Wednesday, October 1, 2014

सरोकार के सामने



                                    
                                                        अंग्रेजी और हिंदी में समान रूप से लिखने वाले लेखक सदाशिव श्रोत्रिय अपने दूसरे निबंध-संग्रह 'सतत विचार की ज़रूरत' के साथ एक बार फिर से सामने हैं। वे इससे पहले 'मूल्य संक्रमण के दौर में' निबंध-संग्रह से चर्चा में रह चुके हैं। उनका यह हाल ही में प्रकाशित निबंध-संग्रह उनके पहले निबंध-संग्रह की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। लेखक ने समय की मांग को समझते हुए पाठकों से सीधे संवाद स्थापित करने का प्रयास किया है। संभवतः इसीलिए उन्होंने निबंधों की दुनिया में कदम बढ़ाया हैं। सदाशिव श्रोत्रिय जी का यह निबंध-संग्रह 'सतत विचार की ज़रूरत' आकारगत रूप से लघु होते हुए भी 33 लघु निबंध संजोए हुए है। इसका प्रत्येक निबंध अपने आप में एक विचारवान एवं गहनतम प्रक्रिया से होकर गुज़रा है जो अपने मौज़ूदा समाज पर सटीक ढंग से विचार-मंथन करता है। लेखक का मानना है कि विचार भाषा की सीढी चढ़कर ही मंथरता पाते हैं तथा परिष्कृत होते हैं। 


बदलते समाज, बदलते जीवन-मूल्यों में लोगों की आत्मकेंद्रितता लेखक की सबसे बड़ी चिंता है, उनके हर निबंध में कमोबेश यह चिंता बनी रहती है। व्यक्ति ने अपनी प्रगति, उन्नति एवं लक्ष्य के लिए स्वास्थ्य , शिक्षा , संस्कृति, धर्म सभी को बाज़ार के बीच ला पटका और क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया। इसी मूलभूत चिंता के इर्द-गिर्द उनके निबंध घूमते है। यही कारण है कि लेखक ने बड़े ही वाज़िब ढंग से धर्म, बाज़ार, संस्कृति, पर्यटन, शिक्षण संस्थानों की भूमिका, स्त्री सशक्तिकरण पर सवाल खड़े किए जिसमें लेखक ने अपने स्तर पर भी तथा समाज के स्तर पर भी सतत रूप से विचार की, आत्म-मंथन की ज़रूरत महसूस की है। 


लेखक के चिंतन के दायरे में मानव और प्रकृति का वर्तमान सम्बन्ध भी है। 'संस्कृति पर सवार पर्यटन' तथा 'प्रकृति से विच्छेद' लेखक की इसी चिंता को व्यक्त करते हैं। सांस्कृतिक विकास के केंद्र रहे मंदिरों में कला, संगीत, साहित्य, दर्शन, स्थापत्य आदि न केवल पल्लवित हुए बल्कि संरक्षित रहे किन्तु उन तीर्थस्थानों को पर्यटन के अनुकूल बनाने के प्रयासों ने उनके मूल स्वरुप को नष्ट कर दिया। 'प्रकृति से विच्छेद' में भी लेखक यही संकेत करता है कि मनुष्य का प्रकृति से चिरकाल से चला आ रहा अटूट सम्बन्ध विच्छेद की ओर है जो हमें आनंद , जीवन और पोषण के हमारे मूल स्रोतों से काटकर रख देगा। लेखक स्वयं धर्म के नाम पर तटस्थ हैं वे न अंधविश्वासी के रूप में उपस्थित होते हैं तथा न ही धर्म की, मंदिरों की मुखालफ़त करते हैं। उनकी चिंता का सबब यही है कि भारतीय समाज पर, उसकी मानसिकता पर पूँजीवाद पूरी तरह से हावी हो चुका है। धर्म व आस्था को बाज़ार ने आ घेरा है। लेखक 'चढ़ावे' के स्थान पर 'आय' शब्द का प्रयोग करता है जो आस्था, भक्ति, श्रद्धा जैसे शब्दों का व्यवसायीकरण होकर बाज़ार, व्यापार, मुनाफे में तब्दील होने की ओर ही संकेत करते हैं। जहां मंदिरों को उद्योग की दृष्टि से देखा जाने लगा है। 


