Monday, January 5, 2015

इतिहास बनने से इनक़ार करती कविता: ‘अँधेरे में’

मुक्तिबोध 


  


‘मैं विचरण करता-सा हूँ एक फैंटेसी में/ यह निश्चित है कि फैंटेसी कल वास्तव होगी.’[1]



और यह आज वास्तव हो चुकी है. वस्तुतः एक समर्थ कवि की विशेषता होती है कि वह समय के आर-पार देख सकता है. यह आर-पार देखने की सामर्थ्य उसे अपने युग में गहरे धंसकर अपने युग के यथार्थ को पकड़ने से मिलती है. 'अँधेरे में' कविता के सन्दर्भ में डॉ नामवर सिंह ने जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘1984’ को याद किया है जो अब फैंटेसी में रहकर एक जीती-जागती सच्चाई बन गया है. ‘अँधेरे में’ का जो दुःस्वप्न छठे दशक में फैंटेसी लगता था वह हमारे समय का नितांत फैंटेसीविहीन घोर यथार्थ है.[2] मुक्तिबोध मूलतः आत्मसंघर्ष और आत्म-साक्षात्कार के कवि हैं. उनका यह साक्षात्कार और संघर्ष नई कविता के अधिकाँश कवियों की तरह ‘आत्म’ या ‘स्व’ तक सीमित न होकर समाज के संघर्ष और जगत साक्षात्कार की ओर उन्मुख रहता है. उन्होंने छायावाद की सीमाएँ लांघकर, प्रगतिवाद से मार्क्सवादी दर्शन लेकर, प्रयोगवाद के अधिकाँश हथियार संभाल सब वादों और पार्टियों से ऊपर उठकर एक स्वतंत्र कवि के रूप में मानवतावादी परंपरा को बहुत आगे बढ़ाया.[3] उनकी कविता ‘अँधेरे में’ छपने के पचास साल पूरे होने को है, इस पचास साल पूरे होने के क्या अर्थ हैं? कविता के जन्म के समय रचयिता और कविता दो रहते हैं उसके बाद वह अपने रचयिता से मुक्त हो जाती है.[4] इसी क्रम में ‘अँधेरे में’ कविता के भीतर भी समय प्रवेश कर चुका है, और उसने इतिहास बनने से इनकार कर दिया है.

मुक्तिबोध की यह प्रसिद्द कविता ‘अँधेरे में’ 1957 से 1962 के बीच लिखी गई थी। ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के सम्पादक नेमिचंद्र जैन के अनुसार 1962 में मुक्तिबोध ने इस कविता में अंतिम संशोधन किया था। 1964 के ‘कल्पना’ के नवम्बर अंक में यह कविता ‘आशंका के द्वीप: अँधेरे में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई । बाद में केवल ‘अँधेरे में’ नाम से इसे ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ में शामिल किया गया।[5] ‘अँधेरे में’ के लिखे जाने के बाद पचास वर्ष बीत चुके हैं। ये पचास वर्ष मानव सभ्यता के इतिहास में युगान्तरकारी हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इस कालावधि में स्वाधीनता-आंदोलन के नैतिक मूल्यों की नदी लगभग सूखने की ओर है। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आयातित भूमंडलीकरण के गर्भ से जन्मा मध्यवर्ग बाज़ार के मायावी गलियारों में विचरण कर रहा है। तकनीकी और सूचना क्रान्ति ने दुनिया को रंगीन चश्में से देखने का हुनर दे दिया है जिसमें बाहर की ज़िन्दगी में चकाचौंध है, लेकिन भीतर अँधेरा घिर रहा है। सोवियत संघ के विघटन के साथ समाजवादी व्यवस्था का पराभव और पूंजीवाद के सामने साम्यवादी चीन का आत्मसमर्पण इस दौर की अंतरराष्ट्रीय घटनाएँ है जिनका व्यापक असर विश्व राजनीति पर पड़ा है। सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ अमरीका दुनिया का एक ध्रुवीय शक्ति केंद्र हो गया है।इन स्थितियों ने मनुष्य के सामाजिक-संबंधों, भाव-बोध और उसकी जीवन-दृष्टि को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। इनका प्रभाव रचना और आलोचना दोनों पर पड़ा है.


यदि इन पचास वर्षों की यात्रा से पूर्व देखा जाए तो यह एक प्रदीर्घ कविता है जिसका आयाम बेहद विस्तृत है. यह स्वाभाविक है कि संरचनात्मक जटिलता के कारण इस कविता में कई अर्थ-छायाएँ भी बनती हैं. ध्यातव्य है कि इन अर्थों की भी शिनाख्त पर्याप्त समय के बाद और इस कविता के रचनाकार के इस दुनिया से चले जाने के बाद हुई. इस सन्दर्भ में आलोचक निर्मला जैन का कहना है इस विलम्ब का कारण उपेक्षा या उदासीनता नहीं बल्कि ऐतिहासिकता है. 1960 के बाद भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तनों की गति और विधि दोनों में निकट अतीत से भी बुनियादी अंतर था. स्थितियां जिस तेजी से और जिस रूप में मोड़ ले रही थीं, उन्हें देखते हुए बहुतों को मुक्तिबोध की क्रान्तिदर्शिता और सोच की पहचान करना और सराहना ज़रूरी महसूस हुआ होगा. इस ऐतिहासिक दबाव का जो सिलसिला उस समय शुरू हुआ था, वह आज भी क़ायम है. अपने समय का अतिक्रमण हर कालजयी रचना करती है. लेकिन आने वाले समय के इस कदर साथ चलने वाली रचनाओं की संख्या बहुत नहीं होती.[6]


