Wednesday, May 10, 2017

मुश्किल काम - असग़र वज़ाहत



हम समय के ऐसे दौर में आ चुके हैं जब सीधी बात कहने का अवसर नहीं होता. आज हमारे चारों तरफ जो हो रहा है वह बड़ा अविश्वसनीय सा लगता है किन्तु यह सच प्रतीत होता है कि विपरीत परिस्थितियों में सबसे पहले अच्छाई आहत होती है. इतना भयंकर, इतना क्रूर, इतना निर्मम, इतना लालची, और स्वार्थी, संस्कारहीन, पशु से भी गिरा हुआ आदमी कैसे हो सकता है पर फिर यह भी ध्यान आता है कि जो कुछ हो रहा है वह सच्चाई है. हम पतनशीलता के ऐसे दौर में आ गए हैं, जिसकी कल्पना करना भी कठिन है. हम इतने हिंसक, क्रोधी एवं निर्मम हो गए हैं कि हमारे लिए बड़े से बड़ा अपराध या हत्या कर देना कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि मज़ाक है. लोगों की ज़िन्दगी इतनी सस्ती तो शायद कभी न रही होगी. समाज में जहां रोज लोग जला दिए जाते हैं, सैकड़ों बेसहारा गरीब रोज सड़कों पर मर जाते हैं, चंद रुपयों के लिए हत्याएं होती हैं, इंसान की जिन्दगी की कोई कीमत नहीं बची है, ऐसे समाज में लोगों की संवेदनशीलता मापने का कयास लगाना भी हास्यास्पद लगने लगता है. 


असग़र वज़ाहत को पढ़ना, पढ़ना भर नहीं रहता, अपने समय और समाज की उस गर्त में उतरना है, जिसकी भयावहता को नज़दीक से देखने की कल्पना से भी सिहरकर हम उसे दरकिनार कर आगे बढ़ जाते हैं. उनकी कहानी ‘मुश्किल काम’ इमरजेंसी के दौर की ऐसी ही कहानी है जो उस समय हुए दंगों की भयावहता को प्रकट करती है साथ ही मनुष्य, मानवीयता, उसकी संवेदना के तिलिस्म को भी उघाड़कर रख देती है कि किस तरह ऐसे समय में वीभत्सता अपने चरम पर होती है, मानवीय संवेदन किस तरह एकदम शून्य हो जाता है। किसी ने सत्ता की कुर्सी पाने के लिए, तो किसी ने धर्म की आड़ में ये सब किया. आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद देश में कई दर्दनाक दंगे हुए, जिसमें मानवता ही मरी है.


असग़र वज़ाहत की कई कहानियाँ दंगों के भयावह चित्र सामने लाकर खड़े कर देती हैं. उनके लेखन की विशेषता यह रही है कि उनका साहित्य आम जनजीवन के मुद्दों पर केन्द्रित रहा है. चाहे उनकी कहानियां हों, उपन्यास हों अथवा नुक्कड़ नाटक सभी जगह आम लोगों के जीवन की समस्याओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रमुख रूप से उभर कर सामने आती है. वे बड़ी से बड़ी बात को इतनी आसानी से और सहजता से कह जाते हैं कि पाठक के मन पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता. उनकी यह लघु कथा ‘मुश्किल काम’ ढाई पेज में लिखी हुई पूरी कहानी को संवादों में कहती है. सन 1975 के आसपास वे लगभग अपना पूरा लेखन लघु-कथाओं पर आधारित लिख रहे थे. वह समय ऐसा था, जब अभिव्यक्ति को सेंसर किया जा रहा था लेखक अपनी प्रतिबद्धताओं को अमलीजामा पहनाता कम समय में समाज तक ज्यादा पहुँचाने की कोशिश में जुटा है. असग़र वज़ाहत स्वयं कहते हैं- “मैंने आपातकाल के समय लघुकथाएं लिखनी शुरू की थीं, क्योंकि उस समय यथार्थ को व्यक्त करने का कोई ऐसा रास्ता तैयार करना था, जिस पर सेंसर की कैंची न चल सके.” 


