Tuesday, May 5, 2015

मेरी प्रिय कहानियाँ



साहित्य की रचना एक जटिल प्रक्रिया भले ही हो पर इतनी भी नहीं कि उस पर कुछ कहा ही न जा सके। साहित्य-रचना में समय बुनियादी महत्त्व रखता है। रचनाकार एक सफल और सार्थक रचना तभी दे पाता है जब वह अपने मौज़ूदा समय को उसमें उकेर सके। ऐसे ही अपने मौजूदा समय से क़दमताल करते प्रसिद्द कथाकार स्वयं प्रकाश हैं जिनका कहानी-संग्रह 'मेरी प्रिय कहानियाँ' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी दस कहानियाँ सम्मिलित की गई हैं जिनका चयन उन्होंने स्वयं किया है। उनकी कहानियों का बतकही का अंदाज़ इन कहानियों को विशिष्ट एवं प्रभावशाली बनाता है। कथाकार स्वयं प्रकाश की ये कहानियाँ भारतीय जीवन के हर्ष-विषाद, उथल-पुथल और मामूली समझी जाने वाली स्थितियों का सटीक विश्लेषण करती हैं जो जीवन सत्य की उन घटनाओं और परिस्थितियों को उदघाटित करती चलती हैं जिनका केंद्र सामान्य जन और उसका जीवन-संघर्ष है। इन कहानियों के भीतर कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये गए हैं जो लैंगिक असमानता, साम्प्रदायिकता, पूंजीवादी वर्चस्व, वरिष्ठ नागरिकों की समस्या, स्त्री-हिंसा, बुद्धिजीवी अकर्मण्यता, भूमि अधिग्रहण क़ानून इत्यादि की पोल खोलते चलते हैं।

कथाकार स्वयं प्रकाश पिछले चालीस वर्षों से लिख रहे हैं। उनकी कहानियाँ यथार्थ को उसकी पूर्णता और कटुता के साथ प्रस्तुत करती हैं। उनकी इसी विशिष्टता के कारण उन्हें प्रेमचंद की परम्परा का महत्वपूर्ण कथाकार कहा गया किन्तु वे इस पुस्तक की भूमिका में स्वयं कहते हैं कि - "कहानी की दुनिया में मैं प्रेमचंद को पढ़कर नहीं, चेखव को पढ़कर आया था।" यदि गहरे स्तर पर देखा जाए तो स्वयं प्रकाश चेखव की कहानियों के समान ही वातावरण की सृष्टि करते हैं जिसमें प्रवेश करते ही पाठक खुद-बखुद सब समझने लगता है।

इस कहानी-संग्रह की पहली कहानी 'स्वाद' परिस्थिति की भयावहता को प्रकट करती कहानी है जिसमें समाज की जड़ों तक पहुँच गई हिंसा को बिम्बित किया गया है। जहाँ कहानी का शुरूआती संवाद ही दृष्टव्य है- "यह अफ़सर की जात होती ही ऐसी है। कर-कर के देखते हैं ये बत्तमीजी, कि देखें किस पर कितनी चलती है। और जिस पर चलती है उसी पर सवारी गाँठते हैं, जिस पर नहीं चलती उस पर चलाते भी नहीं।" अफसर की झाड़ की खीज़ से उत्पन्न यह कुंठित मन जब पत्नी व बच्चे बिट्टू तक पहुँचता है तो बिट्टू की इस परिणति के रूप में सामने आता है- "तकिए की, खिलौनों की पिटाई करने में बिट्टू को मजा आने लगा।...पहली बार चखा था हिंसा का स्वाद!...मारना मज़ेदार। कल जॉली की मारूँगा। परसों टुन्नू को। बहुत खुनी प्रतिक्रिया नहीं हुई तो रोज़ मारूँगा दोनों को। या किसी और को जो आसानी से मार खा ले।" कहीं न कहीं यह समाज में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर, एक समूह का दूसरे समूह पर और एक जाति-धर्म का दूसरे पर वर्चस्व क़ायम करने की बढ़ती संस्कृति पर प्रहार है। 