‘अंधेरे में’ फैंटेसी में निर्मित कविता है। स्वाधीनता के सड़सठ और भूमंडलीकरण के बाईस वर्षों बाद भारतीय समय, समाज, सत्ता और राष्ट्र का अंधेरा फैंटेसीमय हो गया है। मध्यवर्ग का चरित्र ज्यादा पतित हो गया है। आम जनता से उसका लगभग संबंध विच्छेद हो गया है। सत्ता के साथ वह ज्यादा नाभिनालबद्ध है। बौद्धिक वर्ग पूर्णतः रक्तपाई वर्ग का क्रीतदास हो गया है। राष्ट्रवाद, वर्गचेतना, सर्वहारा, जनक्रांति आदि शब्द मध्यवर्ग के शब्दकोश से गायब हो गए हैं। पश्चिमी आधुनिकता और कॉरपोरेट पूंजी राष्ट्रराज्य से गठबंधन कर जनता के सामने तानाशाह की भूमिका में है। जनता का एक बड़ा हिस्सा सभ्यतागत विनाश के आखिरी कगार पर विस्थापन, आत्महत्या, दमन और संघर्ष में संलग्न है लेकिन मध्यवर्ग और क्रीतदास बौद्धिक वर्ग का उससे किसी तरह का सृजनशील जुड़ाव नहीं है। वैश्विक-सत्ता प्राकृतिक संसाधन और गांव-खेत के साथ मानव अवचेतन पर भी उच्च तकनीकी संस्कृति के माध्यम से कब्जा कर चुकी है। अस्तित्व और चेतना का पूरा इलाका राजनीति, बाजार और भाषा के पाखंड से पटा हुआ है। ‘अंधेरे में’ की फैंटेसी ने रहस्य और जादू के जटिल खेल में पूरी सभ्यता को उलझा दिया है.

1963 में मुक्तिबोध ने 'अग्न्येशका सोनी' नामक एक पोलिश महिला को ‘अँधेरे में’ भेजने से पूर्व एक पत्र में लिखा था कि उसमें एक अँधेरी आशंका का वातावरण है कि कहीं हमारे भारत में ऐसा-वैसा न हो.[7] आज के समय को देखते हुए यह काबिले-गौर है कि क्या मुक्तिबोध की वह आशंका और वह डर सच नहीं हो गया है औपनिवेशिक आधुनिकता के जिस दमनकारी, तानाशाह, एकांगी, यथार्थवादी, तर्कप्रधान, मशीनी एवं तकनीकी सत्यों को चुनौती देने के लिए मुक्तिबोध ने जिस फैंटेसी प्रविधि का प्रयोग किया. क्या वे सभी डर आज की उत्तर आधुनिकता से उपजी समस्याओं के दौर में उस स्वप्न-फैंटेसी से यथार्थ छवियों में परिवर्तित नहीं हो गए हैं? इन सभी उठते प्रश्नों के साथ यह भी जानना ज़रूरी हो जाता है कि ‘अँधेरे में’ की रचना के समय मुक्तिबोध की मनःस्थिति एवं परिस्थिति क्या थी? यदि उसका विश्लेषण किया जाए तो नागपुर में एम्प्रेस मिल के मजदूरों पर जब गोली चली थी, तो रिपोर्टर की हैसियत से मुक्तिबोध घटना-स्थल पर मौज़ूद थे. उन्होंने सिरों का फूटना और खून का बहना अपनी आँखों से देखा था. उनके अनुसार ‘अँधेरे में’ शीर्षक उनकी सशक्त और मार्मिक कविता उनके नागपुर जीवन के बहुत सारे सन्दर्भ अपने अन्दर समेटे हुए है...हरिशंकर परसाई ने अपने दो संस्मरणों में ‘अँधेरे में’ की रचना का सम्बन्ध एक दूसरी घटना से बतलाया है. वह घटना है मुक्तिबोध के द्वारा लिखी पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ का मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया जाना...मुक्तिबोध कहते थे कि यह नंगा फासिज़्म है. लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें. इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जा रही है. गला दबाकर आवाज़ घोंटी जा रही है.[8] 'अंधेरे में' कविता की समकालीनता इस कसौटी पर और भी अधिक बढ़ गई है. इस दृष्टि से ‘अँधेरे में’ के साथ-साथ यह मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ का भी पचासवां वर्ष है। मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के बाद जबलपुर न्यायालय द्वारा 1963 में किताब के प्रतिबंधित अंश हटाकर अतिरिक्त छापने के फैसले का यह पचासवां वर्ष मुक्तिबोध के आशंका के द्वीप भारत के अंधेरे को ज्यादा विचारणीय बना देता है। यह अनायास नहीं है कि ‘अंधेरे में’ की जब पचासवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है, तब मुक्तिबोध की इस प्रतिबंधित पुस्तक पर कहीं कोई बहस नहीं है। संभवतः इसका जवाब भी ‘अंधेरे में’ कविता में ही मौजूद है।


