Tuesday, May 5, 2015

सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में स्वयं प्रकाश की कहानियाँ



साहित्य की रचना एक जटिल प्रक्रिया भले ही हो पर इतनी भी नहीं कि उस पर कुछ कहा ही न जा सके। साहित्य-रचना में समय बुनियादी महत्त्व रखता है। रचनाकार एक सफल और सार्थक रचना तभी दे पाता है जब वह अपने मौज़ूदा समय और उसके सरोकारों को उसमें उकेर सके। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ भारतीय जीवन के हर्ष-विषाद, उथल-पुथल और मामूली समझी जाने वाली स्थितियों का सटीक विश्लेषण करती हैं जो जीवन सत्य की उन घटनाओं और परिस्थितियों को उदघाटित करती चलती हैं जिनका केंद्र सामान्य जन और उसका जीवन-संघर्ष है। स्वयं प्रकाश पिछले चालीस वर्षों से लिख रहे हैं। उनकी कहानियाँ यथार्थ को उसकी पूर्णता और कटुता के साथ प्रस्तुत करती हैं। उनकी इसी विशिष्टता के कारण उन्हें प्रेमचंद की परम्परा का महत्वपूर्ण कथाकार कहा गया किन्तु वे स्वयं कहते हैं कि - "कहानी की दुनिया में मैं प्रेमचंद को पढ़कर नहीं, चेखव को पढ़कर आया था।" [1] यदि गहरे स्तर पर देखा जाए तो स्वयं प्रकाश चेखव की कहानियों के समान ही वातावरण की सृष्टि करते हैं जिसमें प्रवेश करते ही पाठक खुद-बखुद सब समझने लगता है।



कौन लेखक कितना बड़ा है इसकी पहचान सबसे पहले इस बात से ही होती है कि उसकी दुनिया कितनी बड़ी है। उसके लेखन के दायरे में मनुष्य और उसकी दुनिया का कितना बड़ा हिस्सा चित्रित हुआ है. उस दृष्टि से स्वयं प्रकाश बड़े लेखक ठहरते हैं. वे अपनी कहानियों में अनेक युगीन समस्याओं का वर्णन करते हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध आमजन और उसकी बेहतरी की इच्छा से है. स्वयं प्रकाश कहानी में किस्सागोई के बहाने ही गहरी चिंताएँ प्रकट करते हैं। कहानी 'बिछुड़ने से पहले' में उन्होंने अपनी पर्यावरण के प्रति जागरूकता और चिंता दोनों को प्रकट किया है जिसमें उन्होंने मुनाफे के लिए पृथ्वी को, उसके पर्यावरण को नष्ट करने की प्रवृति को उघाड़ा है. यह कहानी हमें हमारी जड़ों से दूर होते जाने की ओर संकेत करती है और यदि जड़ें ही न हो तो हवाएँ बरगद तक को बहा ले जाये. मानवीकरण के माध्यम से खेत व पगडंडी की बातचीत ग्रामीण स्त्री-पुरुष की तरह दिखाई गई है जिसमें पगडंडी की जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है और दोनों इस पर विकास और बदलाव की सार्थकता पर बातचीत कर रहे हैं - "एक दिन खेत ने पगडंडी से कहा - सुना तेरी जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है पक्की? चालीस फुट चौड़ी? डिवाइडर वाली? ...आज तक किसी सड़क ने खेत से दोस्ती की है जो मेरे से करेगी? ...दिल को कौन पूछता है मितवा! विकास तो होके रहेगा। पगडंडी ने उसांस छोड़ी। दोनों चुपचाप रोने लगे।" यह संवाद भूमि अधिग्रहण क़ानून के कागज़ी पुर्ज़ों पर सवालिया निशान लगाता है। सन 2013 में भूमि अधिग्रहण विधेयक जिसका नाम बदलकर उचित मुआवजा तथा भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास, पुनर्स्थापन में पारदर्शिता का अधिकार विधेयक रखा गया, उसे 29 अगस्त 2013 को लोकसभा तथा 04 सितम्बर 2013 को राज्यसभा में संशोधनों के साथ पारित कर दिया गया.[2] यह कानून अंग्रेजी शासन के दौरान 1894 में लागू करीब 120 साल पुराने कानून का स्थान लेगा। लेकिन सड़क मार्गों के लिए ली जाने वाली उपजाऊ भूमि का उपाय तो इसमें भी कहीं नहीं है। सरकार अपने हाथ सदा खुले रखती है. इस भूमि पर सरकार द्वारा उसके स्वयं के लाभ, नियंत्रण, सार्वजनिक-निजी भागीदारी परियोजनाएं शामिल हैं लेकिन राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर राजमार्ग परियोजनाएं सम्मिलित नहीं है, साथ ही जनता के भविष्य की चिंता की आड़ में उपजाऊ भूमि का निजी कंपनियों को हस्तांतरण करना भी इस अध्यादेश का हिस्सा है। पगडंडी का लोप इस बात की पूर्व सूचना है कि खेत के अस्तित्व का भी अंत अब निकट भविष्य में ही निर्धारित है। यह विवशता दोनों अनुभव करते हैं, दोनों कमजोर हैं यानी उनसे संबंधित किसान। और जो बचा है, वह है- विकास के बावजूद उनकी वीरान और उजाड़ होती जिंदगी। अभी वर्तमान में चल रहा अन्ना आन्दोलन भी सत्ता और कॉर्पोरेट के इसी गठजोड़ की कलई खोल रहा है जहाँ किसानों के हितो को पूरी तरह से दरकिनार कर बाज़ार को केंद्र में लाया जा रहा है.


