Wednesday, May 10, 2017

मुश्किल काम - असग़र वज़ाहत



हम समय के ऐसे दौर में आ चुके हैं जब सीधी बात कहने का अवसर नहीं होता. आज हमारे चारों तरफ जो हो रहा है वह बड़ा अविश्वसनीय सा लगता है किन्तु यह सच प्रतीत होता है कि विपरीत परिस्थितियों में सबसे पहले अच्छाई आहत होती है. इतना भयंकर, इतना क्रूर, इतना निर्मम, इतना लालची, और स्वार्थी, संस्कारहीन, पशु से भी गिरा हुआ आदमी कैसे हो सकता है पर फिर यह भी ध्यान आता है कि जो कुछ हो रहा है वह सच्चाई है. हम पतनशीलता के ऐसे दौर में आ गए हैं, जिसकी कल्पना करना भी कठिन है. हम इतने हिंसक, क्रोधी एवं निर्मम हो गए हैं कि हमारे लिए बड़े से बड़ा अपराध या हत्या कर देना कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि मज़ाक है. लोगों की ज़िन्दगी इतनी सस्ती तो शायद कभी न रही होगी. समाज में जहां रोज लोग जला दिए जाते हैं, सैकड़ों बेसहारा गरीब रोज सड़कों पर मर जाते हैं, चंद रुपयों के लिए हत्याएं होती हैं, इंसान की जिन्दगी की कोई कीमत नहीं बची है, ऐसे समाज में लोगों की संवेदनशीलता मापने का कयास लगाना भी हास्यास्पद लगने लगता है. 


असग़र वज़ाहत को पढ़ना, पढ़ना भर नहीं रहता, अपने समय और समाज की उस गर्त में उतरना है, जिसकी भयावहता को नज़दीक से देखने की कल्पना से भी सिहरकर हम उसे दरकिनार कर आगे बढ़ जाते हैं. उनकी कहानी ‘मुश्किल काम’ इमरजेंसी के दौर की ऐसी ही कहानी है जो उस समय हुए दंगों की भयावहता को प्रकट करती है साथ ही मनुष्य, मानवीयता, उसकी संवेदना के तिलिस्म को भी उघाड़कर रख देती है कि किस तरह ऐसे समय में वीभत्सता अपने चरम पर होती है, मानवीय संवेदन किस तरह एकदम शून्य हो जाता है। किसी ने सत्ता की कुर्सी पाने के लिए, तो किसी ने धर्म की आड़ में ये सब किया. आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद देश में कई दर्दनाक दंगे हुए, जिसमें मानवता ही मरी है.


असग़र वज़ाहत की कई कहानियाँ दंगों के भयावह चित्र सामने लाकर खड़े कर देती हैं. उनके लेखन की विशेषता यह रही है कि उनका साहित्य आम जनजीवन के मुद्दों पर केन्द्रित रहा है. चाहे उनकी कहानियां हों, उपन्यास हों अथवा नुक्कड़ नाटक सभी जगह आम लोगों के जीवन की समस्याओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रमुख रूप से उभर कर सामने आती है. वे बड़ी से बड़ी बात को इतनी आसानी से और सहजता से कह जाते हैं कि पाठक के मन पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता. उनकी यह लघु कथा ‘मुश्किल काम’ ढाई पेज में लिखी हुई पूरी कहानी को संवादों में कहती है. सन 1975 के आसपास वे लगभग अपना पूरा लेखन लघु-कथाओं पर आधारित लिख रहे थे. वह समय ऐसा था, जब अभिव्यक्ति को सेंसर किया जा रहा था लेखक अपनी प्रतिबद्धताओं को अमलीजामा पहनाता कम समय में समाज तक ज्यादा पहुँचाने की कोशिश में जुटा है. असग़र वज़ाहत स्वयं कहते हैं- “मैंने आपातकाल के समय लघुकथाएं लिखनी शुरू की थीं, क्योंकि उस समय यथार्थ को व्यक्त करने का कोई ऐसा रास्ता तैयार करना था, जिस पर सेंसर की कैंची न चल सके.” 


सरकारें आती हैं, कुछ समय बाद चली जाती हैं लेकिन समाज में हिंसा और घृणा फैल जाती है तो वह बहुत दूर तक जाती है और उसका सबसे अधिक नुकसान आम जनता को होता है. असग़र वज़ाहत की यह लघुकथा आबादियों को उजाड़े जाने की कथा कहती है जिसमें धर्म, जाति, सम्प्रदाय और हिंसा-प्रतिहिंसा की दुनिया है. ‘मुश्किल काम’ में आतंक का आतंक है. कहानी की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह है कि जब दंगे खत्म हो गये, चुनाव हो गये, जिन्हें जीतना था जीत गये, जिनकी सरकार बननी थी बन गयी, जिनके घर और जिनके जख्म भरने थे भर गये, तब दंगा करने वाली दो टीमों की एक इत्तफाकी मीटिंग हुई. जिसमें एक मदिरालय में बैठकर इन दंगाइयों के बीच बातचीत ये होने लगी कि पिछले दंगों में किसने कितनी बहादुरी दिखाई, किसने कितना माल लूटा, कितने घरों में आग लगाई, कितने लोगों को मारा, कितने बम फोड़े, कितनी औरतों को कत्ल किया, कितने बच्चों की टाँगें चीरीं, कितने अजन्मे बच्चों का काम तमाम कर दिया, आदि-आदि. इसी स्पर्धात्मक बातचीत को लेखक ने इस लघुकथा में पिरोया है.