‘अँधेरे में’ कविता अपने सघन समकालीन यथार्थ से बराबर गुज़रते हुए जब पचास वर्ष की यात्रा तय कर रही है और आज भी बराबर प्रासंगिक बनी हुई है ऐसे में इस कविता की जीवटता के कारणों की शिनाख्त करना बहुत ज़रूरी हो जाता है. इन पचास सालों में आपातकाल, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता , उसपर सेंसरशिप, जगह-जगह दंगें, आगजनी, फासिस्ट शक्तियों का होता विस्तार और इस सबसे त्रस्त आम जन की दिन-दिन बढती बदहाली की गूँज ‘अँधेरे में’ कविता में बराबर सुनाई देती है. इन स्थितियों ने ही इस कविता को कभी इतिहास नहीं बनने दिया बल्कि यह वर्तमान को भी भेदती हुई भविष्य बयाँ करती कविता है जिसमें आज के मनुष्य की बदहवासी और निरुपायता को स्पष्ट रूप से महसूसा जा सकता है. ‘भागता मैं दम छोड़/ घूम गया कई मोड़’. क्या व्यक्ति पिछले पचास वर्षों से बदहवासों की तरह भाग नहीं रहा है, किससे भाग रहा है, अपने ही समाज से, अपने ही समाज में. सही मायने में यह कविता अपनी ज़मीन पर अपनी पीड़ा बयान करती कविता है जो दबे पाँव भीतर उतरती है.


एक ऐसे समय में जब उत्तर-आधुनिकता ने ‘केंद्र’ की सत्ता को अपदस्थ कर दिया है, किसी के केंद्रीय बिंदु की पहचान का प्रश्न पुराने संस्कार का अवशेष मात्र माना जा सकता है, इसके बावज़ूद केंद्र का प्रश्न बराबर उठता रहता है. यह भी कहा जा सकता है कि कविता का अपना कोई केंद्र नहीं होता. आलोचक उसमें अपने विचारानुसार केंद्र आरोपित करता है. देखा जाए तो आलोचक की विचारधारा, रुचि और पूर्वग्रहों की निर्मिति मात्र है केंद्र. इस दृष्टि से कविता के अनेक केंद्र हो सकते हैं और यही बात किसी भी कविता की रचनात्मक व्याप्ति और अर्थगर्भत्व का प्रमाण है. जो कविता निष्कर्षों की एकरूपता को प्रोत्साहित करती है- वह अल्पजीवी तो होती ही है, अपने समय के साथ उसका रिश्ता भी इकहरा और सपाट होता है. वह अपने समय का अतिक्रमण करने के सामर्थ्य से रहित एवं यथार्थ की पुनर्रचना के लिए अपेक्षित आवेग और कल्पनाशीलता से भी रहित होती है. ज़ाहिर तौर पर, ‘अँधेरे में’ ऐसी कविता नहीं है, इसका अर्थ की दृष्टि से कोई एक केन्द्रीय बिंदु न होकर बल्कि कई केन्द्रों से उपजी समवेत संवेदना का स्वर है. सभ्यता संकट के इस दौर में ‘अंधेरे में’ कविता पाठकों के लिए एक नई रोशनी का काम कर सकती है। लेकिन हिंदी आलोचना के मठवाद और गढ़वाद ने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंधेरा और बढ़ाने का ही काम किया है. दिलचस्प है कि हिंदी आलोचना का फैंटेसी जैसे कला रूप से भले ही संबंध न हो, लेकिन ‘अंधेरे में’ जैसी कविता की आलोचना के क्रम में उसका फैंटेसीमय स्वप्नचित्र एवं उसकी व्याख्याएं देखने लायक है। मुक्तिबोध के अधिकाँश समीक्षकों ने ‘अँधेरे में’ की व्याख्या करते हुए इसे ‘परमाभिव्यक्ति की खोज’, ‘अपनी या सामाजिक अस्मिता की तलाश’, ‘साधारण जन में विलय करने की चाह’, ‘निम्नमध्यवर्ग का आत्मसंघर्ष’, ‘अँधेरे से उजाले की यात्रा’, ‘विभाजित अस्तित्ववाद’, ‘रहस्यवाद-मार्क्सवाद के प्रभाव में लिखी गई एक अर्द्धविक्षिप्त व्यक्ति की आत्मभर्त्सना’ कहा है. समय-समय पर विभिन्न आलोचकों ने अपने-अपने मत भी दिए हैं. आधुनिकताबोध और नई समीक्षा से प्रभावित नामवर सिंह के लिए यह कविता भाषिक एवं साहित्यवादी अस्मिता की खोज है, उन्होंने ‘अँधेरे में’ को अस्मिता की खोज, एलियनेशन, सेल्फ एलियनेशन, लॉस ऑफ़ सेल्फ या आइडेंटिटी रीइफ़िकेशन जैसे शब्दों के सहारे समझाने की कोशिश की है. इसके विपरीत चंचल चौहान ने इसे सर्वहारा वर्ग में अपनी मध्यवर्गीय अस्मिता[9] का विषय बताया है तो विष्णु खरे को यह कविता व्यक्तिगत तथा विराट स्तरों पर संघर्ष लगती है.[10] आलोचक रामविलास शर्मा के लिए इस कविता पर एक ओर विकृत मनोचेतना के रहस्यवाद का प्रभाव दिखाई पड़ता है, वहीं दूसरी ओर सार्त्र के खंडित व्यक्तित्व के अस्तित्ववाद का। इस कविता को वे काव्य-नायक की अपराध भावना से घिरा पाते हैं जो आदम की अपराध भावना से भिन्न न पूरी तरह जनता के साथ है और न ही शोषकों के साथ.[11] वहीं प्रभाकर माचवे के लिए यह कविता प्रसिद्द चित्रकार पिकासो का प्रभाव लिए हुए ‘गुएरनिका इन वर्स’ है.[12] शमशेर के लिए यह कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का स्वतंत्रतापूर्व और पश्चात का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है[13] जबकि डॉ गंगाप्रसाद विमल के अनुसार यह कविता मुक्तिबोध की आतंरिक संघर्ष की प्रतिक्रिया है जिसमें घोर अवसाद और घोर विद्रोह के तत्व हैं.[14] तो डॉ शिवप्रसाद मिश्र के लिए यह विशाल खंड पर आधारित प्रखर यथार्थबोध की कविता है जो केंद्रीय फैंटेसी और उसकी भीतरी परतों को प्याज के छिलकों की भांति अलग करती है.[15] इतना ही नहीं, अशोक वाजपेयी के लिए यह ‘खंडित रामायण’ है तो एक आलोचक को इसमें लंदन की रात दिखती है तो दूसरे कवि को जापानी फिल्म का जंगल। यह बात यहीं ठहर जाये तो गनीमत है। तिलस्मी खोह में और अधिक कुहासा बढ़ाने के लिए हिंदी आलोचना की हांफती हुई युवा पीढ़ी मुक्तिबोध पर किताब लिखती है तथा मार्शल लॉ लगाने वाली शक्ति से पुरस्कृत होती है। जितनी चेतना मध्यवर्ग की तथा फैंटेसी की टूटी बिखरी हुई नहीं होती है, उससे ज्यादा कविता की आलोचना की है। विचारणीय यहाँ यह भी है कि जन्म शताब्दी वर्षों को मनाने की कर्मकांडी प्रवृति से ग्रस्त हिंदी समाज पिछले कुछ समय तक जिस प्रकार नागार्जुन, अज्ञेय इत्यादि की जिस तल्लीनता से पूजा-पाठ कर रहा था, इस वर्ष से ‘आशंका के द्वीप: अँधेरे में’ के समय पर कवि मुक्तिबोध के भजन कीर्तन शुरू कर चुका है. ऐसी परिस्थिति में इस कविता की आलोचना करना पूरी हथेली आग में डालने जैसा काम है.



