Saturday, December 13, 2014

विमर्शिया विमर्श

कुपाठ तैयार करवाओ  
फिर उसे छपवाओ
कागज़ को रद्दी बनवाओ
अपनी जय-जयकार करवाओ
फिर रहा-सहा विमर्श बिठवाओ
फिर दुनिया को ज़बरन पढ़वाओ
सा'हित्या' मार्केटिंगबाज़ों
शाहरुख खान से ख़िताब छीनकर लाना है
अब खाली हाथ वापस घर नहीं आना है।

कविता ऐसे भी लिखी जाती है



यह लेख दो वर्ष पूर्व मेरे मित्र शशि शेखर ने नरेश सक्सेना के दूसरे काव्य-संग्रह 'सुनो चारुशीला' पर लिखा था, जो बाद में 'जनसत्ता' 14 अक्टूबर 2012 अंक में छपा भी।

हिंदी की नई पीढ़ी के रचनाकारों में हमेशा कुछ लिखते और छपते रहने की होड़ को आजकल आराम से लक्षित किया जा सकता है. संभवतः इसके पीछे कारण यह डर है कि न लिखते रहने से कहीं उन्हें बीते युग का रचनाकार न मान लिया जाए. निश्चय ही ऐसी सोच और ऐसी होड़ साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है. कम लिखना पर सार्थक लिखना साहित्य के लिए ज्यादा बेहतर मूल्य है. कवि-नाटककार नरेश सक्सेना अपने पहले कविता-संग्रह 'समुद्र पर हो रही है बारिश' के लगभग पचास साल बाद अपने दूसरे कविता-संकलन के साथ दिखाई दे रहे हैं. 'सुनो चारुशीला' उनका नया कविता-संग्रह है. कविता-संकलनों की संख्या के लिहाज से नरेश मेहता बड़े कवि नहीं ठहरते. पर इस तरह के बड़प्पन की ख्वाहिश संभवतः खुद उनमें ही नहीं है. वे भले ही बहुत कम लिखते रहे हों पर उनका एक बड़ा पाठकवर्ग है जो उनकी कविताओं में हमेशा कुछ नया पाता है. उनकी कविताओं में जो गहरी संवेदनशीलता, मानवीय सरोकार, सौन्दर्यबोध, विचार और संवाद की क्षमता है वह लगातार पाठकों से जुड़ती है, उनसे सवाल करती है, अपने समय, समाज और सबसे बढ़कर अपनी मानवीयता पर गंभीरता से सोचने को प्रेरित करती है. उनमें पाठकों से यह आग्रह भी रहता है कि वे उनकी कविताओं में अपनी रुचि, लगातार विस्तृत होती अपनी समझ और समय और पाठ की जरूरतों के हिसाब से कुछ नए अर्थ जोड़ें. उनकी कविताओं में निहित यह आग्रह उनकी अपनी मौलिक विशेषता और शक्ति है. वहीं निरंतर एक सौन्दर्यमयता, आकर्षण, लालित्य और लय का प्रवाह उनकी कविताओं को अद्भुत रूप से पठनीय और संग्रहणीय बना देता है. ये विशेषताएं पाठकों के मन-मस्तिष्क पर अंकित हुए बिना, उन्हें प्रभावित किए बिना नहीं रह सकतीं.


इस संग्रह की भूमिका में नरेश सक्सेना लिखते हैं, "दसवीं के बाद हिंदी भाषा मेरा विषय नहीं रही. एम.इ. तक इंजीनियरिंग पढ़ी और पैंतालीस वर्ष तक इंजीनियरिंग ही की. ईंट, गिट्टी, सीमेंट, लोहा, नदी, पुल - मेरी रोजी-रोटी का साधन रहे हैं. सोच के केंद्र में रहे हैं. वे मेरी कविता से बाहर कैसे रह सकते हैं!" भूमिका से यह उद्धरण देना आवश्यक है क्योंकि जिन पाठकों को कविता में ईंट पत्थर जैसे शब्दों को पढ़ने की आदत नहीं है उन्हें इस संग्रह की कविताओं में न केवल ये शब्द मिलेंगे बल्कि इनपर केन्द्रित कविताएँ भी मिलेंगी. नरेश जी से पहले इनपर कम से कम हिंदी में किसी ने कविताएँ लिखी भी नहीं हैं. किसी रचनाकार की रचना में उसके अपने परिवेश व्यवसाय आदि से शब्दों का आना स्वाभाविक है पर फिर भी यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि जब रचना में साहित्य की निर्मित दुनिया से बाहर के शब्द आएँ तो खटके नहीं. नरेश जी की 'ईंटें', 'सेतु', 'चट्टानें', 'मिट्टी' जैसी कविताएँ इस बात का बेहतर उदाहरण हो सकती हैं कि कैसे कविता जैसी नाजुक समझी जाने वाली विधा में नए प्रयोग किए जा सकते हैं. एक तरह से उनकी ये कविताएँ इस बात को पुष्ट ही करती हैं कि कविता किसी भी विषय पर हो सकती है, आवश्यकता है तो केवल एक सचेत विकसित संवेदनासंपन्न काव्यदृष्टि की. इस बात पर अलग से बात करने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि नरेश जी की ये कविताएँ कविता को एक नई दिशा भी दे रही हैं, उसके क्षेत्र को बड़ा भी बना रही हैं और साथ ही कविता में नए प्रयोग की संभावनाएँ में सुझा रही हैं. वैसे भी आजकल हर क्षेत्र में 'नए' को लेकर कुछ अधिक ही क्रेज़ है, फिर कविता ही इससे क्यों बाहर रहे. इस संग्रह की 'सेतु' कविता एक नया ही भावबोध प्रस्तुत करती है. दो लय जब मिलकर एक हो जाती हैं तो वे स्वयं ही अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश लेती हैं. इसलिए सेतु पर चलने से पहले सैनिक अपने क़दमों की लय तोड़ देते हैं. इसी तरह 'ईंटें-2' कविता है जहाँ मानव जीवन का सारा उजला-काला इतिहास ईंटों में सुरक्षित दिखाया गया है, "एक दिन सदियों पुराने अंधकार से/ बाहर निकल आएँगी/ रोशनी से भरी ईंटें/ और बतायेंगी अपने समय की/ घृणा और हिंसा और सहिष्णुता के बारे में". इन प्रयोगों से उनकी कविता की सम्प्रेषणीयता जितनी बढ़ी है, उसके प्रभाव में भी उतनी ही वृद्धि हुई है.