इन दो दलों के बीच बातचीत में होड़ सी लगी है कि कौन से दल ने दंगों में सबसे अधिक तबाही मचाई है, तबाही भी उत्सवधर्मी हो सकती है, यह इस भरभराते और दरकते मूल्यों में सोचने का विषय हो गया है. असल में लेखक की यह कहानी लुप्त होती इंसानियत की तलाश की कहानी है, जो भी चीज़ इन्सान की स्वाभाविक और प्राकृतिक अच्छाई पर आघात करती है उसकी तह में जाने की कहानी है. कहानी में दंगो के दौरान हुई तबाही पर एक संवाद आता है कि 'तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं.' इसी क्रम में दोनों दल संख्याबल पर जोर दे रहे हैं कि तुमने बस इतने मारे, हमने इतने मारे..! ये जिस संख्या पर बल दिया जा रहा है, वह संख्या इन्सान की है, किन्तु इतिहास में जो दर्ज़ है वह केवल संख्या है, दंगों में नफरत के रिसते मवाद का ग्रास बने जीते-जागते लोगों की संख्या..! दंगों में जिन्हें मारकर शान से संख्या में बताया जाता है, वह संख्याबल इंसान का है, पर यह इस देश की त्रासदपूर्ण विडंबना है कि मरने वालों की केवल संख्या दर्ज़ की जाती है. उस आंकडें में कितने घर बर्बाद हो गए, कितने कुटुंब के कुटुंब समाप्त हो गए.. यह इस दंगाई सोच के दायरे में नहीं आता. मनुष्यता की परख लेखक समय के साथ करता चलता है. पतनशीलता में मनुष्य का सानी नहीं मिल पाता. इस घृणा एवं द्वेष में समाज का ऐसा हिस्सा पिसता है जिसे अपनी दो वक़्त की रोज़ी-रोटी की जद्दोजेहद से ही फुर्सत नहीं है. उनके लिए आपातकाल क्यूँ लगा है, दंगों की वज़ह क्या है, सत्ता में कौन सी पार्टी है, कौन सी आना चाहती है, यह उसके सरोकार ही नहीं है. दंगा भड़काने वाले यह बखूबी जानते भी है कि समाज का कौन सा वर्ग उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकता, कौन सा वर्ग सबसे अधिक कमज़ोर है, जिसे आसानी से चोट पहुंचाई जा सकती है. कहानी में बीच बीच में ये संवाद भी आते हैं, जो ध्यातव्य हैं कि- “तुमने जिन छब्बीस आदमियों को मारा है. . .उनमें ग्यारह तो रिक्शे वाले, झल्ली वाले और मजदूर थे, उनको मारना कौन-सी बहादुरी है?” इसी क्रम में “बूढ़ों को मारना तो बहुत ही आसान है. . .उन्हें क्यों गिनते हो?' 'तो क्या तुम दो बूढ़ों को एक जवान के बराबर भी न गिनोगे?”


दंगे के दौरान मारे गए लोगों के ‘वलनरेबिलिटी चेक’ में जब मरने वालों की संख्या में औरतों की संख्या गिनाई जाती है तो उसका तथाकथित विश्लेषण करते हुए दोनों दल जो ज़िरह करते है- “तुमने जिन छब्बीस को मारा है. . .उनमें बारह तो औरतें थीं.' यह सुनकर पहला हंसा. उसने एक पव्वा हलक में उंडेल लिया और बोला, 'गधे, तुम समझते हो औरतों को मारना आसान है?' 'हां.' 'औरतों की हत्या करने के पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है. . .तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है.' 'लेकिन वे होती कमजोर हैं.” दंगें कभी के भी रहे हो, धार्मिक, साम्प्रदायिक, राजनीतिक किन्तु स्थिति सभी में लगभग एक सी ही रहती है कि औरतों को सबसे ज्यादा शिकार बनाया जाता है, जैसे उनके साथ किये गए बलात्कार-हत्याएं ही जीत का निर्णय करेंगे. डोमिनिक लैपियर और लैरी कोलिन्स अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में तथ्यात्मक रूप से इस बात का उल्लेख करते है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय हुए दंगों में जितनी बर्बरता उस समय की औरतों के साथ की गई, वह पैर तले की ज़मीन खिसकाने वाली थी, भारत पाकिस्तान में भी एक ऐसी ही प्रतिस्पर्धा उस समय लगी थी जिसमें दंगों की वीभत्सता का पैमाना यह था कि कौन सा देश जवाबी कार्रवाई में औरतों के कटे हुए स्तनों की ज्यादा बोरियां भेजता है. असग़र वज़ाहत की यह कहानी उस समय की, उस सत्ता की पदलोलुपता का का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देती है. 


कहानी का अंतिम अंश सबसे महत्वपूर्ण है, उसकी महत्ता इस मायने में भी है कि अब तक इन दोनों दलों को स्त्री, पुरुष, वृद्ध, मजदूर, रिक्शेवाले, जवान सभी को मारना धीरे-धीरे आसान लगने लगा था. इस अंश पर आकर उन्हें इन आसान कामों के बीच दुनिया का सबसे मुश्किल काम पता चलता है. अंत में आकर बच्चों को मारने की जो आसानी कि 'अरे, बच्चों को मारना तो बहुत आसान है, जैसे मच्छरों को मारना. यह इस कहानी का पीक पॉइंट कहा जा सकता है. असग़र वज़ाहत की यह कहानी जिस आतंक और दहशत के बीच लिखी गई है, वह रोंगटे खड़े कर देती है, पर इस अंतिम पंक्ति पर आकर सारी दहशत और आतंक पिघलकर बह जाता है- “यही कि बच्चों को मारना बहुत मुश्किल है. . .उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है. . .औरतों को मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल.' 'बच्चों को मारते समय. . .अपने बच्चे याद आ जाते हैं.” यहाँ पहुँचकर सारे शब्द बौने हो गए हैं और छोटे पड़ गए हैं..! इस पंक्ति को पढने के बाद जो भीतर एक सन्नाटा पसरता है उसमें मुझे यह महसूस होता है कि आज स्थिति और भी भयावह हो गई है कि पेशावर के एक आर्मी स्कूल में लगभग डेढ़ सौ बच्चे मार दिए जाते हैं, पर उन आतंकियों को उनमें अपने बच्चे नज़र नहीं आते हैं, सीरिया में ज़ारी खूनी संघर्ष में खून से लथपथ बच्चों की तस्वीरें सोशल मीडिया में वायरल होती है। तस्‍वीरों को हजारों बार शेयर किया जाता है पर स्थिति जस की तस रहती है. 


