Sunday, September 27, 2015

सिर्फ़ एक आवाज़

प्रेमचन्द 
वैचारिकी के स्तर पर देखा जाए तो आज की पैर तले की ज़मीन, जिस पर हम खड़े हैं, उसकी उर्वरा को मापने के लिए पीछे मुड़कर झाँकना ज़रूरी हो जाता है कि हमने अपनी यात्रा कहाँ से शुरू की थी, क्या उसकी बंज़र और उर्वरा के प्रतिशत में कुछ घटा-बढ़ा है। पिछले दिनों आलोचक राजीव रंजन गिरी के सम्पादन में आया कहानी संकलन 'सिर्फ़ एक आवाज़: प्रेमचंद रचित दलित जीवन की कहानियाँ' भी आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा ही प्रयास करता संकलन है. एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं। साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है। बीसवीं शताब्दी के साहित्य का विशेष महत्व इसलिए भी है कि कुलीनता और अभिजात्य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य की पीड़ा-दर्द को समझने की चेष्टा की , साथ ही अस्मिताओं के लिए किए गए संघर्ष को भी अपने साहित्य का प्रतिपाद्य बनाया। प्रेमचंद ने वर्षों पहले कहा था कि कोई भी समाज तब तक विकास या प्रगति नहीं कर सकता जब तक उस समाज के किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की दशा नहीं सुधरती। उन्हें मनुष्य नहीं माना जाता, प्रेमचंद के इस कहन के अरसे बाद भी स्थिति यह है कि हाशिए की पट्टी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है. मुक्ति की चाह लिए हुए समाज का यह हिस्सा आज भी शोषण-अन्याय से पीड़ित है. 


राजीव रंजन गिरी ने इस पुस्तक में प्रेमचंद रचित दलित जीवन से जुडी सोलह कहानियों का संकलन किया है जिसमें प्रेमचंद की दलित जीवन से जुडी पहली कहानी  'दोनों तरफ से' से लेकर अंतिम कहानी 'जुरमाना' तक सम्मिलित की गयी है। इन कहानियों को प्रकाशन वर्ष के क्रम में ही रखा गया है. संपादक का यह प्रयास इसलिए भी सराहनीय है चूँकि इससे प्रेमचंद की दलित दृष्टि के  विकास का भी पता चलता है। ये कहानियाँ कई नए आयाम भी खोलती चलती है जो कहानी  एवं इसके पात्रों को सामाजिक एवं राजनीतिक संरचना के बीच रख कर देखती है. ये कहानियाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की दिशा में भी एक सराहनीय प्रयास है.  इस संकलन की प्रस्तावना लिखते हुए राजीव रंजन गिरि ने प्रेमचंद के दौर की स्थितियों को राजनीतिक स्तर पर विश्लेषित किया है. एक ओर जहाँ भारतीय समाज औपनिवेशिक गुलामी से त्रस्त था वहीं दूसरी ओर भारतीय शोषणमूलक संरचना जाति-व्यवस्था और उसके भीतर दलितों की पराधीनता भारतीय समाज को आतंरिक रूप से गुलाम बना रही थी. आलोचक राजीव रंजन गिरी ने इन कहानियों में प्रेमचंद की दलित जीवन को देखने की दृष्टि के विकास को उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में गांधी एवं डॉ अम्बेडकर की दलित शोषण एवं जाति व्यवस्था के विरुद्ध सक्रियता के सापेक्ष रखकर देखने का प्रयास किया है. इस पुस्तक के संपादक ने कहा भी है कि- "प्रेमचंद के ज्यादातर दलित सवाल और दलित जीवन से जुड़ी हुई रचनाएँ डॉ अम्बेडकर की अपेक्षा गाँधीजी  के विचारों के करीब हैं." भले ही संपादक ने अध्ययन-विश्लेषण करते हुए प्रेमचंद को अम्बेडकर के बरअक्स गांधी से अधिक निकट एवं प्रभावित पाया हो किन्तु उसने साथ ही यह भी कहा है कि "डॉ अम्बेडकर ने पहली बार जाति-प्रथा को छुआछूत से जोड़ा। इन्होने  छुआछूत के सवाल को दलितों का राजनीतिक सवाल बनाया।." गौरतलब है कि भारत में जाति-व्यवस्था के विरुद्ध दलितों के जागरण के लिए विचार और आंदोलन के स्तर पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयत्न  डॉ अम्बेडकर ने किया था। प्रेमचंद की नज़र आंबेडकर के आंदोलन पर भी थी।  1927 में अम्बेडकर ने जातिवादी भेदभाव के विरुद्ध पहला जन-आंदोलन खड़ा किया था, ध्यातव्य हो कि प्रेमचंद के 1927 के बाद के  कथा-साहित्य में दलित समस्या की उपस्थिति बराबर बनी रही और निरन्तर बढ़ती गई। 