इन कविताओं में नरेश जी ने न केवल प्रकृति और मनुष्यता के सहज आत्मिक सम्बन्ध को समझा है बल्कि उसे उतनी ही सहजता से प्रस्तुत भी किया है. किसी भी रचनाकार के लिए यह बड़ी बात होती है कि वह चीजों को जैसे देखता और समझता है उसे उतनी ही सहजता के साथ प्रस्तुत भी करे. यह विशेषता केवल स्वभाव से नहीं आती, इसके लिए पर्याप्त श्रम भी करना पड़ता है. तभी तो कोई बड़ी और सार्थक रचना करना इतना सरल नहीं होता. इन कविताओं में प्रकृति न काल्पनिक है, न निर्जन और न ही स्वतःपूर्ण. कवि जब 'नीम की पत्तियों' को देखता है तो उन पत्तियों की हरियाली और उसके सौन्दर्य के साथ ही उसकी उपयोगिता भी उसके ध्यान में रहती है. यह अद्भुत सौन्दर्यदृष्टि है कि नीम की पत्तियों की सुन्दरता कोई बकरी के उस मीठे दूध में पाए जिसने नीम की पत्तियां खाई हैं. उन्हीं पत्तियों से माँ अपने शिशु को नीरोग भी करती है. नीम की पत्तियों का सच्चा सौंदर्य तो वही देख सकता है जो उसके गुणों को जानने के साथ ही उसके उपयोग की विधि भी जाने. जो किसी के सौन्दर्य में अपनी तरफ से कुछ नया जोड़ पाते हैं वही वास्तव में सौन्दर्य को समझते हैं. सुन्दरता नुमाइश की चीज भर नहीं होती, उन खूबसूरत पर बेजान पुतलों की तरह जिन्हें शोरूम में सजाते हैं या उन प्लास्टिक के फूलों की तरह जो आकर्षक तो लगते हैं पर जिनसे होकर गुजरने पर हवा महक नहीं उठती, न आस-पास के सारे वातावरण को सुगन्धित करती है. इस कविता के आलोक में यदि आज के समय को देखा जाए तो क्या दिखाई नहीं देता कि हमने कैसे स्वयं को यंत्र सा बना लिया है, कैसे हम उपभोक्ता तो हो गए पर उतने ही अनुत्पादक, सौन्दर्य के मर्म से कोसों दूर. 'पानी क्या कर रहा है' शीर्षक कविता इसलिए विशेष उल्लेखनीय है कि अपने कहने के ढंग में वह जितनी मौलिक और प्रभावशाली है अपनी कथ्य में उतनी ही संवेदनशील और विचारणीय. बेजान पानी में इतनी चेतना है कि कड़ाके की ठंड में सतह पर जमकर वह अपने अन्दर रहनेवाली मछलियों के लिए कवच का निर्माण करता है और इंसानों की दुनिया में हालात ये हैं कि "इस वक्त/ कोई कुछ बचा नहीं पा रहा/ किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को/ अपने हाथों से फसलों को आग लगाये दे रहा है/ माताएं बचा नहीं पा रहीं बच्चे/ उन्हें गोद में ले/ कुओं में छलांगें लगा रही हैं". कवि ने इस तुलना के द्वारा आज की राजनीतिक-सामाजिक सच्चाई को सामने भी रखा है और साफ़ शब्दों में कह भी दिया है कि शर्मनाक तौर पर हम संवेदनात्मक रूप से ठंडे पड़ते जा रहे हैं.


