से जूझ रहे हैं। जिनका शिल्प, संवेदना और कविता की बनावट सब अलग है। लेखक का कहना यह भी है कि भूमंडलीकरण और पूँजी के वर्चस्व ने कविता को नुक्सान ही पहुंचाया है। "फिलहाल कवियों की हालत हतगौर व राजपरिवार के उन सदस्यों की तरह है जो पुराने दिनों की उपाधियों और राजसी वस्त्रों को धारण तो किये रहते हैं पर वास्तव में उनकी सत्ता छीन चुकी है।" आज का अभिजात तबका कविता पढ़ तो लेता है पर वह पूरी तरह मास मीडिया और मास कल्चर का मुरीद है। वह उसी को महत्त्व देता है जिसकी बाज़ार में कोई कीमत है और फिलहाल कविता की बाज़ार में कोई कीमत नहीं है। लेखक ने यह प्रश्न भी छोड़ा है कि "क्या यह ज़रूरी नहीं है कि कविता भी मास मीडिया से जुड़े?" कविता के अस्तित्व को बचाने के लिए प्रिंट मीडिया को पूंजीवादी मानकर उससे मुँह फेर लेना भी कोई समझदारी नहीं है।




'किताब से कट्टी' अध्याय में डा हाड़ा का कहना है कि किताबों से बच्चों की गहरी दोस्ती जो नंदन, चम्पक, पराग जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से हुई , में अब दरार पड़ने लगी है - टीवी के विस्फोटक प्रसार ने आह्लाद और उत्साह को क्षीण कर दिया है। बच्चों में कल्पनाशीलता की कमी होती जा रही है। टीवी उनके लिए 'प्लग इन ड्रग' का काम कर रहा है। लेखक ने दैनिक-पत्रों की भूमिका को भी संदिग्धता के दायरे में रखा है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के दौर में दैनिक पत्रों का अपने बुनियादी सामाजिक सरोकारों से गहरा लगाव कम होता जा रहा है- "अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, कुपोषण, जातीयता, लैंगिक भेदभाव और साम्प्रदायिकता जैसे बुनियादी सामाजिक सरोकार अब हिंदी दैनिकों की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं हैं।" लेखक का प्रश्न इतना ही है कि संचार क्रान्ति ने "दैनिक पत्रों का जो कायाकल्प किया उससे दैनिक पत्र शॉपिंग में व्यस्त, खाते-पीते और आकण्ठ मनोरंजन में डूबे नए भारतीय मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर सम्पूर्ण देश की जो तस्वीर वे पेश कर रहे हैं, वह असलियत से बहुत दूर है। विडम्बना यह है कि देश की जनसँख्या का बड़ा हिस्सा जिसमें गरीब, अल्पसंख्यक, जनजातियाँ, वृद्ध आदि शामिल हैं इस तस्वीर में कहीं भी नहीं हैं।"

'गाँव-कस्बों के अखबार' अध्याय में लेखक ने इस बात का भी बहुत गहरे स्तर पर विश्लेषण किया है कि समाचार-पत्र व्यवसाय बनकर केवल एक नई प्रकार की विज्ञापन संस्कृति को जन्म दे रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता की एक अलग ही संस्कृति अस्तित्व में आ रही है। साथ ही लेखक पत्रकारिता के फायदों को दरकिनार न कर स्पष्ट करते है कि आज भी हिंदी दैनिक पत्र दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाकों में सूचनाओं, घटनाओं, गतिविधियों आदि के प्रसार का प्रभावी एवँ महत्वपूर्ण माध्यम है , ज़रूरत है तो बस उसे मुनाफे के लिए गढ़ी, वितरित और प्रसारित संस्कृति बनने से बचाने की। 'बनती-बिगड़ती भाषा' शीर्षक अध्याय में लेखक ने इस ओर दृष्टिपात किया है कि दैनिक-पत्रों की भाषा अतिरंजनापूर्ण होती जा रही है जो यथार्थ को अतियथार्थ में तब्दील कर यथार्थ और भाषा की दूरी को निरंतर बढ़ा रही है। साथ ही हिंदी का ठोस और ठस मानक रूप टूट-बिखर रहा है। जिसने गद्य को लचर बना दिया है। हिंदी भाषा की प्रकृति प्रारम्भ से ही समावेशी रही है। भूमंडलीकरण और संचार क्रान्ति ने हिंदी में एक नई शब्दावली को सामने लाया जिसे हिंदी ने विविध संस्कृतियों और समाजों से ग्रहण कर अपने को समृद्ध किया किन्तु साथ ही लेखक 'हिंदी पर सवार हिंग्रेजी' में यह चिंता भी व्यक्त करते हैं कि- "कोई भाषा अपने पांवों पर खड़ी होकर दूसरी भाषा का बोझ उठाये, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन इधर हिंदी दैनिकों के नगरीय परिशिष्टों में अंग्रेजी हिंदी की पीठ पर सवार है। उसके बोझ से हिंदी बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है।"