स्वयं प्रकाश की कहानियाँ कई बार पढने में जितनी सरलता का बोध कराती है उतनी ही ज्यादा वे भीतर झकझोरती हैं. वे पाठक से अपने समय और समाज की अभिज्ञता की मांग करती हैं। उनकी कहानी- ‘जंगल का दाह’ है जो पढ़ने में भी सुनने का-सा आनंद देती है। यह कहानी लोककथात्मक शैली में लिखी होने के साथ-साथ इसके पात्र आज के आधुनिक परिवेश और परिस्थितियों में ढले हुए हैं। धनुर्धर मामा सोन की प्रसिद्धि सुनकर राजकुमार का शिक्षा के लिए उनके पास आना, अभ्यास में सफल न होने पर मामा सोन को मारने की कोशिश करना जिससे उस विद्या का लाभ कोई और न उठा सके, मामा सोन, शिष्यों और वन के पशु-पक्षियों द्वारा मिल कर सैनिकों को खदेड़ना, और जाते-जाते उनके द्वारा जंगल में आग लगाना केवल कथा के क्रम को ही आगे नहीं बढ़ाते बल्कि मामा सोन के माध्यम से आदिवासी संस्कृति के लुप्त होते जाने की व्यथा को भी प्रकट करते हैं. किसी के हुनर को जब सत्ता चाहने लगती है तो वह मानती है कि जो अपना नहीं हो सकता वो दूसरे का भी नहीं हो सकता। सत्ता के इस रूप को इस कहानी में दिखाया गया है जो विस्थापन संबंधी वर्तमान संदर्भों से सम्पृक्त होकर इसे न केवल प्रासंगिक बनाता है वरन् एक लोककथा की शैली में कही जाने के कारण इसके कथ्य को सर्वकालिक भी बना देता है।[3] इस कथा का मुख्य पात्र ‘मामा सोन’ सम्पूर्ण आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है। स्वयं प्रकाश कहानी का यहीं अंत नहीं करते, अपितु उसे आगे ले जाते है और कहानी को आज के सत्ता वर्ग के द्वारा आदिवासियों को उजाड़ने की संकेत-कथा बना देते है। कथा के अंत का संवाद महत्वपूर्ण है- "अफसोस कि न मामा सोन को बचाया जा सका न उनकी धनुर्विद्या को। जो वहाँ बचा वह बस राख ही राख थी। ...आज मामा सोन के वंशज शहर में बांस की टोकरियाँ, तार के छींके और गत्ते के तोते-चिड़ियाँ आदि बनाकर बेच रहे हैं। सुना है उनके इलाके में कोई बड़ा बाँध बन रहा है जिससे देश की बड़ी तरक्की होगीं। ...सुना है... मामा सोन के वंशजों और शिष्यों को जंगल से हकाल दिया गया है।" यह कहानी हमारी विकासशील सभ्यता की बर्बरता को सामने लाती है। यह लेखकीय हस्तक्षेप कहानी को अन्याय के इतिहास क्रम में रखते हुए उसे समकालीन राजनीतिक यथार्थ का एक पाठ बना देता है।


