Wednesday, May 10, 2017

सामन्ती ज़माने में भक्ति आन्दोलन- अवसान और अर्थवत्ता


भक्ति आन्दोलन का उदय अपने समय के गहरे तनाव, संघर्षों एवं अंतर्द्वंद्वों का परिणाम था. यह अनायास ही नहीं था कि कभी इसे हताशा की उपज कहा गया तो कभी एक भयभीत और आक्रान्त व्यक्ति का स्वर कहा गया. समीक्षक राजीव रंजन गिरि का समीक्षात्मक निबन्ध "सामन्ती ज़माने में भक्ति आन्दोलन- अवसान और अर्थवत्ता" इसी आलोक में भक्ति आन्दोलन को देखता, जाँचता-परखता निबन्ध है. यह निबन्ध उनकी आलोचनात्मक पुस्तक “अथ साहित्य: पाठ और प्रसंग” में भी संकलित है भक्ति काल को भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा गया है इस आलोचनात्मक निबन्ध में इसके अवसान और उसकी वर्तमान अर्थवत्ता की, अब तक हुए साहित्यिक अध्ययनों एवं शोधों के तथ्यों के आधार पर विचार करते हुए गहरी पड़ताल की गई है.


भक्ति-आंदोलन के दौरान रचित साहित्य की व्याप्ति, प्रकृति और चरित्र का अध्ययन-विश्लेषण कई महत्वपूर्ण इतिहासकारों, साहित्य के इतिहासकारों व आलोचकों ने किया है. इन विद्वानों ने अपने-अपने नजरिए के मुताबिक इसे व्याख्यायित किया है और इसे समझने के लिए सूत्र भी प्रस्तावित किया है. लेखक राजीव रंजन गिरि ने भक्ति काल के साहित्य पर अब तक हुए अध्ययनों में रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, रांगेय राघव और मैनेज़र पाण्डेय की भिन्न भिन्न समय पर दी गई मान्यताओं को भी तथ्यों एवं तर्कों की कसौटी पर विचारा है. 


इन विद्वानों द्वारा किए गए विचारोत्तेजक अध्ययन-विश्लेषण पर विचार करने से पहले, इस सवाल पर गौर करना जरूरी है कि इसके 'अवसान' का आशय क्या है? क्या भक्ति-काल के बाद भक्ति-साहित्य की रचना बंद हो गई? हिन्दी कविता में किस प्रकार भक्ति का आवेश कम होने लगता है और धीरे-धीरे शरीर और संसार का निषेध करने वाली तथा महान मानवीय मूल्यों एवं सामाजिक मर्यादाओं को वहन करने वाली भक्तिकाव्य के पर्यवसान के बाद हिन्दी कविता खालिस लौकिकता और शारीरिक मांसलता की नरम दुनिया में चली जाती है. लेखक राजीव रंजन गिरि लिखते हैं- “साहित्य या किसी भी कला-रूप के संबंध में, यह बात कभी भी पूरी तौर पर लागू नहीं होती है कि किसी खास तरह की रचना एकाएक रुक जाए. कला-संसार के भीतर की परिघटना के मद्देनजर, यह कहना बेहतर होगा कि सांस्कृतिक इतिहास के एक खास क्षण में, उस तरह की रचना का जो महत्व होता है, बाद में नहीं रह पाता..!” 


लेखक ने इसका भी विस्तृत विवेचन किया है कि भक्ति-आंदोलन का उदय अपने वक्त के गहरे तनाव और संघर्ष का परिणाम था। उसका एक निश्चित सामाजिक आधार और भौतिक कारण था. जाहिर है, जैसा कि हर दौर के व्यापक सांस्कृतिक परिघटना में, ऊपरी स्तर पर एक समान प्रवृत्ति और समानता दिखती है, लेकिन ज्यों-ज्यों उसके भीतर जाने के लिए बारीक विश्लेषण किया जाता है, त्यों-त्यों परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ और अंतःसंघर्ष नज़र आने लगते हैं. लिहाजा, जब सिर्फ ऊपरी एकता पर ज्यादा बल देते हुए, उसे एकमात्र सच मानने की सिफारिश की जाती है तो आंतरिक अंतर्विरोधों के साथ-साथ, मौजूद वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों पर भी परदा पड़ जाता है; नतीजतन किसी भी सांस्कृतिक परिघटना या दौर का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हो पाता. 


आलोचक गिरि तथ्यात्मक रूप से स्पष्ट करते हैं कि हिंदी के कई बड़े आलोचकों में भक्ति-काल की व्याख्या के साथ एक और समस्या दिखती है. यह समस्या है, किसी एक कवि के आधार पर बनी दृष्टि के प्रतिमान पर अन्य कवियों को देखने की प्रवृत्ति. दूसरे शब्दों में, तुलसीदास को केंद्र में रखकर विकसित आलोचना-प्रविधि कबीरदास, सूरदास, जायसी, मीराबाई आदि के साथ न्याय नहीं कर सकती. यह उसी तरह सच है, जैसे कबीरदास को केंद्र में रखकर बना काव्य-प्रतिमान तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास आदि के साथ न्याय नहीं कर पाएगा. 