प्रेमचंद ने कहीं न कहीं अम्बेडकर के आंदोलन से प्रेरणा लेकर 'ठाकुर का कुआँ' नाम की महत्वपूर्ण कहानी लिखी। इसके साथ ही 'सद्गति' और 'दूध का दाम' जैसी कहानियों में दलितों के दारुण शोषण और दमन का बखूबी चित्रण किया।  प्रेमचंद की दलित जीवन और सवालों से जुड़ी जिन कहानियों को शिद्दत से याद किया जाता है, वे सभी भारतीय राजनीति में डॉ अम्बेडकर की सक्रियता के बाद की हैं. दलित सवालों पर केंद्रित प्रेमचंद की चार बेहद  महत्वपूर्ण कहानियाँ मन्दिर, सद्गति, ठाकुर का कुआँ, और दूध का दाम हैं. दलित जीवन से संबंधित प्रेमचंद की इन सभी रचनाओं में दो बातें समान हैं- दलित पात्रों की आर्थिक और सामाजिक बदहाली। बकौल संपादक इनकी आर्थिक बदहाली इस सामाजिक व्यवस्था की अनिवार्य परिणति  है।  आर्थिक और सामाजिक बदहाली का अनिवार्य रिश्ता है।  प्रेमचंद के पात्र इन दोनों शोषण के शिकार हैं।  दोनों से निकले बिना इनकी हालत में सुधार सम्भव नहीं है। 

राजीव रंजन गिरि 
संपादक राजीव रंजन गिरि ने इसी क्रम में यह भी कहा है कि "प्रेमचंद के दलित पात्रों का वैचारिक विकास हुआ है।" यदि देखा जाए तो प्रेमचंद की शुरूआती कहानियों में दलित जीवन को एक समस्या या मुद्दे के रूप में उठाया गया है जो कहीं न कहीं रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य की कड़ी में जुड़ता आर्य समाज सुधार से पोषित नज़र आता है परन्तु धीरे-धीरे प्रेमचंद के पात्र अपने साथ हो रहे अन्याय और शोषण की शिनाख़्त करते हैं और अंत तक आते आते प्रतिरोध दर्ज़ कराना सीख जाते हैं. विकास का यही क्रम होता है कि कोई भी व्यक्ति अन्याय एवं शोषण केवल तभी तक सहन कर सकता है जब तक उसकी चेतना इसकी पहचान और संज्ञान न कर ले। जहाँ प्रेमचंद की शुरूआती कहानी 'सिर्फ एक आवाज़', जो पुस्तक का शीर्षक भी है, में संन्यासी गैर दलित समाज से अपील करता है- "जिन लोगों की छाया से हम बचते आये हैं, जिन्हे हमने जानवरों से भी ज़लील समझ रखा है.. क्या यह मुमकिन नहीं कि आप उनके साथ सामान्य सहानुभूति. सामान्य मनुष्यता, सामान्य सदाचार से पेश आएं। " संन्यासी का यह बोलना सवर्ण समाज से सहमति नहीं पा पाता। इसी प्रकार 'सद्गति' कहानी में दुःखी का चरित्र इन शोषणमूलक मान्यताओं को स्वीकार कर चुका है कि वह अन्याय और शोषण सहने के लिए अभिशप्त ही है पर 'मन्दिर' की सुखिया मंदिर में घुसने के लिए चोरी-छुपे प्रतिरोध करती है। ये कहानियाँ गैर दलितों की अमानवीयता, क्रूरता एवं शोषण की अनवरत चली आ रही परम्परा को तो उघाड़ती ही हैं साथ ही दलितों के मन में मुक्ति की छटपटाहट को भी व्यक्त करती हैं। इस कहानी को आज के इन सन्दर्भों में भी देखा जाना चाहिए कि दशकों बाद आज भी किसी दलित के मंदिर में प्रवेश के बाद मंदिर को धोने की घटनाएं सामने आती है, दलितों पर अत्याचार के कई उदाहरण पिछले वर्षों में सामने आये हैं. ऐसे में यह सोचना ज़रूरी हो जाता है कि क्या हम इतने सालों बाद भी उसी दरकी हुई ज़मीन पर ही नहीं खड़े हैं, धर्म के नाम पर यह ढोंग और शोषण कब तक चलता रहेगा। 