जीवन इतना नंगा हो गया है कि अब लेखक उसकी पर्तें क्या उखाड़ेगा, रोज़ अख़बार में जो छपता है वह पूरे समाज को नंगा करने के लिए काफ़ी है. पाठक के अंदर अब उस तरह से किसी भाव का संचार नहीं हो सकता जैसे पहले हुआ करता था. अब अगर आज आप ‘पूस की रात’ की संवेदना जैसी संवेदना की कहानी लिखेंगे तो लोग कहेंगे कि यह तो रोज़ देखते हैं. हम इसके आदी हो गए हैं. मानवीय संबंधों में जितनी गिरावट आई है, मनुष्य का जीवन जितना मूल्यहीन हुआ है, सत्ता जैसा नंगा निर्मम नाच दिखा रही है, मूल्यहीनता की जो स्थिति है, स्वार्थ साधने की जो पराकाष्ठा है, हिंसा और अपराध का जो बोलबाला है, सत्ता और धन के लिए कुछ भी कर देने की होड़, असहिष्णुता और दूसरे को अपमानित करने का भाव जो आज हमारे समाज में है, वह पहले नहीं था. आज हम अजीब मोड़ पर खड़े हैं. रचनाकार के लिए यह चुनौतियों से भरा समय है. 


लेखक असग़र वजाहत अपने समय और समाज को सामने लाने के लिए जिस लघुकथा शैली का प्रयोग करते हैं, वह अपने आप में अनूठी है, यह पूरी कहानी संवादों में अपनी बात कहती है, इनकी कहानियों को ‘कामिकल ट्रेजडी’ भी कहा जाता हैं. हास्य और व्यंग्य, इस तरह कहानी को आगे बढ़ाते हैं कि वह त्रासदी बनकर विषय और पात्र को नए आयाम और अर्थ देते हैं. असग़र वज़ाहत स्वयं भी कहते हैं- “इतना तो मैं कह सकता हूं कि व्यंग्य, हास्य, नाटकीयता आदि के माध्यम से अपने समय और समाज को समझने का काम मुझे अच्छा लगता है.” 


लघु-कथा के संबंध में फैली भ्रांतियों को तोड़ती असग़र वजाहत की लघुकथाएँ अपनी विशिष्ट शैलियों तथा व्यापक कथ्य प्रयोगों के कारण चर्चा में रही हैं. वे पिछले पैंतीस साल से लघुकथाएं लिख रहे हैं. उनकी लघुकथाएँ इन अर्थों में अन्य लघुकथाओं से भिन्न हैं कि उनकी लघुकथाएं किसी विशेष शैली के सामने समर्पण नहीं करती हैं. ये लघुकथाएँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों तक फैली हुई हैं. सामाजिक प्रतिबद्धता इन लघुकथाओं की एक विशेषता है, जो किसी प्रकार के अतिरिक्त आग्रह से मुक्त है. इन लघुकथाओं के माध्यम से मानवीय संबंधों, सामाजिक विषमताओं और राजनीतिक ऊहापोह को सामने लाया गया है. 


लेखक जिन मानवीय मूल्यों की तलाश इस कहानी में करता है, वह भावना एक गहरे नैतिक उत्तरदायित्व के एहसास से उपजती है. एक ऐसी व्यवस्था में रहते हुए, जो लगातार मानवीयता को कुचलती है, निजी तौर पर लेखक अपने समाज के प्रति ख़ुद को उत्तरदायी समझता है एवं पीड़ा के सटीक स्थान पर ऊँगली रखना उसके लिए अपने समय के सरोकारों के प्रति उसके मानवीय फ़र्ज़ की अदायगी है इसीलिए वह बार-बार उन आधारभूत मसलों की तरफ़ मुड़ता है, जो सहज जीवन के रास्ते में रुकावट बन कर खड़े हैं जिनमें राजनीति, साम्प्रदायिकता, झूठ, फ़रेब, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, शोषण इत्यादि प्रमुख है. आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि देश में एकता, सद्भाव और शांति का वातावरण बना रहे. आज समाज में व्यापक स्तर पर जितनी घृणा और हिंसा फैल गयी है, वैसी शायद पिछले दशकों में नहीं थी. एक दिन यह समूल नष्ट होगी, इसी यकीन पर लेखक की कलम टिकी है. देरिदा का कथन भी है कि “चरम निराशा की अवस्था में किसी उम्मीद की आकांक्षा समय के साथ हमारे रिश्ते का एक अभिन्न अंश है. नाउम्मीदी इसलिए है क्योंकि हमें उम्मीद है कि कुछ अच्छा और सुंदर घटित होगा... !!”