सरकारें आती हैं, कुछ समय बाद चली जाती हैं लेकिन समाज में हिंसा और घृणा फैल जाती है तो वह बहुत दूर तक जाती है और उसका सबसे अधिक नुकसान आम जनता को होता है. असग़र वज़ाहत की यह लघुकथा आबादियों को उजाड़े जाने की कथा कहती है जिसमें धर्म, जाति, सम्प्रदाय और हिंसा-प्रतिहिंसा की दुनिया है. ‘मुश्किल काम’ में आतंक का आतंक है. कहानी की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह है कि जब दंगे खत्म हो गये, चुनाव हो गये, जिन्हें जीतना था जीत गये, जिनकी सरकार बननी थी बन गयी, जिनके घर और जिनके जख्म भरने थे भर गये, तब दंगा करने वाली दो टीमों की एक इत्तफाकी मीटिंग हुई. जिसमें एक मदिरालय में बैठकर इन दंगाइयों के बीच बातचीत ये होने लगी कि पिछले दंगों में किसने कितनी बहादुरी दिखाई, किसने कितना माल लूटा, कितने घरों में आग लगाई, कितने लोगों को मारा, कितने बम फोड़े, कितनी औरतों को कत्ल किया, कितने बच्चों की टाँगें चीरीं, कितने अजन्मे बच्चों का काम तमाम कर दिया, आदि-आदि. इसी स्पर्धात्मक बातचीत को लेखक ने इस लघुकथा में पिरोया है.


इन दो दलों के बीच बातचीत में होड़ सी लगी है कि कौन से दल ने दंगों में सबसे अधिक तबाही मचाई है, तबाही भी उत्सवधर्मी हो सकती है, यह इस भरभराते और दरकते मूल्यों में सोचने का विषय हो गया है. असल में लेखक की यह कहानी लुप्त होती इंसानियत की तलाश की कहानी है, जो भी चीज़ इन्सान की स्वाभाविक और प्राकृतिक अच्छाई पर आघात करती है उसकी तह में जाने की कहानी है. कहानी में दंगो के दौरान हुई तबाही पर एक संवाद आता है कि 'तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं.' इसी क्रम में दोनों दल संख्याबल पर जोर दे रहे हैं कि तुमने बस इतने मारे, हमने इतने मारे..! ये जिस संख्या पर बल दिया जा रहा है, वह संख्या इन्सान की है, किन्तु इतिहास में जो दर्ज़ है वह केवल संख्या है, दंगों में नफरत के रिसते मवाद का ग्रास बने जीते-जागते लोगों की संख्या..! दंगों में जिन्हें मारकर शान से संख्या में बताया जाता है, वह संख्याबल इंसान का है, पर यह इस देश की त्रासदपूर्ण विडंबना है कि मरने वालों की केवल संख्या दर्ज़ की जाती है. उस आंकडें में कितने घर बर्बाद हो गए, कितने कुटुंब के कुटुंब समाप्त हो गए.. यह इस दंगाई सोच के दायरे में नहीं आता. मनुष्यता की परख लेखक समय के साथ करता चलता है. पतनशीलता में मनुष्य का सानी नहीं मिल पाता. इस घृणा एवं द्वेष में समाज का ऐसा हिस्सा पिसता है जिसे अपनी दो वक़्त की रोज़ी-रोटी की जद्दोजेहद से ही फुर्सत नहीं है. उनके लिए आपातकाल क्यूँ लगा है, दंगों की वज़ह क्या है, सत्ता में कौन सी पार्टी है, कौन सी आना चाहती है, यह उसके सरोकार ही नहीं है. दंगा भड़काने वाले यह बखूबी जानते भी है कि समाज का कौन सा वर्ग उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकता, कौन सा वर्ग सबसे अधिक कमज़ोर है, जिसे आसानी से चोट पहुंचाई जा सकती है. कहानी में बीच बीच में ये संवाद भी आते हैं, जो ध्यातव्य हैं कि- “तुमने जिन छब्बीस आदमियों को मारा है. . .उनमें ग्यारह तो रिक्शे वाले, झल्ली वाले और मजदूर थे, उनको मारना कौन-सी बहादुरी है?” इसी क्रम में “बूढ़ों को मारना तो बहुत ही आसान है. . .उन्हें क्यों गिनते हो?' 'तो क्या तुम दो बूढ़ों को एक जवान के बराबर भी न गिनोगे?”


