Monday, January 14, 2013

मैं एक स्त्री हूँ...




पिछले दो सालों से यह समीक्षा मेरे ड्राफ्ट में पडी हुई ऊँघ रही है, आज इसे कुछ संशोधनों के बाद अपनी ब्लॉग की पहली पोस्ट के रूप में लगा रही हूँ चूँकि मुझे ऐसा लगता है कि यह पुस्तक मेरी सोच (जो कि अभी अपनी संरचनात्मक-प्रक्रिया के आरंभिक दौर में है) के निर्माण में तथा उसको एक दिशा देने में सहायक सिद्ध हुई है।




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आज हर समाज में स्त्रियाँ अपना जीवन एक संघर्षात्मक ढंग से जी रही हैं। वर्तमान में हमारा इस तरह अपनी बात कहना एवं लिखना भी उसी संघर्ष की राह पर चलने का हिस्सा है. कई बार लगता है कि यह बोलना और लिखना भी इस संघर्ष के क्रम में हमारी उपलब्धि है. इतिहास पर नज़र डाले और सबक लें तो यह स्पष्ट है कि स्त्री को यह लडाई स्वयं लडनी है चूँकि समाज का वर्तमान चेहरा पुरुषवादी मानसिकता से गढ़ा गया है, जिसने स्त्री को सदियों से ठगा है. यदि उसने कुछ स्वतंत्रता हासिल की भी है तो अपनी स्वतंत्रता पाने की अथक ललक और बेहिसाब प्रयासों के बूते. पुरूष ने भी इस आज़ादी को स्त्री पर कृतार्थ करने के रूप में ही लिया. या तो स्त्री को देवी के रूप में रखा गया या गुलाम की स्थिति में. स्त्री को जानने-समझने के इसी क्रम में पिछले दिनों एक पुस्तक पढ़ी - सिमोन दी बोउवार की चर्चित पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ जिसे प्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान ने हिंदी में अनुदित किया है- 'स्त्री उपेक्षिता' नाम से. आज तक असमंजस की स्थिति है कि क्या वास्तविक भाषा से अनुदित पुस्तक में से भावों, सार तत्वों , तथा शब्दों की गहराई का लोप हो जाता है किन्तु निष्कर्ष यही निकाला कि यह पुस्तक स्वयं में संघर्ष से जूझने का बयान है तो इसे एक और संघर्ष उपहार स्वरुप न दिया जाए. 



यह पुस्तक केवल मनोरंजन मात्र का साधन नहीं है अपितु आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही स्त्री को, उसके अस्तित्व को जानने -समझने तथा उससे होकर गुज़रने की प्रक्रिया है. यह पुस्तक इस रूप में भी विशिष्ट है कि इससे पूर्व स्त्री पर पुरुषों ने लिखा किन्तु इसे एक स्त्री ने लिखा है, पुस्तक में कहा भी गया है- ''अब तक औरत के बारे में पुरुष ने जो कुछ भी लिखा, उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए, क्योंकि लिखने वाला न्यायाधीश और अपराधी दोनों ही है.” जहाँ एक ओर इस पुस्तक में स्त्री के मन को, उसकी पीड़ा को समझा गया है वहीं साथ ही पुरुष-मन, उसकी मानसिकता, उसकी सोच को भी उतनी ही गहनता के साथ झिंझोड़ा एवं खोला गया है. सिमोन ने स्त्री के किसी भी पक्ष का वर्णन करने या उसे विस्तार देने में कहीं पर भी संकोच नहीं किया. उन्होंने स्त्री-जीवन के विभिन्न आयामों का वर्णन बड़ी ही ज़िम्मेदारी के साथ कहीं पर मर्मस्पर्शी ढंग से तो कहीं पर विश्लेषणात्मक अंदाज़ में किया हैं. 