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'बनास जन' असग़र वज़ाहत विशेषांक में प्रकाशित 






सामन्ती ज़माने में भक्ति आन्दोलन- अवसान और अर्थवत्ता


भक्ति आन्दोलन का उदय अपने समय के गहरे तनाव, संघर्षों एवं अंतर्द्वंद्वों का परिणाम था. यह अनायास ही नहीं था कि कभी इसे हताशा की उपज कहा गया तो कभी एक भयभीत और आक्रान्त व्यक्ति का स्वर कहा गया. समीक्षक राजीव रंजन गिरि का समीक्षात्मक निबन्ध "सामन्ती ज़माने में भक्ति आन्दोलन- अवसान और अर्थवत्ता" इसी आलोक में भक्ति आन्दोलन को देखता, जाँचता-परखता निबन्ध है. यह निबन्ध उनकी आलोचनात्मक पुस्तक “अथ साहित्य: पाठ और प्रसंग” में भी संकलित है भक्ति काल को भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा गया है इस आलोचनात्मक निबन्ध में इसके अवसान और उसकी वर्तमान अर्थवत्ता की, अब तक हुए साहित्यिक अध्ययनों एवं शोधों के तथ्यों के आधार पर विचार करते हुए गहरी पड़ताल की गई है.


भक्ति-आंदोलन के दौरान रचित साहित्य की व्याप्ति, प्रकृति और चरित्र का अध्ययन-विश्लेषण कई महत्वपूर्ण इतिहासकारों, साहित्य के इतिहासकारों व आलोचकों ने किया है. इन विद्वानों ने अपने-अपने नजरिए के मुताबिक इसे व्याख्यायित किया है और इसे समझने के लिए सूत्र भी प्रस्तावित किया है. लेखक राजीव रंजन गिरि ने भक्ति काल के साहित्य पर अब तक हुए अध्ययनों में रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, रांगेय राघव और मैनेज़र पाण्डेय की भिन्न भिन्न समय पर दी गई मान्यताओं को भी तथ्यों एवं तर्कों की कसौटी पर विचारा है. 


इन विद्वानों द्वारा किए गए विचारोत्तेजक अध्ययन-विश्लेषण पर विचार करने से पहले, इस सवाल पर गौर करना जरूरी है कि इसके 'अवसान' का आशय क्या है? क्या भक्ति-काल के बाद भक्ति-साहित्य की रचना बंद हो गई? हिन्दी कविता में किस प्रकार भक्ति का आवेश कम होने लगता है और धीरे-धीरे शरीर और संसार का निषेध करने वाली तथा महान मानवीय मूल्यों एवं सामाजिक मर्यादाओं को वहन करने वाली भक्तिकाव्य के पर्यवसान के बाद हिन्दी कविता खालिस लौकिकता और शारीरिक मांसलता की नरम दुनिया में चली जाती है. लेखक राजीव रंजन गिरि लिखते हैं- “साहित्य या किसी भी कला-रूप के संबंध में, यह बात कभी भी पूरी तौर पर लागू नहीं होती है कि किसी खास तरह की रचना एकाएक रुक जाए. कला-संसार के भीतर की परिघटना के मद्देनजर, यह कहना बेहतर होगा कि सांस्कृतिक इतिहास के एक खास क्षण में, उस तरह की रचना का जो महत्व होता है, बाद में नहीं रह पाता..!” 


लेखक ने इसका भी विस्तृत विवेचन किया है कि भक्ति-आंदोलन का उदय अपने वक्त के गहरे तनाव और संघर्ष का परिणाम था। उसका एक निश्चित सामाजिक आधार और भौतिक कारण था. जाहिर है, जैसा कि हर दौर के व्यापक सांस्कृतिक परिघटना में, ऊपरी स्तर पर एक समान प्रवृत्ति और समानता दिखती है, लेकिन ज्यों-ज्यों उसके भीतर जाने के लिए बारीक विश्लेषण किया जाता है, त्यों-त्यों परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ और अंतःसंघर्ष नज़र आने लगते हैं. लिहाजा, जब सिर्फ ऊपरी एकता पर ज्यादा बल देते हुए, उसे एकमात्र सच मानने की सिफारिश की जाती है तो आंतरिक अंतर्विरोधों के साथ-साथ, मौजूद वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों पर भी परदा पड़ जाता है; नतीजतन किसी भी सांस्कृतिक परिघटना या दौर का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हो पाता. 


आलोचक गिरि तथ्यात्मक रूप से स्पष्ट करते हैं कि हिंदी के कई बड़े आलोचकों में भक्ति-काल की व्याख्या के साथ एक और समस्या दिखती है. यह समस्या है, किसी एक कवि के आधार पर बनी दृष्टि के प्रतिमान पर अन्य कवियों को देखने की प्रवृत्ति. दूसरे शब्दों में, तुलसीदास को केंद्र में रखकर विकसित आलोचना-प्रविधि कबीरदास, सूरदास, जायसी, मीराबाई आदि के साथ न्याय नहीं कर सकती. यह उसी तरह सच है, जैसे कबीरदास को केंद्र में रखकर बना काव्य-प्रतिमान तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास आदि के साथ न्याय नहीं कर पाएगा. 

लेखक की चिंता के दायरे में यह ज़रूरी सवाल भी मौज़ूद है कि जिस कैनननाइजेशन की परम्परा के चलते, भक्ति काल के सभी कवियों को एक कवि के लिए निर्मित प्रतिमान एवं प्रविधियों के चश्मे से देखा गया. ऐसे में क्या एक कवि विशेष के लिए निर्मित आलोचना प्राविधि अन्य कवियों के साथ न्याय कर सकती है. ऊपरी एकता पर ज्यादा जोर देनेवाली प्रवृत्ति एक तरफ अंतर्विरोधों को छिपाकर, तत्कालीन सत्ता-संरचना के भीतर मौजूद वर्चस्वमूलक शक्तियों पर, परदा डालने का काम करती है तो दूसरी तरफ एक कवि के आधार पर बनी आलोचना-दृष्टि, दूसरे रचनाकार की विशिष्टता को नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित करती है. 


