Wednesday, November 26, 2014

मेरी प्रिय कथाएं: स्वयं प्रकाश




बचपन में जब हम दादी-नानी से राजा-रानी, परियों, तोता-मैना की कहानियाँ सुनते थे तो जीवन कैसा रोमांच से भर जाता था। वे स्वप्निल-सी काल्पनिक कहानियाँ जीवन को तिलिस्म से भर देती थी। पर धीरे-धीरे उसी बालक-मन का तरुण होते-होते एक नई ही दुनिया से परिचय होता है जहाँ केवल विद्रूपताएँ हैं, व्यवस्था के कुचक्र हैं किन्तु बचपन की उन कथाओं की छाप उसके मन पर इतनी गहरी होती है कि वह इस व्यवस्था से लड़ने के लिए भी एक ऐसे ही चरित्र को गढ़ता है आह्वान करता है जो जादू की छड़ी लेकर आएगा और पल में सब कुछ ठीक कर देगा। इतनी सरलता से किस्सों के रूप में सुनी वे लोककथाएँ उसके मानसपटल को सदा के लिए प्रभावित कर जाती हैं। पिछले कुछ समय में लोककथाओं के प्रति उदासीनता बरती गई। साहित्य में इसपर लगभग न के बराबर लिखा गया। पिछले दिनों प्रसिद्ध कथाकार स्वयं प्रकाश का कहानी-संग्रह 'मेरी प्रिय कथाएँ' प्रकाशित हुआ जिसे पढ़कर मन उतनी ही सरलता और तरलता से भर गया जितना अपनी दादी से सुनी कथाओं में चाव-उत्साह-आनंद आता था। लोककथात्मक शैली में लिखी गई ये कथाएँ अपने कहन में विशिष्ठ है जो मन को सरस करने के साथ-साथ गंभीर सवाल भी छोड़ती हैं।






कहा जाता है कि - "कौन लेखक कितना बड़ा है इसकी पहचान सबसे पहले इस बात से ही होती है कि उसकी दुनिया कितनी बड़ी है। उसके लेखन के दायरे में मनुष्य और उसकी दुनिया का कितना बड़ा हिस्सा चित्रित हुआ है।" उस दृष्टि से स्वयं प्रकाश बड़े लेखक ठहरते है इस कथा-संग्रह में बारह लोककथात्मक कहानियाँ मिथक तत्व को धारण किये हुए भी यथार्थ को प्रकट कर पाठक से किस्सागोई के अंदाज़ में संवाद स्थापित करती हैं। लोककथा के शिल्प को आत्मसात कर कथाकार ने अनेक युगीन समस्याओं जातिवाद, लाल फीताशाही, आदिवासी संस्कृति, बेरोजगारी, विस्थापन, स्त्री-आत्मनिर्भरता से लेकर स्त्री-मुक्ति से जुडी अनेक समस्याओं का चित्रण किया हैं। लोककथात्मक शैली होने के साथ-साथ इन कथाओं के पात्र आज के आधुनिक परिवेश और परिस्थितियों में ढले हुए हैं। इस आधुनिक परिवेश पर कथाकार स्वयं प्रकाश पुस्तक की भूमिका में लिखते भी हैं- "तो बहुत मोहब्बत के साथ पाठकों के समक्ष अपने समय की आधुनिक लोककथाओं की एक बानगी हाज़िर करता हूँ।"






इस पुस्तक में लोककथात्मक पद्धति में लिखी गई स्वयं प्रकाश की पहली ही कहानी- ‘जंगल का दाह’ है जो पढ़ने में भी सुनने का-सा आनंद देती है। धनुर्धर मामा सोन की प्रसिद्धि सुनकर राजकुमार का शिक्षा के लिए उनके पास आना, अभ्यास में सफल न होने पर मामा सोन को मारने की कोशिश करना जिससे उस विद्या का लाभ कोई और न उठा सके, मामा सोन, शिष्यों और वन के पशु-पक्षियों द्वारा मिल कर सैनिकों को खदेड़ना, और जाते-जाते उनके द्वारा जंगल में आग लगाना केवल कथा के क्रम को ही आगे नहीं बढ़ाते बल्कि मामा सोन के माध्यम से आदिवासी संस्कृति के लुप्त होते जाने की व्यथा को भी प्रकट करते हैं। इस कथा का मुख्य पात्र ‘मामा सोन’ सम्पूर्ण आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है। जहाँ कथा के अंत का संवाद महत्वपूर्ण है- "अफसोस कि न मामा सोन को बचाया जा सका न उनकी धनुर्विद्या को। जो वहाँ बचा वह बस राख ही राख थी। ...आज मामा सोन के वंशज शहर में बांस की टोकरियाँ, तार के छींके और गत्ते के तोते-चिड़ियाँ आदि बनाकर बेच रहे हैं। सुना है उनके इलाके में कोई बड़ा बाँध बन रहा है जिससे देश की बड़ी तरक्की होगीं। ...सुना है... मामा सोन के वंशजों और शिष्यों को जंगल से हकाल दिया गया है।" यह कहानी हमारी विकासशील सभ्यता की बर्बरता को सामने लाती है।






एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं। साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है। यह पूरी पुस्तक एक चिंतनशील विचारवान कथाकार के सरोकारों का जीवंत दस्तावेज़ है। 'उज्ज्वल भविष्य' भी एक ऐसी ही कथा है जो बेरोजगारी में व्यक्ति की मानसिक उलझनों को प्रकट करती है। इसमें एक संवाद आता है कि - "काबिल आदमी अच्छा काम कर सकता है, पर होशियार आदमी के मुकाबले में आता है तो बौखला जाता है और हार जाता है। होशियार आदमी चाहे उतना काबिल न हो, काबिल लोगों से अपना काम निकलवाना जानता है।" इस समय के यथार्थ के आईने में आदर्श जब भरभराकर टूटने को विवश हो रहे हैं और जब लड़का अपनी ईमानदारी की कसमें खाता है तो मालिक का यह कहना- "अब तक तुम मुझे हँसा रहे थे, पर अब तो तुम मुझे डरा रहे हो। मैंने इतने साल में जो एंपायर खड़ी की है, उसे एक ईमानदार आदमी पर भरोसा करके मिट्टी में मिल जाने दूँ? ...आज तो इंडस्ट्री को ऐसे यंगस्टर्स चाहिए जो बेईमानी से काम करने में कुशल हो।... अचानक लड़का उठ खड़ा हुआ..., 'सर! मैं सक्सेसफुल बनूँगा। मैं बेईमान बनूँगा! बहुत बड़ा बेईमान..." उसका यह जवाब इस व्यवस्था और उससे पनपी बेरोजगारी की प्रताड़ना पर करारा तमाचा है जहाँ व्यक्ति को मूल्यों और आदर्शों से विमुख होने को विवश किया जा रहा है।






‘प्रतीक्षा’ इस कहानी-संग्रह की उल्लेखनीय एवं एक लम्बी कहानी है। कथाकार स्वयं प्रकाश की यह कहानी पिछली सदी के आखिरी दौर में युवा वर्ग की हताशा से पनपी प्रतीक्षारत बने रहने की नियति को प्रकट करती है साथ ही शिक्षा तंत्र का कितना ह्रास हो चुका है को प्रकट करती है। जिसमें आर्थिक उदारीकरण के साथ बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त शिक्षित युवा वर्ग भविष्य की प्रतीक्षा करने के लिए तो विवश है ही, जीविका के अभाव के कारण और साथ ही सामाजिक रूढ़िवाद के चलते युवक-युवती का प्रेम भी एक अंतहीन प्रतीक्षा में बदल जाता है। कहानी में कॉलेज शिक्षा और खासकर हिंदी शिक्षण में व्याप्त जड़ता और भ्रष्टता को भी उजागर किया गया है। 'बिछुड़ने से पहले' कहानी बेहद आत्मीय-सी लगी जो हमें हमारी जड़ों से दूर होते जाने के अहसास से भर देती है। मानवीकरण के माध्यम से खेत व पगडंडी की बातचीत ग्रामीण स्त्री-पुरुष की तरह दिखाई गई है जिसमें पगडंडी की जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है और दोनों इस पर विकास और बदलाव की सार्थकता पर बातचीत कर रहे हैं - "एक दिन खेत ने पगडंडी से कहा - सुना तेरी जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है पक्की? चालीस फुट चौड़ी? डिवाइडर वाली? ...आज तक किसी सड़क ने खेत से दोस्ती की है जो मेरे से करेगी? ...दिल को कौन पूछता है मितवा! विकास तो होके रहेगा। पगडंडी ने उसांस छोड़ी। दोनों चुपचाप रोने लगे।" यह संवाद भूमि अधिग्रहण क़ानून के कागज़ी पुर्ज़ों पर सवालिया निशान लगाता है।