'अतीत के द्वार' निबंध में लेखक ने यही प्रकट किया है कि पर्यटन या भ्रमण एक उद्देश्य को लेकर हुआ करते थे किन्तु आज की कुरकुरे और मैकडोनाल्ड संस्कृति ने इसके मूल मंतव्यों को दरकिनार कर मनोरंजन, आनंद, लुत्फ़ और सैर-सपाटे को तरज़ीह दी है। जिसमें वे स्थान पिकनिक स्पॉट से अधिक कुछ नहीं रह गए हैं। लेखक के लगभग सभी निबंधों में कम-ज्यादा उनकी अपनी पैतृक मिटटी नाथद्वारा का ज़िक्र आता है इसका बहुत बड़ा कारण यह भी है कि मनुष्य के आचार-विचार तथा अनुभव को विस्तार देने में आस-पास, परिवार, पृष्ठभूमि की विशेष भूमिका होती है। वह अपनी अनुभूतियों, परिस्थितियों एवं परिवेश से ही सीखता है। लेखक ने अपने इस अभिन्न अंग को कृति में अनुभव तथा विचार के स्तर पर संजोया है, यह प्रशंसनीय कार्य है। नाथद्वारा में धर्म की जो स्थिति है वह लगभग पूरे भारत का ही अक़्स है। उनका निबंध 'कारवालों के रास्तें ' में लेखक ने मध्यम वर्ग की उस भौतिकतावादी मानसिकता को उघाड़कर रखा है जिसमें सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार आचार-विचार-व्यवहार न होकर साधन-सम्पन्नता है। कार-स्वामी होने की होड़ ने कारों की संख्या में सुरसा के मुँह की-सी बढ़ोतरी ने सड़कों को पार्किंग-स्थलों में तब्दील कर दिया है। नाथद्वारा में कारवालों को सुविधा मुहैया कराने के लिए किस प्रकार पर्यावरण तथा वन्य जीवों की अनदेखी की गई तथा तीस फ़ीट चौड़ी सड़कें बना दी गई। ये निबंध सांस्कृतिक केन्द्रों का औद्योगिक केन्द्रों में परिवर्तित होना परिलक्षित करते हैं, साथ ही भीतर तक मथते भी हैं कि इस शताब्दियों लम्बी प्रक्रिया में लगभग पूरे भारत के जंगलों को इसी बर्बरता से काटा गया। 


लेखक की पैनी नज़र से कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। 'शब्दों की जरूरत' में लेखक स्पष्ट करना चाहते हैं कि"वस्तुएँ शब्दों का विकल्प नहीं हो सकती।" लेखक का मानना है कि किसी भी जनतांत्रिक समाज के स्वस्थ, जागरूक और स्वतंत्र बने रहने के लिए उसके सदस्यों का भाषा पर पर्याप्त अधिकार आवश्यक है। 'योग का बाज़ार' निबंध में लेखक का कहना है कि पतंजलि ने जिस योग को आत्मिक व मानसिक संतुष्टि का मार्ग बताया था उसे आज के बाज़ारवादी दौर में प्रतिष्ठित तो कर दिया गया है पर इसकी आड़ में सैकड़ों व्यापारिक ध्येय से लबरेज़ योगपीठ आसन लगाए बैठे हैं। 