दंगे के दौरान मारे गए लोगों के ‘वलनरेबिलिटी चेक’ में जब मरने वालों की संख्या में औरतों की संख्या गिनाई जाती है तो उसका तथाकथित विश्लेषण करते हुए दोनों दल जो ज़िरह करते है- “तुमने जिन छब्बीस को मारा है. . .उनमें बारह तो औरतें थीं.' यह सुनकर पहला हंसा. उसने एक पव्वा हलक में उंडेल लिया और बोला, 'गधे, तुम समझते हो औरतों को मारना आसान है?' 'हां.' 'औरतों की हत्या करने के पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है. . .तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है.' 'लेकिन वे होती कमजोर हैं.” दंगें कभी के भी रहे हो, धार्मिक, साम्प्रदायिक, राजनीतिक किन्तु स्थिति सभी में लगभग एक सी ही रहती है कि औरतों को सबसे ज्यादा शिकार बनाया जाता है, जैसे उनके साथ किये गए बलात्कार-हत्याएं ही जीत का निर्णय करेंगे. डोमिनिक लैपियर और लैरी कोलिन्स अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में तथ्यात्मक रूप से इस बात का उल्लेख करते है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय हुए दंगों में जितनी बर्बरता उस समय की औरतों के साथ की गई, वह पैर तले की ज़मीन खिसकाने वाली थी, भारत पाकिस्तान में भी एक ऐसी ही प्रतिस्पर्धा उस समय लगी थी जिसमें दंगों की वीभत्सता का पैमाना यह था कि कौन सा देश जवाबी कार्रवाई में औरतों के कटे हुए स्तनों की ज्यादा बोरियां भेजता है. असग़र वज़ाहत की यह कहानी उस समय की, उस सत्ता की पदलोलुपता का का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देती है. 


कहानी का अंतिम अंश सबसे महत्वपूर्ण है, उसकी महत्ता इस मायने में भी है कि अब तक इन दोनों दलों को स्त्री, पुरुष, वृद्ध, मजदूर, रिक्शेवाले, जवान सभी को मारना धीरे-धीरे आसान लगने लगा था. इस अंश पर आकर उन्हें इन आसान कामों के बीच दुनिया का सबसे मुश्किल काम पता चलता है. अंत में आकर बच्चों को मारने की जो आसानी कि 'अरे, बच्चों को मारना तो बहुत आसान है, जैसे मच्छरों को मारना. यह इस कहानी का पीक पॉइंट कहा जा सकता है. असग़र वज़ाहत की यह कहानी जिस आतंक और दहशत के बीच लिखी गई है, वह रोंगटे खड़े कर देती है, पर इस अंतिम पंक्ति पर आकर सारी दहशत और आतंक पिघलकर बह जाता है- “यही कि बच्चों को मारना बहुत मुश्किल है. . .उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है. . .औरतों को मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल.' 'बच्चों को मारते समय. . .अपने बच्चे याद आ जाते हैं.” यहाँ पहुँचकर सारे शब्द बौने हो गए हैं और छोटे पड़ गए हैं..! इस पंक्ति को पढने के बाद जो भीतर एक सन्नाटा पसरता है उसमें मुझे यह महसूस होता है कि आज स्थिति और भी भयावह हो गई है कि पेशावर के एक आर्मी स्कूल में लगभग डेढ़ सौ बच्चे मार दिए जाते हैं, पर उन आतंकियों को उनमें अपने बच्चे नज़र नहीं आते हैं, सीरिया में ज़ारी खूनी संघर्ष में खून से लथपथ बच्चों की तस्वीरें सोशल मीडिया में वायरल होती है। तस्‍वीरों को हजारों बार शेयर किया जाता है पर स्थिति जस की तस रहती है. 