उस दौर के अंतर्विरोधों के द्वंद्वात्मक रिश्ते को समझे बिना, किसी भी परिघटना की ठीक तस्वीरें नहीं उभर सकती. प्रसंगवश, जिन विद्वानों ने भक्ति-आंदोलन के अंतर्विरोधों को समझने और विश्लेषित करने पर बल प्रदान किया है, उनके यहाँ इसके अवसान की भी एक व्याख्या मिलती है; अवसान को समझने-समझाने का प्रयास दिखता है। लेखक गिरि विश्लेषणात्मक ढंग से डॉ रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को विवेचित करते हैं कि डॉ. रामविलास शर्मा ने दरबार के बाहर और दरबार के भीतर रहनेवाले कवियों के आधार पर, मध्यकालीन कवियों को देखने-परखने की सिफारिश की है. दरबार के बाहर और भीतर के कवियों के काव्य में स्पष्ट रूप से भेद देखा जा सकता है. दोनों की चिंता और सरोकार अलग है, किन्तु खाँचा बनाते समय दोनों को एक ही फ्रेम में रख दिया गया, ऐसे में भक्ति आन्दोलन को एक नई दृष्टि से देखने की क़वायद भी महसूस की जा रही है. पर इसी क्रम में यह बिल्कुल ठीक है कि देव, बिहारी, मतिराम आदि कवियों से भक्ति आंदोलन के कवियों का बुनियादी फर्क है। बावजूद इसके कबीर और निर्गुण पंथ का प्रखर विरोध भक्तिकालीन तुलसीदास और सूरदास ने ही किया है; क्योंकि केशव, मतिराम, बिहारी आदि की चिंता वह थी ही नहीं, जो तुलसी और सूर की थी. 


समीक्षक राजीव रंजन गिरि ने डॉ रामविलास शर्मा के साथ साथ रामचंद्र शुक्ल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी का भी भक्ति काव्य के सन्दर्भ में तुलनात्मक ढंग से अध्ययन करते हुए उनके तर्कों को विश्लेषित किया है. डॉ मैनेजर पाण्डेय के विचारों का ब्यौरा देते हुए गिरि कहते हैं कि डॉ मैनेजर पाण्डेय ने भक्ति आंदोलन के अंदरूनी अंतर्विरोधों को नज़रंदाज़ किया. बकौल डॉ पाण्डेय, "भक्ति आंदोलन का लक्ष्य है मानुष सत्य या कि मनुष्य की रक्षा और विकास। भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष सत्य के ऊपर और कुछ नहीं है- न कुल, न जाति, न धर्म, न संप्रदाय, न स्त्री-पुरुष का भेद, न किसी शास्त्र का भय और न लोक का भ्रम.” 


सच है कि मानुष-सत्य और मनुष्य की रक्षा व विकास की चिंता, भक्ति आंदोलन के सभी रचनाकारों के यहाँ मिलती है. लेकिन अव्वल तो यह कि क्या सभी रचनाकारों का 'मानुष-सत्य' एक समान है? क्या सभी एक जैसी मनुष्यत्व की रक्षा और विकास के लिए चिंतित हैं? वास्तविकता यह है कि उस दौर के रचनाकारों की रचना में 'मानुष-सत्य' की शब्दगत समता के बावजूद, सबके लिए इस शब्द के अलग-अलग मायने हैं। 'दृष्टि और रुझान' भी इनके एक-सा नहीं थे. क्या सचमुच भक्त कवियों की दृष्टि में कुल, जाति, धर्म, संप्रदाय, स्त्री-पुरुष का भेद-भाव मौजूद नहीं है? ऐसा कहकर क्या इन कवियों के साहित्य में अभिव्यक्त अनुभूति, विचारधारा और सांस्कृतिक चेतना को एक समान मानना तर्कसंगत है? 


इसी क्रम में राजीव रंजन गिरि वासुदेव शरण अग्रवाल, इतिहासकार शशि जोशी, भगवान् जोश, बजरंग बिहारी तिवारी के विचारों को भी रखा एवं विश्लेषित किया है. साथ ही मुक्तिबोध की विस्तृत समीक्षा को विचारा है. आलोचक गजानन माधव मुक्तिबोध ने भक्ति काव्य के अवसान के कारणों की विस्तृत समीक्षा की है। गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण धारा, निर्गुण भक्ति, के अवसान का सवाल उठाया। मुक्तिबोध ने इस सवाल को विश्लेषित करने की जरूरत समझी कि ''क्या कारण है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आंदोलन सफल नहीं हो सका?' मुक्तिबोध की मूल स्थापना यह है कि ‘निचली जातियों के बीच से पैदा होने वाले संतों के द्वारा निर्गुण भक्ति के रूप में भक्ति आन्दोलन एक क्रांतिकारी आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ; किंतु आगे चलकर ऊँची जातिवालों ने इसकी शक्ति को पहचानकर इसे अपनाया और क्रमशः उसे अपने विचारों के अनुरूप ढालकर कृष्ण और राम की सगुण भक्ति का रूप दे डाला जिससे उसके क्रान्तिकारी दाँत उखाड़ लिए गए। इस प्रक्रिया में कृष्णभक्ति में तो कुछ क्रांतिकारी तत्व बचे रह गए लेकिन रामभक्ति में जाकर तो रहे-सहे तत्व भी गायब हो गए..!’ 


अपनी स्थापना के पक्ष में मुक्तिबोध ने ये प्रश्न उठाए हैं: ‘‘क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अंतर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया! क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर आए, किंतु रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी मुसलमान और एक भी शूद्र कवि, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका?... क्या कारण है कि तुलसीदास भक्ति आन्दोलन के प्रधान (हिन्दी क्षेत्र में) अंतिम कवि थे?’’ 