स्वयं प्रकाश अपने समय और समाज की तमाम तरह की विद्रूपताओं से पर्दा हटाते चलते है. 'उल्टा पहाड़' साम्प्रदायिकता को एक नितान्त अलग कोण से देखती है। जिसमें सुमेर सिंह गहलोत का सुरूर साहब बनने का सफ़र जीवन की परतें खोलता चलता है। सुमेर सिंह के सुरूर साहब बनने से जहाँ मालियों को उनपर गर्व है तो शायरी की दुनिया का बड़ा नाम बनने पर मुस्लिम समाज उन्हें मुसलमान समझने लगता है, यहाँ यदि देखा जाए तो उर्दू को जातीय गर्व व इस पूर्वग्रह से देखना भी परिलक्षित होता है कि इस पर धर्म विशेष का ही एकाधिकार है। हालाँकि सुरूर साहब ने भी लोगों की यह ग़लतफ़हमी दूर करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया और इस पूरे प्रपंच का अंत इस रूप में होता है कि सुमेर सिंह गहलोत उर्फ़ सुरूर साहब को भुला दिया जाता है। अंत में सांखल साहब और सुरूर साहब की बातचीत का यह संवाद जो सुरूर साहब के द्वारा व्यक्त की गई पीड़ा को प्रकट करता है- "और वैसे भी उनके ज़ेहन पर जड़े खिड़की-दरवाज़ों के चौखट इतनी सख़्ती और पाबन्दी से सील हो चुके हैं कि उन्हें कोई नहीं खोल सकता। सिवाय वक़्त की ठोकरों के। और मैं वक़्त नहीं हूँ साहब। वक़्त के हाथों मारा एक इंसान हूँ।" यहाँ यह भी सोचना ज़रूरी हो जाता है कि जिन सुरूर साहब को भुला दिया गया वह एक पहाड़ के समान वज़ूद वाला व्यक्ति एक दलदल भरी खाई में बदल गया। इसके लिए कौन उत्तरदायी है- यह व्यवस्था, यहाँ का समाज और उसका धर्म या हम स्वयं। यह लेखक की साम्प्रदायिकता पर अकेली कहानी नहीं है बल्कि स्वयं प्रकाश ने साम्प्रदायिकता पर कई कहानियाँ लिखी, लेकिन प्रत्येक एक भिन्न दृष्टिकोण से. ‘पार्टीशन’ भी उनकी एक ऐसी ही कहानी है जो पूरी तरह से दंगो की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी नहीं है किन्तु इस विषय पर लिखी एक बेजोड़ कहानी है जिस पर बाद में टेलीफिल्म भी बनी. बहुत ऊपरी अर्थों में यह कहानी कुर्बान भाई के फिर से मस्जिद जाने की कहानी है. कुर्बान भाई लाखों ऐसे मुसलमानों की तरह भारत में रह गया मुसलमान है जो जान-बूझकर मौका होते हुए भी पाकिस्तान नहीं गए. दंगे हो गए, पार्टीशन हो गया, दुकान जला दी गई. रिश्तेदार पाकिस्तान भाग गए. दो भाई क़त्ल कर दिए गए. कहाँ जाए? कहाँ सर छुपाए? क्या पाकिस्तान चले जाए? कुर्बान भाई को अच्छे लगने वाले बहुत से लोग नहीं गए, तो कुर्बान भाई क्यों जाते? एक स्तर पर यह कहानी भीष्म साहनी की ‘अमृतसर आ गया है’ का विस्तार भी है और मुक्ति भी. यह घटना की नहीं, प्रक्रिया की कहानी है. सुधीश पचौरी के शब्दों में- “कुर्बान भाई ‘अमृतसर आ गया है’ का मानो वह बंदा है जो चलती रेल में दो गठरियाँ लेकर चढ़ने की कोशिश कर रहा है, जिसे बाबू लगने वाले उस कमजोर आदमी ने बाहर फेंक दिया है मगर जो फिर भी बच गया है.!! लेखक ने एक सामान्य अल्पसंख्यक कुर्बान भाई के संकट को यह कहकर व्यक्त किया है- "स्थिति मगर यह थी कि हिन्दुओं में निभने की कोशिश करते तो शक शुबहे की बर्छियों से छेद-छेद दिए जाते, और मुसलमानों में खपने की कोशिश करते तो लीगियों के धार्मिक उन्माद का जवाब देते-देते दो टूक हो जाते."[4] एक सवाल जो ज़ेहन में आता है कि क्या यह सन 47 के विभाजन तक ही सीमित रह गया, वहीँ रुक गया या इसकी कड़ियाँ आज भी सन 92 और 2002 की घटनाओं के रूप में बदस्तूर ज़ारी है. ‘पार्टीशन’ में कुर्बान भाई इतिहास के किसी अध्यापक से कहते हैं, “आप क्या ख़ाक हिस्ट्री पढ़ाते हैं? कह रहे हैं पार्टीशन हुआ था! हुआ था नहीं, हो रहा है, ज़ारी है…”