कथाकार स्वयं प्रकाश की कहानी 'मंजू फालतू’ योग्यता-प्राप्त नई लड़की की कहानी है। वह समर्थ है किन्तु फिर भी जीवन की जटिलताएँ उसे घेरे हैं। वह नौकरी और मातृत्व के बीच खटती नज़र आती है। मंजू की कहानी पुरुष वर्चस्व की घिसी-पिटी कहानी नहीं है, वह जो भी निर्णय लेती है अपनी इच्छा से लेती है। फिर भी शादी के बाद उसे अपने भीतर के द्वंद्व से गुज़रना पड़ता है- "लेकिन नितिन का घर? तो क्या यह उसका घर नहीं? यह घर उसने नहीं बनाया। रेडीमेड कपड़े या खाने जैसा है। उसे मिल गया है। फिट भी नहीं है। कहीं से ढीला है कहीं फंसता है। अल्टर करने का टाइम भी नहीं है। करेगी कभी टाइम मिला तो।’’ शादी के बाद बच्चे और फिर गृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही में अपने ही द्वारा हासिल मुकाम का त्याग भी करती है। बच्चों के कुछ बड़ा होने के बाद फिर से नौकरी करनी चाही तो पाया कि ज्ञान और तकनीक के नए होते उसकी योग्यता क्षेत्र में अब एप्लीकेशन के कॉलम में उसके पास ‘फालतू’ लिखने के अलावा कुछ नहीं बचा है। लेखक ने मंजू को न एक नाराज औरत बनाया है और न दयनीय। बस इस सामाजिक ताने-बाने में उसके उलझाव को प्रस्तुत किया है।






कथाकार स्वयंप्रकाश की इन कथाओं में पर्याप्त वैविध्य मौजूद हैं। 'नाचनेवाली कहानी' में लचर सरकारी तंत्र और नौकरशाही की जड़ता पर निशाना साधा गया है तो 'बाबूलाल तेली की नाक' में जातिवाद पर प्रहार किया गया है। और 'गौरी का गुस्सा' कहानी में उपभोक्तावाद के दौर में चारों तरफ दौड़ती मानवीय लालसाओं को केन्द्र में रखा गया है। जो शिव-पार्वती की मिथकीय छवि के माध्यम से उजागर होती हैं। 'हत्या-1' कहानी में लेखक ने मानवेतर जीवों की पीड़ा को अनुभव किया है जो उनकी गहरी संवेदनशीलता का परिचायक है। कथा में यह पंक्ति- "जंगल के राजा! तुम्हें इन लोगों के हाथ फँसकर शहर नहीं आना चाहिए था!" समाज के ऐसे आदमियों पर कटाक्ष करती है जो अपने लाभ के लिए दूसरों को नृशंसता के स्तर तक उतर कर हानि पहुंचा रहे हैं। जो एक स्थान पर पीड़ित है वही दूसरे स्थान पर शोषक भी है। मध्य वर्ग के इस दोहरे चरित्र को लेखक ने बखूबी प्रस्तुत किया है।






पुस्तक को पढ़कर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कथाकार स्वयं प्रकाश लीक बदल रहे हैं। उन्होंने लोककथा-परंपरा से प्रेरणा लेकर कहानियां लिखीं जो उनका अपनी जड़ों के प्रति प्रेम का सूचक है। उनकी इस पुस्तक को पठनीय इसकी अद्भुत रूप से सरल और प्रभावशाली भाषा बनाती है जो भाषिक आडम्बरों से मुक्त है। ये इस आधुनिक परिवेश में नए कलेवर में लिखी गई कथाएं हैं।










पुस्तक: मेरी प्रिय कथाएं (कहानी-संग्रह)


लेखक: : स्वयं प्रकाश


प्रकाशक: ज्योतिपर्व प्रकाशन


99, ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम,गाजियाबाद


मूल्य-


अनुपमा शर्मा -- anupamasharma89@gmail.com

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