कथाकार स्वयं प्रकाश की कई कहानियाँ बगैर कुछ कहे बहुत कुछ कह देती हैं ऐसी ही कहानी है 'एक यूँ ही मौत', जो व्यक्ति के जीवन के अकेलेपन की बेआवाज़ त्रासदी को तो प्रकट करती ही है साथ ही विद्वता की समाज में निरुपायता को भी चिन्हित करती है। इस कहानी का नायक जो बचपन में अपनी असाधारण प्रतिभा के लिए विख्यात हो गया था समय और समाज ने उसे एक असफल व्यक्ति में तब्दील कर दिया। यह इस समाज पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली स्थिति है जिसमें जो व्यक्ति एक सफल और सार्थक जीवन जीकर समाज को बहुत कुछ दे सकता था पर वह एक निरर्थक जीवन जीते हुए एक नाराज़ आदमी की चुपचाप मौत मर गया। उसने कभी ऐसे समाज को बदलने का प्रयास भी नहीं किया जिसकी व्यवस्था ने उसे ऐसे जीने को अभिशप्त कर दिया। स्वयं प्रकाश ऐसी समूची अकर्मण्यता पर कटाक्ष करते हुए कहते भी हैं - "इस बेहूदा दुनिया की बेहूदगी समझने के बावज़ूद उसने इसके ख़िलाफ़ न तो आवाज़ उठाई, न उन लोगों को ढूंढने की कोशिश की जो उसी की तरह 'जानते' थे। क्योंकि तब ये सब मिलकर शायद-शायद इस दुनिया को कुछ कम बेहूदा बनाने की तरक़ीब कर सकते थे।"

'तीसरी चिट्ठी' के विषय में स्वयं प्रकाश स्वयं कहते हैं कि- यह मेरी अकेली कहानी है जिसमें मैंने बुरे आदमियों के बारे में बात की है और वहाँ भी अंत में अच्छाई फूट पड़ती है। यह कहानी मनुष्य में मनुष्यता के प्रकट होने की कहानी है जो साथ ही रजनी शर्मा नाम की छत्तीस वर्षीय युवती के माध्यम से परिवार तथा समाज में महिलाओं के प्रति बरते जा रहे अमानवीय और असभ्य व्यवहार का कच्चा चिट्ठा सामने रखती है। इसी प्रकार 'मूलचंद, बाप तथा अन्य' कहानी में भी कथाकार का प्रयास प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई देखने का रहा है।

लेखक का दायित्व होता है कि वह अपने समय की, उसके सरोकारों की शिनाख़्त करे, इस दृष्टि से कथाकार स्वयं प्रकाश कहानी में किस्सागोई के बहाने ही गहरी चिंताएँ प्रकट करते हैं। 'बिछुड़ने से पहले' में उन्होंने अपनी पर्यावरण के प्रति जागरूकता और चिंता दोनों को प्रकट किया है जिसमें उन्होंने मुनाफे के लिए पृथ्वी को उसके पर्यावरण को नष्ट करने की प्रवृति को उघाड़ा है यह कहानी बेहद आत्मीय-सी लगी जो हमें हमारी जड़ों से दूर होते जाने के अहसास से भर देती है। मानवीकरण के माध्यम से खेत व पगडंडी की बातचीत ग्रामीण स्त्री-पुरुष की तरह दिखाई गई है जिसमें पगडंडी की जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है और दोनों इस पर विकास और बदलाव की सार्थकता पर बातचीत कर रहे हैं - "एक दिन खेत ने पगडंडी से कहा - सुना तेरी जगह आठ किलोमीटर की सड़क बन रही है पक्की? चालीस फुट चौड़ी? डिवाइडर वाली? ...आज तक किसी सड़क ने खेत से दोस्ती की है जो मेरे से करेगी? ...दिल को कौन पूछता है मितवा! विकास तो होके रहेगा। पगडंडी ने उसांस छोड़ी। दोनों चुपचाप रोने लगे।" यह संवाद भूमि अधिग्रहण क़ानून के कागज़ी पुर्ज़ों पर सवालिया निशान लगाता है। 