एक साहित्यकार के सरोकार केवल साहित्य से ही जुड़े नहीं होते और न ही हो सकते हैं। साहित्य अनिवार्यतः सामाजिक वस्तु है। ये जीवन की किसी एक संवेदना को लेकर चलती हैं और उससे जुड़ी अन्य विडंबनाओं को भी अभिव्यक्त करती चलती हैं. 'उज्ज्वल भविष्य' भी एक ऐसी ही कथा है जो बेरोजगारी में व्यक्ति की मानसिक उलझनों को प्रकट करती है। इसमें एक संवाद आता है कि - "काबिल आदमी अच्छा काम कर सकता है, पर होशियार आदमी के मुकाबले में आता है तो बौखला जाता है और हार जाता है। होशियार आदमी चाहे उतना काबिल न हो, काबिल लोगों से अपना काम निकलवाना जानता है।" इस समय के यथार्थ के आईने में आदर्श जब भरभराकर टूटने को विवश हो रहे हैं और जब लड़का अपनी ईमानदारी की कसमें खाता है तो मालिक का यह कहना- "अब तक तुम मुझे हँसा रहे थे, पर अब तो तुम मुझे डरा रहे हो। मैंने इतने साल में जो एंपायर खड़ी की है, उसे एक ईमानदार आदमी पर भरोसा करके मिट्टी में मिल जाने दूँ? ...आज तो इंडस्ट्री को ऐसे यंगस्टर्स चाहिए जो बेईमानी से काम करने में कुशल हो।... अचानक लड़का उठ खड़ा हुआ..., 'सर! मैं सक्सेसफुल बनूँगा। मैं बेईमान बनूँगा! बहुत बड़ा बेईमान..." उसका यह जवाब इस व्यवस्था और उससे पनपी बेरोजगारी की प्रताड़ना पर करारा तमाचा है जहाँ व्यक्ति को मूल्यों और आदर्शों से विमुख होने को विवश किया जा रहा है। 