जीवन इतना नंगा हो गया है कि अब लेखक उसकी पर्तें क्या उखाड़ेगा, रोज़ अख़बार में जो छपता है वह पूरे समाज को नंगा करने के लिए काफ़ी है. पाठक के अंदर अब उस तरह से किसी भाव का संचार नहीं हो सकता जैसे पहले हुआ करता था. अब अगर आज आप ‘पूस की रात’ की संवेदना जैसी संवेदना की कहानी लिखेंगे तो लोग कहेंगे कि यह तो रोज़ देखते हैं. हम इसके आदी हो गए हैं. मानवीय संबंधों में जितनी गिरावट आई है, मनुष्य का जीवन जितना मूल्यहीन हुआ है, सत्ता जैसा नंगा निर्मम नाच दिखा रही है, मूल्यहीनता की जो स्थिति है, स्वार्थ साधने की जो पराकाष्ठा है, हिंसा और अपराध का जो बोलबाला है, सत्ता और धन के लिए कुछ भी कर देने की होड़, असहिष्णुता और दूसरे को अपमानित करने का भाव जो आज हमारे समाज में है, वह पहले नहीं था. आज हम अजीब मोड़ पर खड़े हैं. रचनाकार के लिए यह चुनौतियों से भरा समय है. 


लेखक असग़र वजाहत अपने समय और समाज को सामने लाने के लिए जिस लघुकथा शैली का प्रयोग करते हैं, वह अपने आप में अनूठी है, यह पूरी कहानी संवादों में अपनी बात कहती है, इनकी कहानियों को ‘कामिकल ट्रेजडी’ भी कहा जाता हैं. हास्य और व्यंग्य, इस तरह कहानी को आगे बढ़ाते हैं कि वह त्रासदी बनकर विषय और पात्र को नए आयाम और अर्थ देते हैं. असग़र वज़ाहत स्वयं भी कहते हैं- “इतना तो मैं कह सकता हूं कि व्यंग्य, हास्य, नाटकीयता आदि के माध्यम से अपने समय और समाज को समझने का काम मुझे अच्छा लगता है.” 


लघु-कथा के संबंध में फैली भ्रांतियों को तोड़ती असग़र वजाहत की लघुकथाएँ अपनी विशिष्ट शैलियों तथा व्यापक कथ्य प्रयोगों के कारण चर्चा में रही हैं. वे पिछले पैंतीस साल से लघुकथाएं लिख रहे हैं. उनकी लघुकथाएँ इन अर्थों में अन्य लघुकथाओं से भिन्न हैं कि उनकी लघुकथाएं किसी विशेष शैली के सामने समर्पण नहीं करती हैं. ये लघुकथाएँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों तक फैली हुई हैं. सामाजिक प्रतिबद्धता इन लघुकथाओं की एक विशेषता है, जो किसी प्रकार के अतिरिक्त आग्रह से मुक्त है. इन लघुकथाओं के माध्यम से मानवीय संबंधों, सामाजिक विषमताओं और राजनीतिक ऊहापोह को सामने लाया गया है. 


लेखक जिन मानवीय मूल्यों की तलाश इस कहानी में करता है, वह भावना एक गहरे नैतिक उत्तरदायित्व के एहसास से उपजती है. एक ऐसी व्यवस्था में रहते हुए, जो लगातार मानवीयता को कुचलती है, निजी तौर पर लेखक अपने समाज के प्रति ख़ुद को उत्तरदायी समझता है एवं पीड़ा के सटीक स्थान पर ऊँगली रखना उसके लिए अपने समय के सरोकारों के प्रति उसके मानवीय फ़र्ज़ की अदायगी है इसीलिए वह बार-बार उन आधारभूत मसलों की तरफ़ मुड़ता है, जो सहज जीवन के रास्ते में रुकावट बन कर खड़े हैं जिनमें राजनीति, साम्प्रदायिकता, झूठ, फ़रेब, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, शोषण इत्यादि प्रमुख है. आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि देश में एकता, सद्भाव और शांति का वातावरण बना रहे. आज समाज में व्यापक स्तर पर जितनी घृणा और हिंसा फैल गयी है, वैसी शायद पिछले दशकों में नहीं थी. एक दिन यह समूल नष्ट होगी, इसी यकीन पर लेखक की कलम टिकी है. देरिदा का कथन भी है कि “चरम निराशा की अवस्था में किसी उम्मीद की आकांक्षा समय के साथ हमारे रिश्ते का एक अभिन्न अंश है. नाउम्मीदी इसलिए है क्योंकि हमें उम्मीद है कि कुछ अच्छा और सुंदर घटित होगा... !!”


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'बनास जन' असग़र वज़ाहत विशेषांक में प्रकाशित 






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