इन सबके बावज़ूद ‘अँधेरे में’ से गुज़रना एक काव्य यात्रा है. तरह तरह के अनुभवों के बीच वह कवि की न खत्म होने वाली रचनात्मकता की तलाश है जिसे उसने परमभिव्यक्ति नाम दिया है, और यह तलाश तब तक ज़ारी रहेगी जब तक समाज की क्रियाशीलता नहीं बढ़ती. यह कविता मध्यवर्ग की उसी निष्क्रियता पर प्रहार करती है. ‘अँधेरे में’ का द्वंद्व इलियट की ‘दि वेस्ट लैंड’ के माहौल की भी याद दिलाती है. अशोक वाजपेयी ने तो ‘अँधेरे में’ को ‘दि वेस्ट लैंड’ के समकक्ष रखकर ही देखा है.[16] यह कविता स्वप्न, फैंटेसी और यथार्थवादी अनुभवों के साथ चलने वाला कथानक, रक्तालोक स्नात पुरुष का साक्षात्कार, कवि को दी गई मौत की सज़ा, रात का विचित्र जुलूस, मार्शल लॉ जैसा वातावरण, तिलक मूर्ति से टपकता खून, विचित्र वेश में गांधी से भेंट, भविष्य शिशु का कवि को सौंपा जाना और गाँधी द्वारा जन शक्ति का आख्यान, कवि को पकड़ कर दी गई यंत्रणा, फिर रिहाई, अभिव्यक्ति के खतरों का अहसास और फिर उस परम अभिव्यक्ति की तलाश, सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन और परवर्ती जीवन का एक विराट संश्लिष्ट चित्र है.[17]