‘प्रतीक्षा’ भी इनकी एक उल्लेखनीय लम्बी कहानी है जिसमें भी 'भ्रष्ट व्यवस्था-तंत्र' के प्रति विद्रोह का भाव बड़ी सहजता के साथ लेखक ने उभारा है। यह सैमुअल बैकेट के नाटक ‘वेटिंग फॉर गोडो’ नाटक की कथावस्तु का लेखक द्वारा किया गया एक पाठांतर है. जहाँ बैकेट का नाटक आत्मिक या वैयक्तिक प्रतीक्षा का एक अंतहीन उवाच है, तो स्वयं प्रकाश की कहानी पिछली सदी के आखिरी दौर में युवा वर्ग की हताश प्रतीक्षा को लेकर दिया एक बयान है जो साथ ही शिक्षा तंत्र का कितना ह्रास हो चुका है, को प्रकट करती है। जिसमें आर्थिक उदारीकरण के साथ बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त शिक्षित युवा वर्ग भविष्य की प्रतीक्षा करने के लिए तो विवश है ही, जीविका के अभाव के कारण और साथ ही सामाजिक रूढ़िवाद के चलते युवक-युवती का प्रेम भी एक अंतहीन प्रतीक्षा में बदल जाता है। कहानी में कॉलेज शिक्षा और खासकर हिंदी शिक्षण में व्याप्त जड़ता और भ्रष्टता को भी उजागर किया गया है- छात्रों को पहले से ही पता है कि प्रोफेसर पिता के लड़के उदयवीर की प्रथम श्रेणी आने वाली है और उसका पिता उसके माथे पर प्रथम श्रेणी का तिलक लगाकर उसे विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की नौकरी पर आसीन कर देगा. बकौल मुक्तिबोध 'बौध्दिक वर्ग है क्रीतदास' इसी बात को कहानीकार ने भी 'प्रतीक्षा' कहानी में चित्रित किया है कि पूँजीपति वर्ग किस तरह बौध्दिक वर्ग की पीठ पर सवार होकर चलता है।


कथाकार स्वयं प्रकाश की कई कहानियाँ बगैर कुछ कहे बहुत कुछ कह देती हैं ऐसी ही कहानी है 'एक यूँ ही मौत', जो व्यक्ति के जीवन के अकेलेपन की बेआवाज़ त्रासदी को तो प्रकट करती ही है साथ ही विद्वता की समाज में निरुपायता को भी चिन्हित करती है। इस कहानी का नायक जो बचपन में अपनी असाधारण प्रतिभा के लिए विख्यात हो गया था समय और समाज ने उसे एक असफल व्यक्ति में तब्दील कर दिया। यह इस समाज पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली स्थिति है जिसमें जो व्यक्ति एक सफल और सार्थक जीवन जीकर समाज को बहुत कुछ दे सकता था पर वह एक निरर्थक जीवन जीते हुए एक नाराज़ आदमी की चुपचाप मौत मर गया। उसने कभी ऐसे समाज को बदलने का प्रयास भी नहीं किया जिसकी व्यवस्था ने उसे ऐसे जीने को अभिशप्त कर दिया। स्वयं प्रकाश ऐसी समूची अकर्मण्यता पर कटाक्ष करते हुए कहते भी हैं - "इस बेहूदा दुनिया की बेहूदगी समझने के बावज़ूद उसने इसके ख़िलाफ़ न तो आवाज़ उठाई, न उन लोगों को ढूंढने की कोशिश की जो उसी की तरह 'जानते' थे। क्योंकि तब ये सब मिलकर शायद-शायद इस दुनिया को कुछ कम बेहूदा बनाने की तरक़ीब कर सकते थे।" स्वयं प्रकाश की कहानियाँ विषय वैविध्य से भरपूर है पर जिनमें वे क्षण भर के लिए भी अपनी प्रतिबद्धताओं को नहीं भूलते है. जहाँ एक ओर अकर्मण्यता को निशाना बनाते है तो वहीँ मनुष्य की समाज में भागीदारी को भी कहानी का विषय बनाते है- 'उस तरफ' कहानी में स्वयं प्रकाश ने पुरस्कार तथा तिरस्कार की मूल्यहीनता पर प्रकाश डाला है। जिसमें नख्त सिंह के द्वारा अपनी जान पर खेलकर बारह स्कूली बच्चों को आग के मुँह से बचाना। उस पर चटर्जी को दिए साक्षात्कार में उसका यह कथन कि- "यह सम्मान मुझे दे रहे हो तो इसका मतलब है, तुम आदमी से उस व्यवहार की उम्मीद नहीं रखते, जो मैंने किया।" भी काबिले-गौर है.