इस पुस्तक की पहली पंक्ति ही स्त्री की व्यथा कहने में पूर्णतः सक्षम है कि "स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे बना दिया जाता है." ("One is not born rather becomes, a woman") कहीं न कहीं सत्य भी है कि प्रकृति ने तो सृष्टि को चलाने के लिए दो आधार स्त्री व पुरुष दिए थे जो संतुलन के सूचक थे किन्तु इन दो आधारों में कौन सा श्रेष्ठ है? यह तो इस धरातल पर लड़ी गई जंग है और स्पष्ट तौर पर इस जंग को जीता पुरुषों ने ही है. स्त्रियाँ सदियों से पुरुषों के द्वारा उपेक्षा का दंश झेलती आई हैं, सिमोन ने स्पष्ट किया कि स्त्री को 'अन्या' (Other) की संज्ञा दी जाती रही है कि सृष्टि चलाने के लिए केवल पुरुष बनाया गया तथा जिस प्रकार सूर्य, चंद्रमा, तारे, नदी, वृक्ष इत्यादि उसके सहायक रूप में है, उसी प्रकार स्त्री भी उसके आमोद-प्रमोद का साधन मात्र है. जन्म के समय स्त्री भी एक जीव होती है किन्तु ऐसी कौन सी घटना घटित होती है या कौन से हार्मोन विकसित होते है कि स्त्री कमनीय, लज्जावान, आज्ञाकारिणी बनती चली जाती है तथा पुरुष मजबूत, गर्वित, पराक्रमी, तथा श्रेष्ठ होने का अहम् रखने लगता है. इस दृष्टि से देखा जाए तो सृष्टि ने स्त्री के साथ किया तो अन्याय ही है कि उसे कोमल अंगी बनाया, जो पुरुष के बाहुबल के समक्ष स्वयं को दुर्बल पाती है.



यह पुस्तक स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई है जो एक "स्वाधीन स्त्री का घोषणा-पत्र" है। स्त्री के अस्तित्व एवं उसके स्त्रीत्व के अध्ययन में यह पुस्तक मील का पत्थर है. यह पुस्तक इंडोनेशिया जैसे देशों के लिए एक प्रश्न है जहाँ स्त्री को आज भी नागरिकता के दोयम दर्ज़े में वरीयता दी जाती है. इस पुस्तक में नारीत्व के मुख्यतः तीन आधारों को बताया गया है- दार्शनिक, शैक्षिक तथा जैविक. सिमोन के विचारों में दार्शनिकता अधिक मिलती है निश्चित रूप से इसका कारण अस्तित्ववाद ही है जो मार्क्सवाद और गहरे समाजवाद से प्रेरित है.