लेखक की चिंता के दायरे में यह ज़रूरी सवाल भी मौज़ूद है कि जिस कैनननाइजेशन की परम्परा के चलते, भक्ति काल के सभी कवियों को एक कवि के लिए निर्मित प्रतिमान एवं प्रविधियों के चश्मे से देखा गया. ऐसे में क्या एक कवि विशेष के लिए निर्मित आलोचना प्राविधि अन्य कवियों के साथ न्याय कर सकती है. ऊपरी एकता पर ज्यादा जोर देनेवाली प्रवृत्ति एक तरफ अंतर्विरोधों को छिपाकर, तत्कालीन सत्ता-संरचना के भीतर मौजूद वर्चस्वमूलक शक्तियों पर, परदा डालने का काम करती है तो दूसरी तरफ एक कवि के आधार पर बनी आलोचना-दृष्टि, दूसरे रचनाकार की विशिष्टता को नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित करती है. 


उस दौर के अंतर्विरोधों के द्वंद्वात्मक रिश्ते को समझे बिना, किसी भी परिघटना की ठीक तस्वीरें नहीं उभर सकती. प्रसंगवश, जिन विद्वानों ने भक्ति-आंदोलन के अंतर्विरोधों को समझने और विश्लेषित करने पर बल प्रदान किया है, उनके यहाँ इसके अवसान की भी एक व्याख्या मिलती है; अवसान को समझने-समझाने का प्रयास दिखता है। लेखक गिरि विश्लेषणात्मक ढंग से डॉ रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को विवेचित करते हैं कि डॉ. रामविलास शर्मा ने दरबार के बाहर और दरबार के भीतर रहनेवाले कवियों के आधार पर, मध्यकालीन कवियों को देखने-परखने की सिफारिश की है. दरबार के बाहर और भीतर के कवियों के काव्य में स्पष्ट रूप से भेद देखा जा सकता है. दोनों की चिंता और सरोकार अलग है, किन्तु खाँचा बनाते समय दोनों को एक ही फ्रेम में रख दिया गया, ऐसे में भक्ति आन्दोलन को एक नई दृष्टि से देखने की क़वायद भी महसूस की जा रही है. पर इसी क्रम में यह बिल्कुल ठीक है कि देव, बिहारी, मतिराम आदि कवियों से भक्ति आंदोलन के कवियों का बुनियादी फर्क है। बावजूद इसके कबीर और निर्गुण पंथ का प्रखर विरोध भक्तिकालीन तुलसीदास और सूरदास ने ही किया है; क्योंकि केशव, मतिराम, बिहारी आदि की चिंता वह थी ही नहीं, जो तुलसी और सूर की थी. 


समीक्षक राजीव रंजन गिरि ने डॉ रामविलास शर्मा के साथ साथ रामचंद्र शुक्ल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी का भी भक्ति काव्य के सन्दर्भ में तुलनात्मक ढंग से अध्ययन करते हुए उनके तर्कों को विश्लेषित किया है. डॉ मैनेजर पाण्डेय के विचारों का ब्यौरा देते हुए गिरि कहते हैं कि डॉ मैनेजर पाण्डेय ने भक्ति आंदोलन के अंदरूनी अंतर्विरोधों को नज़रंदाज़ किया. बकौल डॉ पाण्डेय, "भक्ति आंदोलन का लक्ष्य है मानुष सत्य या कि मनुष्य की रक्षा और विकास। भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष सत्य के ऊपर और कुछ नहीं है- न कुल, न जाति, न धर्म, न संप्रदाय, न स्त्री-पुरुष का भेद, न किसी शास्त्र का भय और न लोक का भ्रम.” 


सच है कि मानुष-सत्य और मनुष्य की रक्षा व विकास की चिंता, भक्ति आंदोलन के सभी रचनाकारों के यहाँ मिलती है. लेकिन अव्वल तो यह कि क्या सभी रचनाकारों का 'मानुष-सत्य' एक समान है? क्या सभी एक जैसी मनुष्यत्व की रक्षा और विकास के लिए चिंतित हैं? वास्तविकता यह है कि उस दौर के रचनाकारों की रचना में 'मानुष-सत्य' की शब्दगत समता के बावजूद, सबके लिए इस शब्द के अलग-अलग मायने हैं। 'दृष्टि और रुझान' भी इनके एक-सा नहीं थे. क्या सचमुच भक्त कवियों की दृष्टि में कुल, जाति, धर्म, संप्रदाय, स्त्री-पुरुष का भेद-भाव मौजूद नहीं है? ऐसा कहकर क्या इन कवियों के साहित्य में अभिव्यक्त अनुभूति, विचारधारा और सांस्कृतिक चेतना को एक समान मानना तर्कसंगत है? 