स्वयं प्रकाश की दृष्टि से समाज का कोई भी वर्ग जो त्रस्त है, अछूता नहीं रहता. वे हर आयु-वर्ग को, उनकी समस्याओं को अपने विशिष्ट कहन का हिस्सा बनाते है. कहानी 'ढलान पर' वरिष्ठ नागरिकों के साथ किये जाने वाले अवज्ञापूर्ण व्यवहार की शिकायत दर्ज़ करती कहानी है। यह कहानी भीष्म साहनी की ‘चीफ़ की दावत’ और उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ से आज तक के समय की यात्रा को तय करती कहानी है जो समय के साथ नित्य प्रति बदल रहे संबंधों को तो प्रकट करती ही है साथ ही बढ़ती उम्र के साथ इस नई पीढ़ी के बीच स्वयं को 'मिसफिट' पाना जीवन की सबसे बड़ी जद्दोजेहद बन जाती है, को भी रेखांकित करती है. इसमें इनके प्रति असम्मान प्रकट करते हुए 'इट वाज फन ओल्डमैन' जैसे जुमले फब्तियाँ अधिक लगते हैं जो जीवन को और अधिक अकेलेपन एवं खालीपन की ओर ढकेल देते हैं।





कथाकार स्वयं प्रकाश ने आज की स्त्री की समस्या को नितान्त भिन्न दृष्टिकोण से देखा है उनकी कहानी 'मंजू फालतू’ योग्यता प्राप्त नई लड़की की कहानी है। वह समर्थ है किन्तु फिर भी जीवन की जटिलताएँ उसे घेरे हैं। वह नौकरी और मातृत्व के बीच खटती नज़र आती है। मंजू की कहानी पुरुष वर्चस्व की एक स्टीरियो कहानी नहीं है अपितु वह जो भी निर्णय लेती है अपनी इच्छा से लेती है। फिर भी शादी के बाद उसे अपने भीतर के द्वंद्व से गुज़रना पड़ता है- "लेकिन नितिन का घर? तो क्या यह उसका घर नहीं? यह घर उसने नहीं बनाया। रेडीमेड कपड़े या खाने जैसा है। उसे मिल गया है। फिट भी नहीं है। कहीं से ढीला है कहीं फंसता है। अल्टर करने का टाइम भी नहीं है। करेगी कभी टाइम मिला तो।’’ शादी के बाद बच्चे और फिर गृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही में अपने ही द्वारा हासिल मुकाम का त्याग भी करती है। बच्चों के कुछ बड़ा होने के बाद फिर से नौकरी करनी चाही तो पाया कि ज्ञान और तकनीक के नए होते उसकी योग्यता क्षेत्र में अब एप्लीकेशन के कॉलम में उसके पास ‘फालतू’ लिखने के अलावा कुछ नहीं बचा है। लेखक ने मंजू को न एक नाराज औरत बनाया है और न दयनीय। बस इस सामाजिक ताने-बाने में उसके उलझाव को प्रस्तुत किया है।