इस कविता का आरम्भ इस तिलिस्मी खोह के रहस्यमय दृश्य से होता है, जो अपने प्रभाव में काफ़ी नाटकीय है- ‘जिंदगी के/ कमरे में अँधेरे/ लगाता है चक्कर/ कोई एक लगातार.’ यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य शब्द है ‘अँधेरा’ जो कमरे में भी है और जिंदगी में भी. यह अँधेरा गरीबी, उपेक्षा, अपमान, दारिद्रय सभी का प्रतीक है जिसमें मनुष्य की क्रांतिकारी चेतना खो गई है इस क्रांतिकारी चेतना को ही आलोचक नंदकिशोर नवल ने ‘सर्वहारा चेतना’ कहा है. इसी अँधेरे में एकाएक प्रकट होता ‘रक्तालोक स्नात पुरुष’. जिसे प्रारम्भ में उसकी विराटता से आश्चर्य के रूप में देखा जाता है किन्तु आगे चलकर यह भ्रम उसके फटे वस्त्रों, चेहरे की मलीनता और उसके वक्ष के घावों से टूटता है. उसके कष्टों से भरे चेहरे पर मुस्कान है, मुक्तिबोध का यह रक्तालोक स्नात पुरुष अपनी अँधेरी खोह से बाहर नहीं निकल पा रहा है. श्रीकांत वर्मा की धारणा है कि यह स्वाधीनता के बाद का भारतवर्ष है जिसका शरीर और मन क्षत विक्षत है. उसके चेहरे पर इतिहास की झुर्रियाँ, सीने पर गोली के घाव और अन्तरात्मा में बेचैनी है. यही रहस्यमय व्यक्ति वाचक के दरवाज़े की साँकल बजाता है और उत्तर न मिलने पर चला जाता है वाचक जब दरवाज़ा खोलकर बाहर आता है तो रात का पक्षी कहता है – ‘वह चला गया/ वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं/ अब तेरे द्वार पर/ वह निकल गया है गाँव में, शहर में/ उसको तू खोज अब/ उसका तू शोध कर/ वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति/ उसका तू शिष्य है/ वह तेरी गुरु है/ गुरु है....’ और यह व्यक्ति पूरी कविता में कहीं नहीं दिखाई देता है. कविता के अंत में वाचक को गलियों, सड़कों और लोगों की भीड़ में जाता हुआ दिखाई देता है. वाचक उसे पुकारना चाहता है पर पुकारता नहीं है. वह भीड़ में खो जाता है. यहाँ मुक्तिबोध मध्यवर्गीय कमजोरियों की ओर संकेत करते है वह रहस्यमय व्यक्ति एक नैतिक चेतना है जो मध्यवर्गीय सुरक्षाघेरे से बाहर निकलना नहीं चाहता. वाचक उसे दरवाज़ें पर साँकल की आवाज़ सुनकर भी अनदेखा, अनसुना कर देता है. वाचक आत्मस्वीकृति देते हुए कहता है ‘यह भी तो सही है कि/ कमजोरियों से ही मोह है मुझको/ इसलिए टालता हूँ उस मेरे प्रिय को/ कतराता रहता/ डरता हूँ उससे.’ वाचक मध्यवर्गीय उसी चेतना का प्रतीक है जो खंडित हो चुकी है जो एक सुरक्षित जीवन के गुरुत्वाकर्षण से बंधा हुआ है जिसने उड़ान के सपने तो देखे हैं पर साथ ही कह उठता है कि ‘मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से’. यह वर्ग अपने ही वस्तुगत जीवन की सच्चाईयों के विरुद्ध एक सुन्दर दुनिया का सपना रचता है लेकिन इस सपने की कीमत नहीं देना चाहता. काव्य नायक के स्वप्न नायक में एकाकार होकर शुरू की गई जनक्रांति की मुख्य बाधा मध्यवर्ग की यही तमाशबीन की भूमिका है। उसकी तटस्थता और उदासीनता जिस बौद्धिक विक्षोभ से जनित है मुक्तिबोध को उस संकट की भी प्रामाणिक पहचान है, वे अपने स्वप्न में भी कबीर के समान जगे हुए हैं. वे अपने वैचारिक उत्तरदायित्व को समझते हुए उन विचारों को कर्म में न उतार पाने की पीड़ा महसूस करते है कि ‘मानो मेरे कारण ही लग गया मार्शल लॉ’. वे अपने समय के प्रति वफादार थे. उनका मानना था कि बौद्धिक वर्ग का जब श्रमजीवी वर्ग से रिश्ता कट जाता है तब वह ‘आमजन की बेहतरी के उद्देश्य’ से भटक जाता है। उनकी मान्यता है कि बौद्धिक वर्ग क्रीतदास है, उसके विचार किराए के हैं तथा अपनी काली करतूतों में वह इतना डूब गया है कि चेहरे पर स्याही पुत गई है। जब बौद्धिक वर्ग रक्तचूसक सत्ता से नाभिनाल बंध जाता है तब जनक्रांति पर संकट अवश्यंभावी हो जाता है। मुक्तिबोध लोकतंत्र और संवाद की शक्ति को रेखांकित करने में कहीं नहीं चूकते बल्कि इस कविता के ज़रिये तिलक, गाँधी से टॉलस्टॉय तक जाते हैं. जिसमें कोरा एकालाप नहीं है, मुक्तिबोध की दृष्टि में इस समाज में घिरे घुप्प अँधेरे में केवल अँधेरे का ही दोष नहीं है बल्कि उस सूर्य का भी है जो पीछे हट गया है.