संपादक ने यह भी दर्शाने का प्रयास किया है कि प्रेमचंद की दलित दृष्टि के विकास के क्रम में उनकी कहानियों की नई पीढ़ी के दलित पात्र शोषण को समझते हैं।  वे 'सद्गति' के दुखी की तर्ज़ पर इन मान्यताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।  'दूध का दाम' का मंगल हर बार घोडा बनने को तैयार नहीं है। वह तथाकथित कुलीन तंत्र के पाखण्ड और अवसरवाद को भली प्रकार समझता है। इनकी अन्य कहानियों में 'मन्त्र’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘लांछन’, 'सौभाग्य के कोड़े', घासवाली ऐसी ही कहानियाँ है जिनसे पता चलता है कि प्रेमचंद दलित आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान देते हैं। 'जुरमाना` में गरीब श्रमिक के रूप में दलितों के शोषण एवं वर्गीय शोषण से मुक्ति को दलित समस्या एवं सवाल के रूप में सामने लाते हैं। यहां दलितों का अपनी स्थिति में बदलाव के लिए किया गया प्रयास प्रेमचंद के लिए विशेष महत्व का विषय रहा।  वे इनके माध्यम से स्वतंत्रता  और सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार समाज के बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न बनाते हैं। संपादक का यह मत उचित है कि 'प्रेमचंद की इन कहानियों में जो दलित पात्र हैं, उनमें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ  ज्यादा साहसी एवं जुझारू हैं।` इसकी व्याख्या संपादक शोषण की सीमा और प्रतिरोध की चेतना के बीच सीधा संबंध मानकर करते हैं चूँकि स्त्रियाँ हर दिशा से शोषण की शिकार बनाई जा रही थी ऐसे में 'घासवाली' की मुलिया का प्रतिरोध एक सशक्त एवं चुनौतीपूर्ण ढंग़ से स्वतंत्र व सम्मानपूर्ण जीवन जीने की क़वायद में था। 

 प्रेमचंद की दलित दृष्टि 'कफ़न' कहानी में चरम पर दिखती है जिसमें घीसू और माधव के चरित्र एक अलग ही किस्म की चेतना से संचालित दिखाए गए हैं. इस कहानी के लिए आलोचकों ने  प्रेमचंद पर बियॉन्ड द टेक्स्ट जाकर आरोप-प्रत्यारोप भी किए। जबकि घीसू माधव की बुधिया के प्रति यह असंवेदनशीलता और अवहेलना प्रेमचंद की सामन्ती दृष्टि को नहीं बल्कि सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था के खोट को ही पुष्ट करती है जो वर्चस्व की इस राजनीति का विरोध करने की प्रक्रिया में कहीं न कहीं दलित स्त्री विमर्श की दृष्टि भी पैदा करती है। संपादक ने भी यह कहा है कि घीसू और माधव की स्थिति में कोई भी, किसी भी जाति का व्यक्ति होता, वह यही करता जो इन दोनों ने किया। यह अवहेलना दरअसल प्रतिरोध का ही एक रूप है जो पंडित, जमींदार, भगवान सबके नियंत्रण को अस्वीकार करते हुए चुनौती देते है तभी तो प्रेमचंद इन पात्रों से यह भी कहलवाते हैं- "कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते-जी तन ढाँकने को चिथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।"  


बहरहाल यह कहा जा सकता है कि संपादक राजीव रंजन गिरि  का यह प्रयास प्रेमचंद की दलित दृष्टि को समझने की दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। इस विडम्बनापूर्ण समय और समाज में प्रेमचंद की दलित जीवन से जुडी कहानियों की प्रासंगिकता बढ़ गई है। ये सभी कहानियाँ जिस उम्मीद और स्वप्न के साथ लिखी गई हैं वह है- इन्सान को इन्सान समझे जाने की उम्मीद और शोषण से मुक्त एक समतामूलक समाज के निर्माण का स्वप्न साकार होने की उम्मीद।


पुस्तक- सिर्फ़ एक आवाज़ (प्रेमचंद रचित दलित जीवन की कहानियां)
संपादक- राजीव रंजन गिरि 
गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति 

मूल्य- 100/-

No comments:

Post a Comment