मुक्तिबोध द्वारा उठाए गए उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर इसी मान्यता की ओर सहमति देते नजर आते हैं कि इन सबके लिए भक्ति आन्दोलन पर उच्चवंशी उच्चजातीय वर्गों का प्रभुत्व जिम्मेदार है और अंततः भक्ति आन्दोलन की शिथिलता तथा समाप्ति के लिए भी वही दोषी है। हिंदू-मुस्लिम सामंती तत्वों के शोषण-शासन और कट्टरपंथी दृढ़ता से प्रेरित हिंदू-मुस्लिम जनता भक्ति मार्ग पर चल पड़ी थी, चाहे वह किसी भी नाम से क्यों न हो। निम्नवर्गीय भक्ति-मार्ग निर्गुण-भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस निर्गुण भक्ति में तत्कालीन सामंतवाद-विरोधी तत्व सर्वाधिक थे. कमोबेश रांगेय राघव की भी यही राय है. मुक्तिबोध की यह विवेचना अधिक तार्किक प्रतीत होती है. गिरि ने इसी क्रम में इरफ़ान हबीब, सतीश चन्द्र के विचारों को भी खंगाला है. 


काबिलेगौर है वर्तमान में उस दौर की कृतियों का अपने पक्ष में उपयोग करने की बात, साहित्य के अध्ययन व विश्लेषण का कम और रणनीति का विषय ज्यादा प्रतीत होता है। यह याद रखना जरूरी है कि ''किसी भी रचना की क्रांतिकारी व्याख्या तब तक नहीं हो सकती है - और की गई तो टिक नहीं सकती है - जब तक कि खुद रचना में उसका आधार न हो. इसलिए वर्तमान अर्थवत्ता के संदर्भ में भी रचनाकारों और रचना की विशिष्टता तथा उनके आपसी अंतर्विरोध को ध्यान में रखने की दरकार है। उनके आनुपातिक महत्व को समझे बगैर, उपयोग की बात करना, सरलीकरण करना होगा। इसलिए जरूरी है, सांस्कृतिक इतिहास के खास कालखंड में भक्ति आंदोलन ने जो हस्तक्षेप किया था, उससे कुछ सूत्रों को निकाला जाए। भक्ति आंदोलन के दौरान हुई वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष की कई स्मृतियाँ हमारे काम की हैं। उसके जरिए हमें आज के खतरों को समझने में मदद मिलेगी।यह निबंध भक्ति आंदोलन से संबंधित कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाकर विचारोत्तेजक विश्लेषण करता है. राजीव रंजन गिरि ने इतिहास की तह से प्रचुर शोध ग्रंथों से सामग्री इकट्ठी कर उनको प्रखर एवं संपन्न आलोचनात्मक दृष्टि से विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, यह एक तथ्यों की अपार सम्पदा से लैस एक बेहद महत्वपूर्ण एवं पठनीय लेख है. 



निबन्ध- सामन्ती ज़माने में भक्ति-आन्दोलन अवसान और अर्थवत्ता 
लेखक- राजीव रंजन गिरि 

साहित्य उपक्रम एवं पुस्तक “अथ साहित्य: पाठ और प्रसंग” में संकलित

बिरसा काव्यांजलि


अभी हाल ही में मैंने बिरसा मुंडा के जीवन पर लिखी गई , वरिष्ठ लेखक विक्रमादित्य की पुस्तक 'बिरसा काव्यांजलि' पढ़ी, उसे पढ़ते समय ही महाश्वेता देवी के निधन की सूचना भी मिली। यह अनायास नहीं रहा कि एक व्यक्तित्व बिरसा मुंडा पर रचित काव्यांजलि को पढ़ना, जिन्होंने आदिवासियों के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया तो साथ ही दूसरा व्यक्तित्व महाश्वेता देवी को जानना-समझना, जिन्होंने अपनी लेखनी से आदिवासी जन जीवन की दुःख-तकलीफ़ एवं पीड़ा को उकेरा। लंबे समय तक यह परंपरा रही कि कवि किसी की मृत्यु पर कवितांजलि दिया करते थे जो अब नहीं देते। अभी के समय में यह परंपरा नगण्य रूप में नज़र आती है। बिरसा मुंडा पर लिखी विक्रमादित्य की यह पुस्तक उसी दिशा में किया गया एक महत्वपूर्ण एवं सराहनीय प्रयास है।


लेखक विक्रमादित्य इस पुस्तक के लिए दृढ़निश्चयी के रूप में सामने आते है, बिरसा मुंडा को विचार से पुस्तक तक का सफ़र तय करने में लगभग इक्कीस वर्ष का समय लग गया, यह साध्य लेखक की दृढ इच्छाशक्ति का ही परिचायक है। लेखक विक्रमादित्य ने काव्यांजलि के प्रारम्भ में भूमिका में बिरसा मुंडा के जीवन पर भी प्रकाश डाला है। बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्‍व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन 'उलगुलान' को अंजाम दिया। बिरसा भारतीय इतिहास के उन अग्रणी नायकों में से एक हैं जिन्होंने ब्रिटिश शासन की गुलामी और अपने समाज की प्रतिगामी नीतियों के ख़िलाफ़ क्रान्ति का बिगुल बजाया था। वरिष्ठ लेखक विक्रमादित्य ने इस पुस्तक में इन्हीं बिरसा मुंडा के जीवन और संदेशों की गाथा प्रस्तुत की है। ब्रिटिश शासन और दिकुओं, जमींदारों ने आदिवासियों के जीवन को संकट में डाल दिया था। ऐसे में ही बिरसा ने 'उलगुलान'(क्रांति) का ऐलान किया। वह ब्रिटिश दासता के खिलाफ़ संघर्ष के नेता बने। साथ ही सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ़ उन्होंने 'बिरसा धर्म' शुरू किया।