इसी क्रम में ही मुक्तिबोध जनमुक्ति का प्रश्न राष्ट्रमुक्ति से जुड़ा हुआ पाते हैं तथा राष्ट्रमुक्ति और जनमुक्ति का संयुक्त प्रश्न मध्यवर्गीय चेतना की मुक्ति से जोड़ते हैं. मुक्तिबोध को इन सभी प्रश्नों का हल सभ्यता मुक्ति में दिखता है।[18] उन्हें मालूम है कि पूंजीवादी राष्ट्रराज्य दमनकारी है। वह पश्चिमी आधुनिकता की पीठ पर लदा हुआ है। इस कविता में मौजूद ‘पागल’ का रूप भी आधुनिकता पर प्रश्नचिह्न लगाता है। आधुनिकता के उजाले में जिसे पागल साबित किया गया है अंधेरे में वह जागृत बुद्धि है। वस्तुत: आधुनिकता के भीतर विद्रोही, विसंगत, स्वप्नशील मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं है। उस कथित पागल विद्रोही को ज्ञात है कि पूरा मध्यवर्ग इतना मूल्यहीन है कि वह पेट भरने के लिए आत्मा बेचता है, भूतों की शादी में कनात सा तनता है, व्यभिचार का बिस्तर बनता है, दुखों के दागों को तमगों सा पहनता है, असंग बुद्धि और निष्क्रिय जीवन शैली के साथ दिन-रात अपने ही खयालों में मग्न रहता है। इसलिए आधुनिकता के उजाले ने उसे खारिज कर दिया है। बिना सभ्यता मुक्ति के मनुष्य को कथित पागलपन और विखंडित व्यक्तित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता है। काव्य नायक हैरान है कि ऐसे कठिन वक्त में ‘सब चुप, साहित्यिक चुप हैं और कविजन निर्वाक/ चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं.’ सबके लिए ‘बदलाव’ एक ख्याली गप है, कोरी किंवदंती है। ऐसा इसलिए है—‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल बद्ध ये सब लोग/ नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे/ प्रश्न की उथली सी पहचान/ राह से अनजान.’ इन ताकतवर होती जा रही शक्तियों के बीच मुक्तिबोध की यह फैंटेसी, उनके भारत के भविष्य को लेकर जितने भी डर थे उन सभी को इन पिछले पचास वर्षों से लगातार प्रत्यक्ष घटते हुए देखा जा सकता है. सैनिकों को अपनी ओर बढ़ते देखकर कविता का नायक भागता है. इस विषय में नामवर सिंह का कथन है- मुक्तिबोध के काव्य-संसार की पृष्ठभूमि में असंदिग्ध रूप से ऐसी शासन-व्यवस्था या सत्ता है जो निहायत चालाक होने के साथ ही बेहद आतातायी है. कर्फ्यू और मार्शल लॉ इस सत्ता के आम तरीके हैं. प्रोसेशन में शामिल चेहरों को देखकर हैरानी से अधिक भय पैदा होता है. शहर के अपराध जगत के सरगना डोमा जी उस्ताद के साथ कलाकार, कवि, और बुद्धिजीवी सभी शामिल हैं. मुक्तिबोध ने इस प्रोसेशन को मृत्युदल की शोभा-यात्रा कहा है.[19] इस सत्ता के दो रूप हैं। वह अंधेरे में दमन करती है तथा उजाले में लोकतंत्र का कारोबार। जनक्रांति के दमन निमित्त मार्शल लॉ की यह यात्रा दिल दहला देने वाली है। सुनसान नगर की मध्य रात्रि में बैंड बाजे के साथ जुलूस चल रहा है। आधुनिक सभ्यता के अंधेरे में काव्य नायक को कोलतार की सड़क ‘मरी हुई खिंची हुई काली जिह्वा’ तथा खंभे पर टंगे बिजली के बल्ब ‘मरे हुए दांतों का चमकदार नमूना’ लगते हैं। चमकदार बैंडदल अस्थि रूप, यकृत स्वरूप, उदर आकृति और उलझी हुई आंतों के जालों जैसा विरूपित है। इस शोभायात्रा में—संगीन नोकों का चमकता जंगल/ चल रही पदचाप/ तालबद्ध दीर्घ पात/ टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी/ सन्नद्ध/ धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावह—दृश्य जैसा है। इस जुलूस में कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, सेनापति, अध्यक्ष, मंत्री, उद्योगपति सभी शामिल हैं। इससे ज्यादा डरावनी बात काव्य नायक के लिए यह है कि जुलूस में पत्रकार, प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण भी शामिल हैं। सत्ता के साथ मध्यवर्गीय बौद्धिक का यह अनैतिक, मूल्यहीन गठबंधन ही जनक्रांति में बाधक है। काव्य नायक की त्रासदी है कि दिन के दफ्तरों में नग्न हो जाने के डर से यह बौद्धिक वर्ग उसे अंधेरे में खत्म कर देना चाहता है। काव्य नायक को संकट की गहरी पहचान है—‘गहन मृतात्माएं इसी नगर की/हर रात जुलूस में चलतीं/परंतु दिन में/बैठकर हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र विभिन्न दफ्तरों, कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में।‘ मार्क्‍स ने कभी कहा था कि क्रांति राष्ट्र करता है पार्टी नहीं।[18a] यह तथ्य आज ज्यादा सच है। आज भारत जैसा देश बाहरी औपनिवेशिक विकसित राष्ट्रों के बाजारवादी और हथियारवादी राष्ट्रवाद तथा आंतरिक उन्मादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद दोनों के दमन, शोषण का शिकार है। ‘अंधेरे में’ कविता इन दोनों कट्टर राहों से अलग जनता के जनराष्ट्रवाद का मार्ग सुझाती है। इसे कविता में तिलक और गांधी के रूपकों से समझना चाहिए। तिलक की प्रतिमा का हिलना, चिंता से मस्तिष्क का फटना तथा खून की धार का बहना राष्ट्रीय मुक्ति के क्रांतिकारी मसौदे का अगला संकेत है। कविता में गांधी के कंधों पर सवार शिशु वह स्वातंत्र्य शिशु स्वप्न है जो पहले तो सूरजमुखी के प्रकाश कण से भरे पुष्प गुच्छ में बदलता है तथा अंतत: काव्य नायक के कंधे पर भारी रायफल में तब्दील हो जाता है। आजादी के बाद राष्ट्र के सामने प्रश्न शेष थे—किसकी आजादी? कैसी आजादी? किसका राष्ट्र? कैसा राष्ट्र? क्या यह वही आज़ादी थी जिसका स्वप्न देखा गया था. इस कविता में इस स्वप्न के टूटने की इन सभी पीडाओं को महसूसा जा सकता है जिसमें आम जनता और मध्यवर्ग के असंतोष, आक्रोश और बेचैनी मौज़ूद है जिसका कारण अनगिनत राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय घटनाएं थीं। उन सभी घटनाओं की छवि ‘अँधेरे में’ कविता में लगातार बिम्बित होती रहती है.