इस पूरी पुस्तक के आलोचना-कर्म में मीरा पर लिखे लेख 'मीरा का छवि-निर्माण' में एक अलग प्रकार की भावुकता प्रकट हुई है इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि आलोचक का लंबा शोध-कार्य मीरा पर है जिससे भावात्मक जुड़ाव होना स्वाभाविक है। आलोचक ने मीरा और मीडिया के चरित्र को समान्तर रूप से परखने की कोशिश की है। मीडिया पर यदा-कदा ख़बरों को, जानकारियों को, तथ्यों को फ्रैक्चर्ड करने का आरोप लगता रहा है। ऐसे में मीरा को जिस रूप में इतिहास और साहित्य में जिस रूप में हमने पढ़ा है। वह रूप एक ऐसी भक्त कवि का है जिसकी भक्ति का केंद्र ही प्रतिरोध-विद्रोह है। जो इस धर्मसत्ता, पितृसत्ता और राजसत्ता का विरोध करती है। किन्तु संचार-मीडिया, कैसेट्स-सीडीज ने मीरा का जो चरित्र गढ़ा है वह एक प्रेम-दीवानी में सिमट कर रह जाता है-"जन्म से राजपूत राजकुमारी मीरा का शौर्य रणक्षेत्र की जगह ईश्वर के चरणों में भक्ति और समर्पण में व्यक्त हुआ।" उसकी कविता का केंद्रीय स्वर ही अनदेखा कर दिया गया।


इस आलोच्य पुस्तक में 'सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया' अध्याय में, जो इस पुस्तक का शीर्षक भी है, लेखक ने मीडिया के चरित्र को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार मनुष्य की प्राचीन से आधुनिक बनने की दीर्घकालीन और निरंतर प्रक्रिया में मीडिया ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया की शुरुआत रेडियो से होते हुए दूरदर्शन-टेलीविजन से इंटरनेट जैसे ऑनलाइन मीडिया तक पहुँची।

पुस्तक के परिशिष्ट में 'हमारे मन में महाभारत मचा है' शीर्षक से लेखक की प्रसिद्ध कहानीकार स्वयं प्रकाश के साथ हुई लम्बी बातचीत है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उसके भारतीय समाज व साहित्य से सम्बन्ध पर बड़े ही सारगर्भित ढंग से प्रकाश डालती है। जहाँ यह स्पष्ट है कि कहानीकार स्वयं प्रकाश मीडिया को लेकर हिक़ारत का भाव नहीं रखते बल्कि एक चुनौती के रूप में लेते है। यह पुस्तक आलोचक की प्रखर आलोचना-दृष्टि को बहुत ही तटस्थता से प्रकट करती है।


पुस्तक- सीढ़ियां चढ़ता मीडिया (आलोचना-पुस्तक)


लेखक- माधव हाड़ा


आधार प्रकाशन, पंचकूला


मूल्य- 250/-


अनुपमा शर्मा anupamasharma89@gmail.com

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