Wednesday, May 10, 2017

बिरसा काव्यांजलि


अभी हाल ही में मैंने बिरसा मुंडा के जीवन पर लिखी गई , वरिष्ठ लेखक विक्रमादित्य की पुस्तक 'बिरसा काव्यांजलि' पढ़ी, उसे पढ़ते समय ही महाश्वेता देवी के निधन की सूचना भी मिली। यह अनायास नहीं रहा कि एक व्यक्तित्व बिरसा मुंडा पर रचित काव्यांजलि को पढ़ना, जिन्होंने आदिवासियों के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया तो साथ ही दूसरा व्यक्तित्व महाश्वेता देवी को जानना-समझना, जिन्होंने अपनी लेखनी से आदिवासी जन जीवन की दुःख-तकलीफ़ एवं पीड़ा को उकेरा। लंबे समय तक यह परंपरा रही कि कवि किसी की मृत्यु पर कवितांजलि दिया करते थे जो अब नहीं देते। अभी के समय में यह परंपरा नगण्य रूप में नज़र आती है। बिरसा मुंडा पर लिखी विक्रमादित्य की यह पुस्तक उसी दिशा में किया गया एक महत्वपूर्ण एवं सराहनीय प्रयास है।


लेखक विक्रमादित्य इस पुस्तक के लिए दृढ़निश्चयी के रूप में सामने आते है, बिरसा मुंडा को विचार से पुस्तक तक का सफ़र तय करने में लगभग इक्कीस वर्ष का समय लग गया, यह साध्य लेखक की दृढ इच्छाशक्ति का ही परिचायक है। लेखक विक्रमादित्य ने काव्यांजलि के प्रारम्भ में भूमिका में बिरसा मुंडा के जीवन पर भी प्रकाश डाला है। बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्‍व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन 'उलगुलान' को अंजाम दिया। बिरसा भारतीय इतिहास के उन अग्रणी नायकों में से एक हैं जिन्होंने ब्रिटिश शासन की गुलामी और अपने समाज की प्रतिगामी नीतियों के ख़िलाफ़ क्रान्ति का बिगुल बजाया था। वरिष्ठ लेखक विक्रमादित्य ने इस पुस्तक में इन्हीं बिरसा मुंडा के जीवन और संदेशों की गाथा प्रस्तुत की है। ब्रिटिश शासन और दिकुओं, जमींदारों ने आदिवासियों के जीवन को संकट में डाल दिया था। ऐसे में ही बिरसा ने 'उलगुलान'(क्रांति) का ऐलान किया। वह ब्रिटिश दासता के खिलाफ़ संघर्ष के नेता बने। साथ ही सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ़ उन्होंने 'बिरसा धर्म' शुरू किया।

लेखक ने इस पुस्तक में बिरसा के कार्यों पर भी प्रकाश डाला कि बिरसा के इन प्रयासों ने न सिर्फ़ आदिवासियों को सबल-सक्षम बनने की राह दिखाई, बल्कि संसार के किसी भी उत्पीड़ित समाज के लिए प्रेरक बनने की क्षमता इनमें है। बिरसा के प्रेरणास्पद जीवन की गाथा की यह प्रस्तुति बिलकुल प्रासंगिक और प्रशंसनीय है। लेखक ने बिरसा के मन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए पंक्तियाँ लिखी हैं -

"कुछ प्रश्न बहुत छोटे होते/ युग प्रश्न मगर बन जाते हैं।/ देता उत्तर जब युग उनका/ इतिहास बदल जाते हैं।/ ऐसा ही एक प्रश्न छोटा/ बिरसा को उद्वेलित करता/ दिकू क्यों खाते गरम भात/ हमको ही क्यों घाटो मिलता?"

रचनाकार विक्रमादित्य ने इसमें न केवल बिरसा की जीवन कथा दी है, बल्कि आदिवासी समाज में प्रचलित सृष्टि कथा का भी वर्णन किया है। बिरसा मुंडा के जीवन से प्रेरणा लेने की बात करते हुए इस पुस्तक के फ्लैप पर लिखा भी है-

"वनवासियों के सिरमौर वीर बिरसा मुंडा का संघर्षमय प्रेरणाप्रद जीवन सबके लिए अनुकरणीय है। उन्होंने अपने 'युग का प्रश्न' समझा था, उस युग की पीड़ा पहचानी थी और सबसे ऊपर उसने समय की नब्ज पकड़ी थी। एक सच्चा नायक इससे ज्यादा क्या करता है! बिरसा मुंडा के जीवन पर खंडकाव्य के रूप में विनम्र काव्यांजलि है यह पुस्तक।"

लेखक ने एक सराहनीय कार्य इस पुस्तक के माध्यम से यह किया कि बिरसा के जीवन को जानने के क्रम में यह पुस्तक हमें महाश्वेता देवी के द्वारा प्रतिबिंबित आदिवासी जीवन को भी सामने रखती चलती है। 'जंगल के दावेदार' पुस्तक की झलक स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है। खंडकाव्य के रूप में सर्गबद्ध यह 'बिरसा काव्यांजलि' झारखण्ड की संस्कृति एवं जनजीवन को भी प्रतिबिंबित करती चलती है।

यह पुस्तक 19वीं सदी के उस दौर को व्यक्त करती है जब भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा। पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया। सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। ये सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए।


दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। आदिवासियों ने 'बेगारी प्रथा' के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया। 


तीसरा था राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए। 


लेखक विक्रमादित्य ने कई स्रोतों से जानकारी एवं सामग्री जुटाकर बिरसा के विषय में कई दुर्लभ तथ्य प्रस्तुत किए। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा मुंडा को पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद के रूप में देखा जाने लगा था।

अंत में यही कि यह पुस्तक लेखक विक्रमादित्य के लम्बे अनुभवों एवं अनुसंधानों-शोध का परिणाम है जिसमें मूल तथ्यों को काव्य के रूप में प्रस्तुत करना अपने आप में एक साहसिक कार्य है। बिरसा को जान्ने समझने के क्रम में यह पुस्तक पठनीय है। इस रूप में भी यह पुस्तक तथ्यों की कसौटी पर रची-बसी हुई कविताई है जिसमें बिरसा की पीड़ाएँ, आदिवासियों की पीड़ाएँ व्यक्त की गयी हैं। लेखक ने लिखा भी है- "कविता कविता होती है, यथार्थ से भागती सी, फिर भी यथार्थ की ज्वाला में जलकर ही मुक्ति पाती हुई..!



पुस्तक का नाम- बिरसा काव्यांजलि
लेखक- विक्रमादित्य
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 250/-

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