उस दौर में भी मुक्तिबोध के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का प्रश्न, अधूरी आजादी का प्रश्न, औपनिवेशिक आधुनिकता का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न था। मध्यवर्गीय काव्य नायक के सम्मुख छंद लय युक्त गीत पागल यूँ ही नहीं गाता है—‘जम गए, जाम हुए, फँस गए/ अपने ही कीचड में धँस गए!!.....अब तक क्या किया/ जीवन क्या जिया/ ज्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम/ मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम.’. मुक्तिबोध के मध्यवर्गीय काव्य नायक की समस्या केवल बाह्य औपनिवेशिक आधुनिकता नहीं है बल्कि आंतरिक गढ़वाद और मठवाद भी है। सच्ची जनमुक्ति और जनक्रांति के लिए—अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/तोडऩे होंगे ही मठ और गढ़ सब/पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/तब कहीं मिलेगी हमको/नीली झील की लहरीली थाहें/ जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता/अरुण कमल एक। ‘अंधेरे में’ कविता में मौजूद प्रकृति की संवेदन सघनता तथा पुरानी इमारतों, मठों, गढ़ों की जर्जरता हमारे सामने एक वैकल्पिक सभ्यता निर्माण का मानचित्र उपस्थित करती है। गौरतलब है कि इस कविता को अंतिम रूप देने के दौरान मुक्तिबोध गंभीर तनाव से गुजर रहे थे। उनके अस्तित्व को बचाने वाली स्कूली पाठ्यक्रम की किताब ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ तत्कालीन सत्ता द्वारा प्रतिबंधित हो गई थी और इस प्रतिबंध मांग अभियान में मध्य प्रदेश की कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। जिसने मुक्तिबोध को झकझोर कर रख दिया. मुक्तिबोध इसी सन्दर्भ में अभिव्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता का प्रश्न उठाते हैं और एक अपराजित संकल्प के रूप में इस किलेबंदी को तोड़ती, उस पर प्रहार करती कविता ‘अँधेरे में’ रचते हैं. इस कविता में आगे चलकर एक मध्यवर्गीय कलाकार की असंग मृत्यु की ओर अर्थ संकेत किया गया है. जब शिशु फूल के गुच्छ से रायफल में बदलता है, ठीक उसी वक्त एक एकांतप्रिय कलाकार की हत्या हो जाती है। काव्य नायक अंधेरे में टार्च फैलाकर देखता है, तो उसे खून भरे बाल में उलझा माथा, भौंहों के बीच में गोली का सुराख, होठों पर कत्थई धारा, फूटा चश्मा दिखाई पड़ता है—सचाई थी सिर्फ एक अहसास/वह कलाकार था/गलियों में अंधेरे का हृदय में भार था। /पर कार्य क्षमता से वंचित व्यक्तित्व/चलाता था अपना असंग अस्तित्व/किंतु न जाने किस झोंक में क्या कर गुजरा कि/संदेहास्पद समझा गया और/मारा गया वह बधिकों के हाथों। वस्तुत: असंग अस्तित्व की खोज में जनविमुख कलाकार और कोई नहीं काव्य नायक का मध्यवर्गीय बौद्धिक अवचेतन है। कलाकार होने की पहली एवं महत्वपूर्ण शर्त है- जनसंघर्ष में हिस्सेदारी तथा व्यवस्था-परिवर्तन के व्यापक स्वप्न के साथ जुड़ाव. किन्तु आज का मध्यवर्गीय बौद्धिक कलाकार बाजार संस्कृति, सत्ता संस्कृति और जन संस्कृति, मार्शल लॉ और जनसंघर्ष, क्रांति और भ्रांति, आधुनिकता और बर्बरता, मध्यकालीनता और उत्तरआधुनिकता के विभ्रमकारी भंवर में इस कदर फंस गया है कि उसका असंग व्यक्तित्व भावी विध्वंस की ओर उन्मुख है। यह पुराना प्रश्न है कि कला कला के लिए होनी चाहिए या जीवन के लिए। नया जवाब यह है कि अब कला जीवन के लिए नहीं, जीवनयापन और आत्म विज्ञापन के लिए बन गई है। इस दृष्टि से भी मुक्तिबोध और ‘अंधेरे में’ की सार्थकता और बढ़ गई है।