'उस तरफ' कहानी में जैसलमेर के दिनों का वर्णन है जहाँ लेखक ने लगभग छह वर्षों का प्रवास किया। इस कहानी में कथाकार स्वयं प्रकाश ने पुरस्कार तथा तिरस्कार की मूल्यहीनता पर प्रकाश डाला है। जिसमें नख्त सिंह के द्वारा अपनी जान पर खेलकर बारह स्कूली बच्चों को आग के मुँह से बचाना। उस पर चटर्जी को दिए साक्षात्कार में उसका यह कथन कि- "यह सम्मान मुझे दे रहे हो तो इसका मतलब है, तुम आदमी से उस व्यवहार की उम्मीद नहीं रखते, जो मैंने किया।" भी काबिले-गौर है। लेखक की कहानियाँ वैविध्य से संपन्न हैं। कहानी 'कहाँ जाओगे बाबा?' में एक टीस जो मानो ऑटोरिक्शा चालक से नहीं, यह समय हमसे प्रश्न कर रहा है जो पूंजीवादी विकास की पीठ पर लादकर शोषण को लाया है। इसी प्रकार 'उल्टा पहाड़' साम्प्रदायिकता को एक नितान्त अलग कोण से देखती है। जिसमें सुमेर सिंह गहलोत का सुरूर साहब बनने का सफ़र जीवन की कलई खोलता चलता है। सुमेर सिंह के सुरूर साहब बनने से जहाँ मालियों को उनपर गर्व है तो शायरी की दुनिया का बड़ा नाम बनने पर मुस्लिम समाज उन्हें मुसलमान समझने लगता है, यहाँ यदि देखा जाए तो उर्दू को जातीय गर्व व इस पूर्वग्रह से देखना भी परिलक्षित होता है कि इस पर धर्म विशेष का ही एकाधिकार है। हालाँकि सुरूर साहब ने भी लोगोँ की यह ग़लतफ़हमी दूर करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया और अंत इस पूरे प्रपंच का अंत इस रूप में होता है कि सुमेर सिंह गहलोत उर्फ़ सुरूर साहब को भुला दिया जाता है। अंत में सांखल साहब और सुरूर साहब की बातचीत का यह संवाद जो सुरूर साहब के द्वारा व्यक्त की गई पीड़ा को प्रकट करता है- "और वैसे भी उनके ज़ेहन पर जड़े खिड़की-दरवाज़ों के चौखट इतनी सख़्ती और पाबन्दी से सील हो चुके हैं कि उन्हें कोई नहीं खोल सकता। सिवाय वक़्त की ठोकरों के। और मैं वक़्त नहीं हूँ साहब। वक़्त के हाथों मारा एक इंसान हूँ।" यहाँ यह भी सोचना ज़रूरी हो जाता है कि जिन सुरूर साहब को भुला दिया गया वह एक पहाड़ के समान वज़ूद वाला व्यक्ति एक दलदल भरी खाई में बदल गया। इसके लिए कौन उत्तरदायी है- यह व्यवस्था, यहाँ का समाज या हम स्वयं।



स्वयं प्रकाश की कहानी 'ढलान पर' वरिष्ठ नागरिकों के साथ किये जाने वाले अवज्ञापूर्ण व्यवहार की शिकायत दर्ज़ करती कहानी है। साथ ही बढ़ती उम्र के साथ खुद को इस नई पीढ़ी के बीच स्वयं को 'मिसफिट' पाना जीवन की सबसे बड़ी जद्दोजेहद बन जाती है। इसमें इनके प्रति असम्मान प्रकट करते हुए 'इट वाज फन ओल्डमैन' जैसे जुमले फब्तियाँ अधिक लगते हैं जो जीवन को और अधिक अकेलेपन एवमं खालीपन की ओर ढकेल देते हैं। कथाकार स्वयं प्रकाश की 'अगले जनम' कहानी केवल स्त्री होने की पीड़ा को ही प्रकट नहीं करती बल्कि इस व्यथा और शोषण की प्रक्रिया की पहचान करती हुई लैंगिक-असमानता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाने को प्रेरित भी करती है।

कथाकार स्वयं प्रकाश का यह कहानी-संग्रह जीवन-मूल्यों को अपने चिंतन के दायरे में रखता है जिसमें उनकी हर कहानी में कमोबेश यही चिंता बनी हुई है। उनकी इस पुस्तक को पठनीय इसकी अद्भुत रूप से सरल और प्रभावशाली भाषा भी बनाती है जो भाषिक आडम्बरों से मुक्त है तथा जिसका झुकाव देशज शब्दों की ओर अधिक है। इस रूप में यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।



पुस्तक- मेरी प्रिय कहानियाँ 

लेखक- स्वयं प्रकाश 

प्रकाशक- राजपाल एंड सन्ज़

No comments:

Post a Comment