लेखक ने इस पुस्तक में बिरसा के कार्यों पर भी प्रकाश डाला कि बिरसा के इन प्रयासों ने न सिर्फ़ आदिवासियों को सबल-सक्षम बनने की राह दिखाई, बल्कि संसार के किसी भी उत्पीड़ित समाज के लिए प्रेरक बनने की क्षमता इनमें है। बिरसा के प्रेरणास्पद जीवन की गाथा की यह प्रस्तुति बिलकुल प्रासंगिक और प्रशंसनीय है। लेखक ने बिरसा के मन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए पंक्तियाँ लिखी हैं -

"कुछ प्रश्न बहुत छोटे होते/ युग प्रश्न मगर बन जाते हैं।/ देता उत्तर जब युग उनका/ इतिहास बदल जाते हैं।/ ऐसा ही एक प्रश्न छोटा/ बिरसा को उद्वेलित करता/ दिकू क्यों खाते गरम भात/ हमको ही क्यों घाटो मिलता?"

रचनाकार विक्रमादित्य ने इसमें न केवल बिरसा की जीवन कथा दी है, बल्कि आदिवासी समाज में प्रचलित सृष्टि कथा का भी वर्णन किया है। बिरसा मुंडा के जीवन से प्रेरणा लेने की बात करते हुए इस पुस्तक के फ्लैप पर लिखा भी है-

"वनवासियों के सिरमौर वीर बिरसा मुंडा का संघर्षमय प्रेरणाप्रद जीवन सबके लिए अनुकरणीय है। उन्होंने अपने 'युग का प्रश्न' समझा था, उस युग की पीड़ा पहचानी थी और सबसे ऊपर उसने समय की नब्ज पकड़ी थी। एक सच्चा नायक इससे ज्यादा क्या करता है! बिरसा मुंडा के जीवन पर खंडकाव्य के रूप में विनम्र काव्यांजलि है यह पुस्तक।"

लेखक ने एक सराहनीय कार्य इस पुस्तक के माध्यम से यह किया कि बिरसा के जीवन को जानने के क्रम में यह पुस्तक हमें महाश्वेता देवी के द्वारा प्रतिबिंबित आदिवासी जीवन को भी सामने रखती चलती है। 'जंगल के दावेदार' पुस्तक की झलक स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। खंडकाव्य के रूप में सर्गबद्ध यह 'बिरसा काव्यांजलि' झारखण्ड की संस्कृति एवं जनजीवन को भी प्रतिबिंबित करती चलती है।

यह पुस्तक 19वीं सदी के उस दौर को व्यक्त करती है जब भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा। पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया। सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। ये सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए।


दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। आदिवासियों ने 'बेगारी प्रथा' के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया। 


तीसरा था राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए। 


लेखक विक्रमादित्य ने कई स्रोतों से जानकारी एवं सामग्री जुटाकर बिरसा के विषय में कई दुर्लभ तथ्य प्रस्तुत किए। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा मुंडा को पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद के रूप में देखा जाने लगा था।

अंत में यही कि यह पुस्तक लेखक विक्रमादित्य के लम्बे अनुभवों एवं अनुसंधानों-शोध का परिणाम है जिसमें मूल तथ्यों को काव्य के रूप में प्रस्तुत करना अपने आप में एक साहसिक कार्य है। बिरसा को जान्ने समझने के क्रम में यह पुस्तक पठनीय है। इस रूप में भी यह पुस्तक तथ्यों की कसौटी पर रची-बसी हुई कविताई है जिसमें बिरसा की पीड़ाएँ, आदिवासियों की पीड़ाएँ व्यक्त की गयी हैं। लेखक ने लिखा भी है- "कविता कविता होती है, यथार्थ से भागती सी, फिर भी यथार्थ की ज्वाला में जलकर ही मुक्ति पाती हुई..!



पुस्तक का नाम- बिरसा काव्यांजलि
लेखक- विक्रमादित्य
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 250/-

सितारे मिटा नहीं करते…



कहा जाता है कि कला उन्हीं की मदद करती है जो उसकी मदद माँगते हैं। वह गूंगे के लिए गूंगी है, उसी से बोलती है जो उससे सवाल करते हैं। अभी हाल ही में प्रसिद्द कथक नृत्यांगना सितारा देवी का निधन हो गया जिन्होंने अपना पूरा जीवन संघर्षों से पार पाते हुए कला के लिए जिया। उनका पहला संघर्ष अपनी शारीरिक बनावट से ही शुरू हो गया जिसमें उन्हें बचपन में मुँह टेढ़ा होने के कारण लम्बे समय तक माता-पिता के प्रेम से वंचित दायी के पास रखा गया पर समय के बीतते सितारा देवी ने इस प्रकृति प्रदत्त विकृति को अपने नृत्य-भाव-भंगिमाओं में पिरो दिया। यह वह दौर था जब नाटकों, गीतों और यहाँ तक की नई नवेली फिल्मी दुनिया में भी पुरूष ही महिलाओं के परिधानों को पहनकर उनकी भूमिका अदा करते थे, तब युवा भारतीय नृत्यांगना सितारा देवी ने इस रूढिवादी परंपरा को तोडा। भले ही सितारा देवी आज हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी पहचान, उनकी कला और उनकी ताल हमेशा लोगों के ज़ेहन में जिंदा रहेगी।