लेखक की अपने समय व उसकी समस्याओं पर गहरी पकड़ है। उनका मानना है कि मीडिया का सरोकार निष्पक्षता के साथ लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखना भी है जिसमें मीडिया भटकाव पर है। 'मीडिया की भूमिका' एक प्रश्न है जिसमें लेखक ने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को कटघरे में खड़ा किया है कि किस प्रकार मीडिया अपने नैतिक दायित्व को भूल विज्ञापनों और सनसनीखेज़ खबरों का अम्बरघाट बनता जा रहा है। वह अपनी मूल प्रकृति रचनात्मकता व निष्पक्षता से कोसों दूर जा रहा है। 


किसी भी समाज व राष्ट्र की प्रगति स्त्रियों को साथ लिए बिना संभव नहीं है। लेखक भी स्त्री के प्रति इसी दृष्टिकोण से इत्तेफाक रखते हैं। उन्होंने 'आधुनिक युवा' तथा 'कामकाजी पत्नियां' निबंध में नारी सशक्तीकरण तथा स्त्री विमर्श के विषयों को केवल लेखिकाओं तक ही सीमित करके नहीं देखा बल्कि वे इसे गाँव-देहात में पढ़ रही छात्राओं तक लेकर जाते हैं। वे नगरीय वातावरण पर भी टीप देते हैं कि "यहाँ के कन्या महाविद्यालय में पढ़ने वाली पचास प्रतिशत से भी अधिक छात्राएँ सिर्फ मौज-मस्ती और पारिवारिक श्रम से बचने से बचने के लिए प्रतिदिन वहां आती हैं।" लेखक 'आधुनिक युवा' में अपने अध्यापकीय अनुभव को सामने रखते हैं कि "छात्राओं के महाविद्यालय में यदि किसी दिन अरुणा राय जैसी किसी विदुषी की वार्ता रख दी जाए तो पचहत्तर प्रतिशत छात्राएं शायद उस दिन कॉलेज ही नहीं आएँगी।" वे गहरे स्तर पर यह प्रश्न उठाते हैं कि केवल कॉलेज जाना भर ही शिक्षा नहीं है। उनका मानना है कि स्त्रियों में दायित्व-बोध का विकास होना चाहिए जो सही मायने में पितृसत्ता को चुनौती दे सके। वे केवल कॉलेज स्तर पर पाक कला, कढ़ाई-बुनाई, मेहंदी आयोजनों तक ही खुद को सीमित न रखें अपितु अकादमिक गतिविधियों को भी जीवन में महत्व व स्थान दें। वे अपने आप को एक ऐसे विवेक से संपन्न करें जिसमें अपने मूल्य हो, पितृसत्ता का पोषण ही निहित न हो। 






यह कहना अनुचित न होगा कि लेखक की सम्प्रेषण क्षमता गज़ब की है। आकार की दृष्टि से यह छोटा-सा निबंध-संग्रह है किन्तु सामाजिक स्थितियों व परिदृश्यों को देखने की प्रेरणा एवं एक सटीक दिशा देता है। मानवीय संबंधों को बहुत ही गहराई एवं संवेदनशीलता से पकड़ता है। साहित्यिक दृष्टि से यह विधा निबंध है किन्तु इन्हें पढ़ना ऐसा है जैसे उपन्यास की दुनिया से गुज़रना। यह प्रशंसनीय है कि इस निबंध-संग्रह के माध्यम से सदाशिव श्रोत्रिय ने वर्तमान भारत की लगभग सभी गुप्त एवं प्रकट समस्याओं को सामने रखा है। पाठक इससे इन पर गंभीरता से विचार कर पाएंगे जिससे चिंतन को बल मिलेगा। 






पुस्तक: सतत विचार की ज़रूरत (निबंध-संग्रह)


लेखक: सदाशिव श्रोत्रिय


बोधि प्रकाशन 


मूल्य - 125/- रूपए 



अनुपमा शर्मा 
हिन्दू कॉलेज एम.ए. हिंदी  


(यह पुस्तक-समीक्षा दैनिक-पत्र 'जनसत्ता' में 24 अगस्त 2014 के पुस्तकायन स्तम्भ में प्रकाशित हो चुकी है, जिसका लिंक नीचे दिया हुआ है।)