सिमोन ने अपने समकालीन पांच प्रसिद्ध लेखकों के नारी दृष्टिकोणों का भी खुलासा किया जिसमें मान्देलान के विचारों में माता रुपी स्त्री भी पुरुष की शत्रु है जो उसे गर्भ के अँधेरे में क़ैद करके रखती है तथा क्लान्दे के विचार से स्त्री केवल दया की पात्र है जो पुरुष के लिए उपयोगी वस्तु है साथ ही संतानोत्पत्ति का मार्ग है. इन लेखकों के अनुसार "पुरुष शुद्ध है तथा स्त्री दूषित है चूँकि ईव ने ही आदम को दूषित किया था." इन लेखकों ने भी अपनी पुरुषप्रधान सत्ता का ही बिगुल बजाया, इनसे इससे अधिक की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी. सिमोन ने स्त्री के प्रति पुरुषों के विचारों को ही नहीं , वरन स्त्रियों के विचार भी रखें. उनके अनुसार स्त्रियों में अपने कष्टों को सह कर इतने अधिक ग्लानि से भरे हुए कुपित भाव आ गए है कि आज के परिप्रेक्ष्य में एक स्त्री ही स्त्री की शत्रु बन गई है. माता, पुत्री की स्वतंत्रता का हनन करती है. कहीं न कहीं वे अपने कष्टों व सही हुई यातनाओं को एक निरंतर चलने वाली परम्परा मान लेती है कि मैने सहा है तो और भी सहे. स्त्री के अधिकारों की रक्षा का सूत्रपात करने की अपेक्षा एक स्त्री से ही की जा सकती थी किन्तु स्त्री का एक स्त्री के प्रति यह दृष्टिकोण निराशाजनक ही प्रतीत होता है. सिमोन ने इस पर भी प्रकाश डाला कि नारी उत्थान के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य समान अधिकारों का वितरण है चाहे वे राजनैतिक, आर्थिक, वैयक्तिक, व सामाजिक किसी भी प्रकार के हो किन्तु इसके लिए भी बहुत शक्ति और साहस जुटाना होगा क्योंकि यदि स्त्रियों को समान अधिकार देना भी चाहे , तो स्त्री सबल नहीं है, वह स्वयं को नीच व तुच्छ समझती है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र) की एक रिपोर्ट के अनुसार- “दुनिया की 98 प्रतिशत पूंजी पर पुरूषों का कब्जा है. पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में अभी औरतों को हजार वर्ष और लगेंगे”. इसके लिए सर्वप्रथम स्त्री के उस स्त्रीत्व को जगाना होगा, जिसे निरंतर कुचला गया. उसे, उसके अस्तित्व का बोध कराना होगा, उसे एक मज़बूत न्याय-व्यवस्था से जोड़ना होगा जो उसके अधिकारों की रक्षा करे. अमूमन घर और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए यौनशोषण के अधिकांश मामले दबाए जाते हैं. यह पुस्तक भी इस सन्दर्भ में न्याय और स्त्री के अन्तःसम्बन्ध पर प्रकाश डालती है- “वर्तमान कानून व्यवस्था नारी को कानूनी सुरक्षा कम देता है, आतंकित, भयभीत और पीडि़त अधिक करता है. जब तक बलात्कार और शोषण के सन्दर्भ में कानून और समाज का दृष्टिकोण और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मानसिकता नहीं बदलती तब तक बलात्कार से पीडि़त नारी स्वयं समाज के कठघरे में खड़ी रहेगी. स्त्रियाँ आखिर कब तक गूँगी, बहरी और अंधी बनी रहेंगी.” स्त्रियों में जागृति, आत्मविश्वास जगाने और अपने अस्तित्व की पहचान कराने में विभिन्न विचारकों एवं लेखिकाओं ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिनमें सिमोन की यह पुस्तक एक बैटन के रूप में काम करती है.



अंत में, कोई भी पुस्तक एक विचार के रूप में पूर्ण नहीं होती किन्तु वह विचारों के आयाम ज़रूर खोलती है. यह पुस्तक हमें उन 'सामान्य' नारियों के प्रति इतिहास का दृष्टिकोण बताती है , जो सदा से उपेक्षित ही रही. इसीलिए इस पुस्तक को स्त्री के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है, जो पुरुष समाज को एक कटघरे में खड़ा करती है, उस कटघरे में जहाँ पर किसी भी प्रकार सत्ता को खड़ा किया जा सकता है. सत्ताएँ हमेशा अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करती हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो अपने लिए उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए अपनी शक्तियों का सदुपयोग करती हैं... अपने लिए। यही कटु सत्य है... पुरुष ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल कुछ इसी तरह किया है. यह पुस्तक आपको झकझोरती है.. एक बार पढने से विचारों को आंदोलित करती है तथा समझ बनाने के लिए दूसरी बार पढ़ने को उत्साहित करती है. मुझे ऐसा लगता है कि यह पुस्तक प्रत्येक स्त्री की सोच के निर्माण में तथा उसको एक दिशा देने में सहायक सिद्ध हो सकती है. अपने अस्तित्व की खोज में निकली स्त्रियों को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए, जिससे वे उस लज्जा का त्याग करके गर्व से कह सके कि मैं एक स्त्री हूँ.....