उस समय कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि एक शरीफ घराने की लड़की नाच-गाना सीखे। सितारा देवी के पिता आचार्य सुखदेव ने यह क्रांतिकारी कदम उठाया और पहली बार परिवार की परंपरा तोड़ी। वे स्वयं नृत्य के साथ-साथ गायन से भी ज़ुडे थे। वे नृत्य नाटिकाएँ लिखा करते थे। उन्हें हमेशा यह परेशानी होती थी कि नृत्य किससे करवाएँ क्योंकि इस तरह के नृत्य उस समय लड़के ही करते थे। इसलिए अपनी नृत्य नाटिकाओं में वास्तविकता लाने के लिए उन्होंने घर की बेटियों को नृत्य सिखाना शुरू किया। उनके इस फैसले पर पूरे परिवार ने कड़ा विरोध किया पर वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। इस तरह सितारा देवी, उनकी बहनें और भाई नृत्य सीखने लगे। किसी रूढ़ी को तोड़कर कला साधना में लीन होने का इनाम उन्हें बिरादरी के बहिष्कार के रूप में मिला। समाज में बहिष्कृत होने के बाद भी सितारा देवी के पिता बिना विचलित हुए अपने काम में लगे रहे।

इसके बाद सितारा देवी जिनका बचपन का नाम धनलक्ष्मी था का कला के क्षेत्र से ऐसा नाता जुड़ा कि उन्होंने न केवल अपने माता-पिता को अपने हुनर से लोकप्रियता दिलाई बल्कि भारत को भी विश्वपटल पर प्रसिद्धि दिलाई। कथक में स्त्रियों के नृत्य प्रवेश तथा उसे वैश्विक परिदृश्य में लाने का श्रेय भी सितारा देवी को जाता है। बहुत छोटी उम्र में ही उन्हें फिल्म में काम करने का अवसर भी मिल गया। उन्होंने 'ऊषा हरण' , 'नगीना', 'रोटी' और 'वतन', 'अंजली' और 'मदर इंडिया' में नृत्य दृश्य किए। मदर इंडिया में उन्होंने एक होली के गाने पर लड़के का परिधान पहनकर नृत्य किया था। कुछ फिल्मों में काम करने के अलावा उन्होंने फिल्मों में कोरियोग्राफी का काम भी किया। फिल्मों में रहते हुए उन्हें महसूस हुआ कि जिस नृत्य के लिए उन्हें अपनी बिरादरी भी छोड़ना पड़ी है, वह उद्देश्य यहाँ पूरा नहीं हो पा रहा है। धीरे-धीरे उन्होंने इस नृत्य-कला को विस्तृत पटल पर शुरू किया तथा कई बॉलीवुड अभिनेत्रियों को नृत्य का प्रशिक्षण दिया। मधुबाला से लेकर माला सिन्हा, रेखा एवं काजोल को कथक नृत्य की शिक्षा दी। इन्होने आस-पास के विषयों, नृत्य-शैलियों एवं कविताओं को भी अपने नृत्य में उतारा। मात्र सोलह साल की उम्र में इन्होने तीन घंटे की एकल प्रस्तुति देकर नोबेल विजेता रबीन्द्रनाथ टैगोर को प्रभावित किया था। टैगोर ने प्रसन्न होकर इन्हें पचास रुपए और एक शॉल भेंट की लेकिन सितारा देवी ने यह सब लेने से इनकार कर केवल आशीर्वाद माँगा। रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'नृत्य-सम्राज्ञी' ('कथक क्वीन') का सम्मान दिया। पिछले 60 दशकों से भी ज्यादा समय से वह एक विख्यात कथक नृत्यांगना हैं। बॉलीवुड में इस विधा को लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। वह संगीत नाटक अकादमी, पद्मश्री और कालिदास सम्मान जैसे प्रतिष्ठित सम्मान पा चुकी हैं किन्तु उन्होंने पद्म भूषण मिलने पर उसे यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि कथक में उन्होंने अपार योगदान दिया है इसीलिए उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए, हालांकि ऎसा नहीं हो पाया। इनके योगदान को याद करते हुए ठुमरी सम्राज्ञी गिरिजा देवी ने कहा- "बनारस या भारत की ही नहीं विश्व की महान नृत्यांगना थी सितारा देवी। बहुत बहादुर और संगीत की हर विधा जानती थी। संगीत के लिए ऐसे लोगों का रहना बेहद ज़रूरी है। कोई भी आयोजन हो, नृत्य, वाद्य, गायन की सभी विधाओं को वह समान रूप से इज़्ज़त देतीं, जो है। महज़ 10-15 साल में लोग भाग जाते हैं, उन्होंने तो साठ-सत्तर साल संगीत को जिया, जगा कर रखा।" 


सितारा देवी ने अपने सुदीर्घ नृत्य कार्यकाल के दौरान देश-विदेश में कई कार्यक्रमों और महोत्सवों में चकित कर देने वाले लयात्मक और ऊर्जा से भरपूर नृत्य प्रदर्शनों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया। उन्होंने लंदन में प्रतिष्ठित 'रॉयल अल्बर्ट' और 'विक्टोरिया हॉल' तथा न्यूयार्क के 'कार्नेगी हॉल' में अपने नृत्य का जादू बिखेरा। यह भी उल्लेखनीय है कि सितारा देवी न सिर्फ़ कथक, बल्कि भरतनाट्यम सहित कई भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों और लोक नृत्यों में पारंगत थी। उन्होंने रूसी बैले और पश्चिम के कुछ और नृत्य भी सीखें हैं। सितारा देवी के कथक में बनारस और लखनऊ के घरानों के तत्वों का सम्मिश्रण दिखाई देता है। वह उस समय की कलाकार हैं, जब पूरी-पूरी रात कथक की महफिल जमी रहती थी। सितारा देवी एक सच्ची कलाकार थी और कलाकार कभी मरा नहीं करते वे अपनी कला के माध्यम से सदा बने रहते हैं। सितारा देवी भी अपनी कला के रूप में सितारे की तरह बुलंद हैं।