स्वयंप्रकाश की कहानियों में पर्याप्त वैविध्य मौजूद हैं। 'नाचने वाली कहानी' में लचर सरकारी तंत्र और नौकरशाही की जड़ता पर निशाना साधा गया है तो 'बाबूलाल तेली की नाक' में जातिवाद पर प्रहार किया गया है। कहानी 'कहाँ जाओगे बाबा?' में एक टीस जो मानो ऑटोरिक्शा चालक से नहीं, यह समय हमसे प्रश्न कर रहा है जो पूंजीवादी विकास की पीठ पर लादकर शोषण को लाया है और 'गौरी का गुस्सा' कहानी में उपभोक्तावाद के दौर में चारों तरफ दौड़ती मानवीय लालसाओं को केन्द्र में रखा गया है। जो शिव-पार्वती की मिथकीय छवि के माध्यम से उजागर होती हैं। उपभोक्तावाद को इसमें दिखाया गया है “क्रेडिट कार्ड से दूध नहीं निकलता, गैस भी नहीं, उसे निचोड़ो तो एक बूँद पेट्रोल न निकले और चबाओ तो एक गेहूँ जितना स्वाद भी न आये। ...वहाँ सब कुछ था, लेकिन कुछ नहीं था। भोजन था लेकिन भूख नहीं थी, सूचनाएँ अपार थी, बोध गायब था। समुदाय थे, लेकिन सामाजिकता नदारद थी, दर्दनाशक बहुत थे, हमदर्द एक भी नहीं। सम्पर्क था, लेकिन संवाद नहीं था। मनुष्य थे, लेकिन मनुष्यता ढूंढनी पड़ती थी, बस्तियाँ थी, लेकिन बसावट नहीं थी, लोग थे, लेकिन लगावट गायब थी।“ स्पष्ट है कि सबकुछ अव्यवस्थित है किन्तु यह भी साथ ही दर्ज़ है कि मनुष्य को अपनी कोशिशें स्वयं करनी है। दुनिया खराब है तो हमारी वजह से, सुन्दर बनेगी तो भी हमारे ही प्रयासों से. यह कहानी यही व्यंजना देती प्रतीत होती है इसमें रतनलाल अशान्त उपभोक्तावाद के दौर का वह मनुष्य है जिसे भगवान भी शान्ति व तोष प्रदान नहीं कर सकते। 


इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि स्वयं प्रकाश ने अपनी कहानियों में अनेक युगीन समस्याओं जातिवाद, लाल फीताशाही, साम्प्रदायिकता, आदिवासी संस्कृति, बेरोजगारी, विस्थापन, स्त्री-आत्मनिर्भरता से लेकर स्त्री-मुक्ति से जुडी अनेक समस्याओं का चित्रण किया हैं जो अपने समय की जटिल और उलझी हुई सच्चाइयों को समझने का अवसर देती हैं। इन कहानियों में अपने समय के जटिल और मानवता विरोधी स्थितियों के सच को विषय बनाने का काम स्वयं प्रकाश द्वारा बखूबी किया गया है. यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि जब भी कोई कहानीकार कहानी में अपने समय के प्रति प्रतिबद्ध हो उसकी जटिलताओं एवं विद्रूपताओं की शिनाख़्त करता है तब वह पाठक से भी उनके समाधान और जवाबदेही की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मांग करता है. स्वयं प्रकाश की ये कहानियां इसी रूप में पाठक के लिए समस्या और उसके समाधान तक पहुँचने की यात्रा में मध्यस्थ का कार्य करती हैं. 

मूल स्रोत:

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*स्वयं प्रकाश की प्रतिनिधि कहानियाँ/ किताबघर प्रकाशन



* मेरी प्रिय कहानियाँ: स्वयं प्रकाश/ ज्योतिपर्व प्रकाशन 



सन्दर्भ सूची:

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[1] मेरी प्रिय कथाएँ: स्वयं प्रकाश/ भूमिका/ ज्योतिपर्व प्रकाशन
[3]http://www.aksharparv.com/artcile_desc.php?issue_no=175&article_id=508#.VNNZIJ2Uend 24.02.2015/ 19.07
[4] उत्तर यथार्थवाद/ सुधीश पचौरी/ पृष्ठ- 79/ वाणी प्रकाशन, 2004

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