Wednesday, July 10, 2013





स्त्री का कौन सा रूप हूँ मैं
इस सोच का ग्रास बनती जा रही हूँ
कभी लगता है मैं एक नई लड़की हूँ
नई सोच, नए सपनों, नई उमंगों से भरपूर
पर जबसे तुम्हारे प्रेम में हूँ
नया रूप ही रही हूँ जान
दुनिया सिमटती जा रही है
तुमसे आगे सोचना नहीं चाहती
तुमसे आगे बढ़ना नहीं चाहती
तुमसे आगे कुछ नज़र नहीं आता
ये रूप नई लड़की का तो नहीं लगता
शायद जो मैं हूँ, और
जो मैं होना चाहती हूँ
उसमें द्वंद्व है, विरोधाभास है
मेरे अन्दर की पुरातनता, परंपरा
महज़ आदर्शवादिता तो नहीं?
या ये मेरे संस्कार है, जो
बचपन से ठोक-बजाकर भरे गए है
कहीं भीतर बहुत गहरे में।
इनकी पैठ को चुनौती देना भर
क्यों मुझे तोड़ने को काफ़ी हो जाता है
ये वाकिफ़ियत खुद से
क्या सही है
कितनी सही है
नहीं जानती
जानना चाहती हूँ
खुद को परत दर परत खोलना चाहती हूँ
इसमें क्या रहस्य निहित है
जो मुझसे भी अज्ञात है
खुद को एक ऐसा
बादल बनते देखना चाहती हूँ
जिस पर इन्द्रधनुष छिटक सके
जो बादल
बरसात के बाद का हो
साफ़-सुथरा
निश्छल।

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