यह कहा जा सकता है कि ‘अँधेरे में’ कविता के अर्थों के पाँच प्रस्थान बिंदु हैं- परम अभिव्यक्ति की खोज, आत्माभियोग, मध्यवर्ग की चरित्र मीमांसा, सत्ता और कलाकार की निजता का प्रश्न. इन पाँच बिन्दुओं से शुरू होने वाली अर्थवान यात्राएँ हमारे समय और समाज में बहुत दूर तक जाती हैं. ये यात्राएँ आपस में मिलती या जुडती भले ही न हो, किन्तु इनसे भारतीय जीवन का मानचित्र बनता है. मुक्तिबोध की यह कविता अपने पचास वर्ष पूरे कर चुकी है और यथार्थ में पूर्णतः घट चुकी है, और नित्य प्रति घट रही है जो अपने समय और समाज का भयंकर सच बन चुकी है जो लगातार इतिहास, और वर्तमान के फिर इतिहास बनने का, अतिक्रमण कर भविष्य का बयान करती चल रही है, इस कविता की शाश्वतता का सबसे बड़ा कारण यही है कि यह कविता निराशा की कविता नहीं संघर्ष की कविता है, इसके आत्मसंघर्ष की परिणति दैन्य में न होकर आत्मविस्तार में होती है, यह कविता संघर्ष के माध्यम से मानव अवचेतन पर हो रहे दमन, अधिग्रहण और अतिक्रमण का विरोध करती है, काल्पनिक अवचेतन में भाषा के नए सृजनशील संसार का आह्वान करती है तथा अधूरे यूटोपिया को पूर्ण स्वप्न में बदल देने का मानचित्र बनाती है एवं रास्ता सुझाती है. मुक्तिबोध ने लिखा है कि आलोचक साहित्य का दारोगा होता है।[18b] ‘अंधेरे में’ कविता आधुनिक सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता से नाभिनाल बद्ध आलोचक की दरोगाई चेतना को अपने काव्य रूप, काव्य वस्तु और विचार धारा से कटघरे में खड़ा कर देती है—‘दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर/ दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट/ कोई मुर्गा/ यदि बांग दे उठे जोरदार/ बन जाए मसीहा.’ क्या वर्तमान दुनिया कचरे के ढेर में नहीं बदल गई है! तब क्या मुमकिन नहीं कि कोई मुर्गा जब चाहे ढेर पर दाना चुगने चढ़े और जोरदार बांग देकर मसीहा बन जाये! यह इतिहास बनने से इनकार करती रही है बकौल इंद्रनाथ मदान यह कविता पूरी होना नहीं चाहती, किनारे लगना नहीं चाहती। असल में मुक्तिबोध की यह कविता तट की न होकर मझधार की कविता है.[20] जोअपने अन्दर डूबने वाले को नए-नए अर्थ देती रही है और देती रहेगी.


“समय बीतने के साथ चीज़ें अतीत की ओर जाती हैं, लेकिन ‘अँधेरे में’ एक ऐसी कविता है जो अतीत की ओर नहीं, बल्कि भविष्य की ओर गई है. वह इतिहास बनने से इनकार करती रही और वक़्त में आगे चलती रही है.”[21] - मंगलेश डबराल



सन्दर्भ-सूची


[1] 'एक अंतर्कथा' कविता/ गजानन माधव मुक्तिबोध: प्रतिनिधि कविताएँ/ सं- अशोक वाजपेयी/ राजकमल प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 60


[2] अँधेरे में: फैंटेसी शिल्प का औचित्य: पुरुषोत्तम अग्रवाल/ 'अँधेरे में' का महत्व पुस्तक / सं- डॉ राजेन्द्र कुमार/ सुमित प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 58






[3] चाँद का मुँह टेढ़ा है की भूमिका/ शमशेर बहादुर सिंह/ पृष्ठ संख्या- 26





[4] प्रो. अपूर्वानंद, व्याख्यान 11 सितम्बर 2014/ रजा फाउण्डेशन सभागार








[5] डॉ रामेश्वर राय/ हस्ताक्षर हस्तलिखित पत्रिका/ सौजन्य हिन्दू कॉलेज/ पृष्ठ- 74





[6] अंतस्तल का पूरा विप्लव: अँधेरे में/ सं- निर्मला जैन/ राधाकृष्ण प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 91




[7] अँधेरे में: श्रीकांत वर्मा/ तिमिर में झरता समय/ सं- राजेन्द्र मिश्र/ वाणी प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 56


[8] निराला और मुक्तिबोध: चार लम्बी कविताएँ/ नंदकिशोर नवल/ राधाकृष्ण प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 121,122,123


[9] मुक्तिबोध: प्रतिबद्ध कला के प्रतीक/ चंचल चौहान/ पृष्ठ संख्या- 107


[10] मुक्तिबोध: विष्णु खरे/ सं- विश्वनाथ प्रसाद तिवारी/ पृष्ठ संख्या- 117


[11] मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता- लेख/ 'धर्मयुग' पत्रिका / दिसम्बर 1964


[12] अवचेतना का अन्धकार: मुक्तिबोध का काव्य/ डॉ नरेंद्रदेव वर्मा/ पृष्ठ संख्या- 67


[13] चाँद का मुँह टेढ़ा है की भूमिका/ शमशेर बहादुर सिंह/ पृष्ठ संख्या- 26


[14] मुक्तिबोध का रचना-संसार/ गंगाप्रसाद विमल/ पृष्ठ संख्या - 76


[15] आधुनिक कविता और युग-दृष्टि/ शिवप्रसाद मिश्र/ पृष्ठ संख्या- 280


[16] 'हिन्दुस्तान' समाचार-पत्र/ अशोक वाजपेयी/ 7 सितम्बर 2014


[17] अँधेरे में: इतिहास संरचना और संवेदना/बच्चन सिंह/ सं- रामस्वरूप चतुर्वेदी/ अभिव्यक्ति प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 17-20


[18], [18a], [18b] http://assichauraha.blogspot.in/2014/09/50.html 11:27 AM 08.01.2015




[19] 'अँधेरे में: पुनश्च' लेख से/ कविता के नए प्रतिमान/ नामवर सिंह/ राजकमल प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 231


[20] एक अधूरी कविता जो...: इंद्रनाथ मदान/ अंतस्तल का पूरा विप्लव अँधेरे में/ सं- निर्मला जैन/ राधाकृष्ण प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या- 17


[21] भविष्य की ओर जाती कविता: मंगलेश डबराल/ तिमिर में झरता समय/ सं- राजेन्द्र मिश्र/ पृष्ठ संख्या- 222