इसी क्रम में राजीव रंजन गिरि वासुदेव शरण अग्रवाल, इतिहासकार शशि जोशी, भगवान् जोश, बजरंग बिहारी तिवारी के विचारों को भी रखा एवं विश्लेषित किया है. साथ ही मुक्तिबोध की विस्तृत समीक्षा को विचारा है. आलोचक गजानन माधव मुक्तिबोध ने भक्ति काव्य के अवसान के कारणों की विस्तृत समीक्षा की है। गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण धारा, निर्गुण भक्ति, के अवसान का सवाल उठाया। मुक्तिबोध ने इस सवाल को विश्लेषित करने की जरूरत समझी कि ''क्या कारण है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आंदोलन सफल नहीं हो सका?' मुक्तिबोध की मूल स्थापना यह है कि ‘निचली जातियों के बीच से पैदा होने वाले संतों के द्वारा निर्गुण भक्ति के रूप में भक्ति आन्दोलन एक क्रांतिकारी आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ; किंतु आगे चलकर ऊँची जातिवालों ने इसकी शक्ति को पहचानकर इसे अपनाया और क्रमशः उसे अपने विचारों के अनुरूप ढालकर कृष्ण और राम की सगुण भक्ति का रूप दे डाला जिससे उसके क्रान्तिकारी दाँत उखाड़ लिए गए। इस प्रक्रिया में कृष्णभक्ति में तो कुछ क्रांतिकारी तत्व बचे रह गए लेकिन रामभक्ति में जाकर तो रहे-सहे तत्व भी गायब हो गए..!’ 


अपनी स्थापना के पक्ष में मुक्तिबोध ने ये प्रश्न उठाए हैं: ‘‘क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अंतर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया! क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर आए, किंतु रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी मुसलमान और एक भी शूद्र कवि, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका?... क्या कारण है कि तुलसीदास भक्ति आन्दोलन के प्रधान (हिन्दी क्षेत्र में) अंतिम कवि थे?’’ 


मुक्तिबोध द्वारा उठाए गए उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर इसी मान्यता की ओर सहमति देते नजर आते हैं कि इन सबके लिए भक्ति आन्दोलन पर उच्चवंशी उच्चजातीय वर्गों का प्रभुत्व जिम्मेदार है और अंततः भक्ति आन्दोलन की शिथिलता तथा समाप्ति के लिए भी वही दोषी है। हिंदू-मुस्लिम सामंती तत्वों के शोषण-शासन और कट्टरपंथी दृढ़ता से प्रेरित हिंदू-मुस्लिम जनता भक्ति मार्ग पर चल पड़ी थी, चाहे वह किसी भी नाम से क्यों न हो। निम्नवर्गीय भक्ति-मार्ग निर्गुण-भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस निर्गुण भक्ति में तत्कालीन सामंतवाद-विरोधी तत्व सर्वाधिक थे. कमोबेश रांगेय राघव की भी यही राय है. मुक्तिबोध की यह विवेचना अधिक तार्किक प्रतीत होती है. गिरि ने इसी क्रम में इरफ़ान हबीब, सतीश चन्द्र के विचारों को भी खंगाला है. 


काबिलेगौर है वर्तमान में उस दौर की कृतियों का अपने पक्ष में उपयोग करने की बात, साहित्य के अध्ययन व विश्लेषण का कम और रणनीति का विषय ज्यादा प्रतीत होता है। यह याद रखना जरूरी है कि ''किसी भी रचना की क्रांतिकारी व्याख्या तब तक नहीं हो सकती है - और की गई तो टिक नहीं सकती है - जब तक कि खुद रचना में उसका आधार न हो. इसलिए वर्तमान अर्थवत्ता के संदर्भ में भी रचनाकारों और रचना की विशिष्टता तथा उनके आपसी अंतर्विरोध को ध्यान में रखने की दरकार है। उनके आनुपातिक महत्व को समझे बगैर, उपयोग की बात करना, सरलीकरण करना होगा। इसलिए जरूरी है, सांस्कृतिक इतिहास के खास कालखंड में भक्ति आंदोलन ने जो हस्तक्षेप किया था, उससे कुछ सूत्रों को निकाला जाए। भक्ति आंदोलन के दौरान हुई वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष की कई स्मृतियाँ हमारे काम की हैं। उसके जरिए हमें आज के खतरों को समझने में मदद मिलेगी।यह निबंध भक्ति आंदोलन से संबंधित कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाकर विचारोत्तेजक विश्लेषण करता है. राजीव रंजन गिरि ने इतिहास की तह से प्रचुर शोध ग्रंथों से सामग्री इकट्ठी कर उनको प्रखर एवं संपन्न आलोचनात्मक दृष्टि से विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, यह एक तथ्यों की अपार सम्पदा से लैस एक बेहद महत्वपूर्ण एवं पठनीय लेख है. 



निबन्ध- सामन्ती ज़माने में भक्ति-आन्दोलन अवसान और अर्थवत्ता 
लेखक- राजीव रंजन गिरि 

साहित्य उपक्रम एवं पुस्तक “अथ साहित्य: पाठ और प्रसंग” में संकलित

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