नरेश सक्सेना की संकलित हर कविता एक नैतिकबोध रखती है. यह नैतिकबोध कुछ कविताओं में साफ़ दिखाई देगा तो कुछ में कहीं गहरे में समाहित. संभवतः यही वह केंद्र है जहाँ से कविता अपनी रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त कर रही है और कुछ सार्थक करने की कोशिश में है. "चीजों के गिरने के नियम होते हैं! मनुष्यों के गिरने के/ कोई नियम नहीं होते./ लेकिन चीजें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं/ अपने गिरने के बारे में/ मनुष्य कर सकते हैं". यहाँ देखेंगे तो दिखाई देगा कि इंसानों की नीयत का गिरना, ज़मीर का गिरना कवि ने साफ़ देखा है, वह उससे क्षुब्ध भी है पर वह यह भी भलीभांति जानता है कि अपनी नैतिकता की रक्षा करना मनुष्य के हाथ में है. इस 'गिरना' कविता की सबसे खूबसूरत पंक्तियाँ वे हैं जब कवि गिरने का सलीका बताता है, "गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह/ रीते पत्र में पानी की तरह गिरो." इस संकलन की एक बड़ी ही सार्थक कविता 'मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ' है. एक बच्ची का सवाल कवि को स्तब्ध कर देता है. बहती नदी में रोशनी छुपी होती है, टरबाइन पर गिरकर वह बिजली पैदा करती है. इस नियम से कर्मरत संघर्षरत इंसानों में भी रोशनी होनी चाहिए और अगर ऐसा नहीं है तो साफ़ है कि हमारी कर्मशीलता गायब है. बात थोड़ी काव्यात्मक लग सकती है पर यह सवाल तब भी रहेगा, कम से कम एक बार इसपर सोचना होगा. कविता या साहित्य की किसी भी विधा का एक उत्तरदायित्व होता है. जो कविताएँ मात्र वस्तुस्थिति सामने रखती हैं उनके यथार्थबोध में कोई खोंट अवश्य है. जिन कविताओं में वस्तुस्थिति को लेकर कोई कशमकश नहीं या जिनमें कोई सुन्दर सार्थक स्वप्न नहीं, वे कुछ और हो सकती हैं, कविताएँ नहीं हो सकतीं. यह वह दुनिया है जहाँ हर कोई यह बताता है कि वह कैसी दुनिया चाहता है, समाज में दिखने वाली कौन सी चीजें उसे अच्छी नहीं लगतीं, वह क्या कुछ बदल देना चाहता है. कविता परिवर्तन का हथियार नहीं तो वह क्षेत्र अवश्य है जहाँ परिवर्तन के स्वप्न देखे जाते हैं. कविता यदि ऐसी पहल कर पाती है तो उसके होने में एक अर्थ है, सारी मनुष्यजाति तो उसकी जरूरत है.


संकलन का जो शीर्षक है वह उसकी एक कविता भी है. 'सुनो चारुशीला' पर बात किए बिना इस संकलन का कोई मतलब नहीं है. अपनी दिवंगता पत्नी तो याद कर हिंदी में जो कुछ कविताएँ लिखी गयी हैं उनमें यह कविता कहीं न कहीं अपनी जगह ज़रूर रखती है. जीवन में इतनी सारी महत्वाकांक्षाओं का क्या अर्थ है, बहुत अधिक स्वप्न देखने का क्या मतलब है. अगर जीवन में आपके पास एक भी ऐसा इंसान है जो आपसे प्यार करता हो, जो आपके हमेशा पास नहीं तो कम से कम साथ हो तो इससे अधिक क्या चाहिए. यह प्रश्न किसी भावुकता में नहीं किया गया. यह एक ऐसी समझ है जो इन्सान को तब मिलती है जब जीवन भर दौड़ते-भागते रहने पर भी हाथ कुछ नहीं आता, भीतर का खालीपन मिट नहीं पाता. "अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता/ एक तारे से अपना आकाश ." नरेश जी ने साम्प्रदायिक तनाव और उन्माद को केंद्र में रखकर भी कुछ कविताएँ लिखी हैं. 'रंग' कविता का अंदाजे बयां इसमें बेजोड़ है. प्रकृति रंग जानती है, रंगों को पैदा भी करती है पर यह नहीं जानती कि कौन सा रंग हिन्दुओं का है और कौन सा मुसलमानों का. इन्सान पता नहीं ये फर्क कैसे पैदा कर लेते हैं. इस संकलन की प्रत्येक कविता कुछ नई सी लगती है और कुछ अपनी सी भी. इस संकलन को देखकर तो यह अवश्य कहना चाहिए कि नए उभरते कवियों को नरेश सक्सेना से सीख लेनी चाहिए कि कविता कैसे लिखी जाती है.


पुस्तक: सुनो चारुशीला (कविता-संग्रह) कवि: नरेश सक्सेना
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य: 100 रुपए
शशि शेखर
कमरा संख्या- 111 , हिन्दू कॉलेज छात्रावास
मोबाइल: 09718053563